बचपन पर बोझ नहीं, संरक्षण चाहिए: हमारी सामाजिक होड़ और बच्चों का स्वास्थ्य

A unique confluence of jungle, adventure and fear amidst the city of Jaipur

डॉ. प्रियंका सौरभ

हाल ही में 10 वर्षीय एक बच्चे की अचानक मृत्यु से जुड़ा समाचार केवल एक दुखद घटना नहीं है, बल्कि हमारे समय की सबसे गंभीर सामाजिक विडंबना का संकेत है। चिकित्सकों द्वारा बताए गए संभावित कारण—अधूरी नींद, बिना नाश्ता स्कूल जाना, भारी स्कूल बैग, होमवर्क और प्रदर्शन का मानसिक दबाव, समय पर व पौष्टिक भोजन का अभाव—एक ऐसे तंत्र की ओर इशारा करते हैं, जिसमें बचपन लगातार कुचला जा रहा है। यह घटना हमें यह सोचने के लिए मजबूर करती है कि क्या हम बच्चों को बेहतर भविष्य देने की कोशिश में उनका वर्तमान छीन रहे हैं।

आज का समाज उपलब्धियों की अंधी दौड़ में फँसा हुआ है। अभिभावक, शिक्षक और संस्थाएँ—सभी किसी न किसी रूप में प्रतिस्पर्धा को जीवन का मूल मंत्र मान बैठे हैं। इस प्रतिस्पर्धा का सबसे कमजोर शिकार वे बच्चे हैं, जिनकी उम्र अभी खेलने, सीखने और सहज विकास की है। चार-पाँच साल की उम्र में जब बच्चा दुनिया को समझना शुरू करता है, तब उससे अपेक्षा की जाती है कि वह तय समय पर उठे, तय पाठ्यक्रम पूरा करे, परीक्षा में अव्वल आए और भविष्य की दिशा अभी से तय कर ले। यह सोच न केवल अवैज्ञानिक है, बल्कि अमानवीय भी है।

बाल मनोविज्ञान स्पष्ट रूप से बताता है कि शुरुआती वर्षों में बच्चे का मस्तिष्क सबसे अधिक लचीला और संवेदनशील होता है। इस दौर में उस पर डाला गया दबाव उसके व्यक्तित्व, आत्मविश्वास और स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ता है। नींद की कमी, तनाव और भय की स्थिति में सीखने की प्रक्रिया बाधित होती है। फिर भी, हम सुबह कच्ची नींद में बच्चों को जगाते हैं, उन्हें बिना नाश्ता कराए स्कूल भेज देते हैं और उनसे उम्मीद करते हैं कि वे पूरे दिन सक्रिय और एकाग्र रहेंगे। यह उम्मीद वास्तविकता से कोसों दूर है।

भारी स्कूल बैग वर्षों से चर्चा का विषय रहे हैं। सरकारी दिशा-निर्देश और न्यायालयों के आदेशों के बावजूद, आज भी छोटे बच्चे अपने वजन से अधिक बोझ कंधों पर ढोते दिखाई देते हैं। यह केवल शारीरिक समस्या नहीं है; यह मानसिक संदेश भी देता है कि शिक्षा एक बोझ है, आनंद नहीं। जब शिक्षा बोझ बन जाती है, तो बच्चे के मन में सीखने के प्रति स्वाभाविक जिज्ञासा धीरे-धीरे समाप्त होने लगती है।

होमवर्क और परीक्षा का दबाव इस समस्या को और गहरा करता है। होमवर्क का उद्देश्य कक्षा में सीखी गई बातों को दोहराना और समझ को मजबूत करना होना चाहिए, न कि बच्चे को भयभीत करना। लेकिन व्यवहार में होमवर्क अक्सर दंड का रूप ले लेता है। अधूरा रहने पर डाँट, सज़ा और तुलना—ये सब बच्चे के आत्मसम्मान को चोट पहुँचाते हैं। वह सीखने के बजाय गलती से डरने लगता है, और यही डर आगे चलकर तनाव, चिंता और अवसाद का कारण बनता है।

भोजन और दिनचर्या भी बच्चों के स्वास्थ्य में अहम भूमिका निभाते हैं। स्कूल में समय पर और पौष्टिक भोजन न मिलना, ठंडा लंच खाने की मजबूरी, और घर लौटते ही बिना आराम नहाने व पढ़ने का दबाव—यह सब बच्चे के शरीर की प्राकृतिक जरूरतों की अनदेखी है। शरीर और मन को विश्राम की आवश्यकता होती है। बिना विश्राम के लगातार गतिविधि बच्चे की सहनशीलता को तोड़ देती है।

