डॉ. महेन्द्रकुमा जैन ‘मनुज’
कर्नाटक के जमखाण्डी के निकट हलिंगली में खुदाई के दौरान एक प्राचीन व अद्भुत जैन प्रतिमा प्राप्त हुई थी ऐसा बताया जाता है। इसके चिह्न आदि देखकर इसे भगवान आदिनाथ व भगवान महावीर की संयुक्त ‘आदिवीर’ प्रतिमा माना गया है। जिस तरह ‘नरसिंह’ आधा मनुष्य, आधा सिंह की मूर्ति मिलती है, उसी तरह इस प्रतिमा का दायां भाग आदिनाथ (ऋषभनाथ) का और आधा बायां भाग महावीर का निर्मित किया गया है। दायीं ओर का आधा चिह्न वृषभ-बैल का मुख है और बायीं ओर का अर्धलांछन सिंहमुख है। तीर्थंकर आदिनाथ का लांछन वृषभ है और तीर्थंकर महावीर का लांछन सिंह है। इस कारण यह ‘आदिवीर’ जिन प्रतिमा चिह्नित की गई है। प्रतिमा का तृतीय नेत्र भी दर्शाया गया है। जो थोड़ा सा आदिनाथ के अंग की तरफ है । भारत में पहली बार इस तरह की ‘आदिवीर’ भगवान की प्राचीन प्रतिमा मिली है। इसे लगभग दूसरी या तीसरी सदी की चिह्न युक्त प्रतिमा अनुमानित किया गया है। किन्तु प्रतिमा को देखकर यह अर्वाचीन प्रतिमा प्रतीत होती है। अभी से अधिक से अधिक लगभग पांच सौ वर्ष से अधिक प्राचीन प्रतीत नहीं होती है। जैन मूर्तिशास्त्रों में इस तरह की संयुक्त प्रतिमाओं के शिल्पन के उल्लेख नहीं हैं।
जहां से यह प्रतिमा मिलने का दावा किया जा रहा है, उस स्थान से एक शिलालेख प्राप्त हुआ था, जिसमें आचार्य भद्रबाहु के साथ चंद्रगुप्त मौर्य उत्तर से दक्षिण भारत की ओर विहार करते समय चातुर्मास किये जाने का उल्लेख है। संभावना की जा रही है कि यहां प्राचीन समय में विशाल जिनालय रहा होगा। संजय जैन ने सूचना दी थी कि आचार्य कुलरत्नभूषण महाराजजी के अनुसार इसके पहले भी यहां पर 16 पुरानी प्रतिमा मिल