यह सवाल भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि हम बच्चों से आखिर चाहते क्या हैं। क्या हम उन्हें खुश, स्वस्थ और संवेदनशील इंसान बनाना चाहते हैं, या केवल अंक और पदवी हासिल करने वाली मशीन? जब अभिभावक अपने बच्चे को दूसरों से तुलना करते हैं—“फलाँ का बच्चा यह कर रहा है, तुम क्यों नहीं”—तो वे अनजाने में उसके मन में हीन भावना भर देते हैं। यह तुलना सामाजिक होड़ को जन्म देती है, जिसमें हर कोई आगे निकलने की कोशिश करता है, चाहे उसकी कीमत बच्चे का बचपन ही क्यों न हो।

शिक्षा व्यवस्था को भी इस संदर्भ में आत्ममंथन करना होगा। स्कूल केवल पाठ्यक्रम पूरा करने की फैक्ट्री नहीं हैं; वे समाज निर्माण की प्रयोगशालाएँ हैं। यदि स्कूलों में खेल, कला, संवाद और रचनात्मक गतिविधियों के लिए पर्याप्त स्थान नहीं है, तो शिक्षा अधूरी है। शिक्षक बच्चों के लिए केवल ज्ञानदाता नहीं, मार्गदर्शक और संरक्षक भी होते हैं। अनुशासन के नाम पर भय का वातावरण बनाना शिक्षा के मूल उद्देश्य के विपरीत है।

नीतिगत स्तर पर सरकार और प्रशासन की भूमिका भी अहम है। स्कूल बैग का वजन, स्कूल समय, होमवर्क की मात्रा और प्रारंभिक कक्षाओं में परीक्षा प्रणाली—इन सब पर स्पष्ट और सख्त दिशा-निर्देशों की आवश्यकता है। साथ ही, इन नियमों का पालन सुनिश्चित करने के लिए प्रभावी निगरानी तंत्र भी होना चाहिए। बच्चों के नियमित स्वास्थ्य परीक्षण, काउंसलिंग सेवाएँ और पोषण कार्यक्रम शिक्षा का अभिन्न हिस्सा बनने चाहिए।

अभिभावकों के लिए सबसे बड़ा प्रश्न आत्मचिंतन का है। अपनी शिक्षा-यात्रा को याद करना जरूरी है—हमने कब स्कूल जाना शुरू किया, कैसे सीखा, कितनी जगह खेल और मित्रता को मिली। क्या हम सचमुच आज के बच्चों से अधिक सक्षम थे, या हमें सीखने के लिए अधिक समय और स्वतंत्रता मिली थी? यदि हमने संघर्ष किया और आगे बढ़े, तो यह मान लेना कि हमारे बच्चे भी वही रास्ता अपनाएँ, जरूरी नहीं। हर पीढ़ी की चुनौतियाँ और जरूरतें अलग होती हैं।

यह भी समझना होगा कि सफलता का अर्थ केवल ऊँचा पद या अधिक वेतन नहीं है। एक संतुलित, संवेदनशील और जिम्मेदार नागरिक बनना भी सफलता है। यदि बच्चा मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं है, तो उसकी उपलब्धियाँ खोखली हैं। समाज को यह स्वीकार करना होगा कि हर बच्चा एक जैसा नहीं होता—उसकी रुचियाँ, क्षमताएँ और गति अलग-अलग होती हैं। शिक्षा का उद्देश्य इन भिन्नताओं को सम्मान देना होना चाहिए, न कि उन्हें कुचल देना।

मीडिया और सामाजिक विमर्श की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। जब केवल टॉपर्स, रैंक और रिकॉर्ड की बातें होती हैं, तो अप्रत्यक्ष रूप से दबाव का माहौल बनता है। हमें उन कहानियों को भी जगह देनी चाहिए, जहाँ बच्चों ने खेल, कला, सेवा और मानवीय मूल्यों के माध्यम से जीवन को अर्थ दिया। इससे समाज का दृष्टिकोण संतुलित होगा।

अंततः, यह प्रश्न हमारे सामने खड़ा है—क्या हम सचमुच बच्चों का भविष्य संवार रहे हैं, या अपने अहंकार और असुरक्षा को उनके कंधों पर लाद रहे हैं? यदि किसी उपलब्धि की कीमत बच्चे की सेहत, मुस्कान और जीवन है, तो वह उपलब्धि नहीं, विफलता है। बच्चों को दया नहीं, अधिकार चाहिए—आराम का, खेलने का, गलती करने का और अपनी गति से बढ़ने का।

अब समय आ गया है कि हम होड़ से हटकर संवेदना को चुनें। शिक्षा को भय से मुक्त करें, बचपन को बोझ नहीं, संरक्षण दें। क्योंकि स्वस्थ बचपन ही स्वस्थ समाज की नींव होता है, और यदि नींव ही कमजोर होगी, तो भविष्य की इमारत कितनी भी ऊँची क्यों न हो, टिक नहीं पाएगी।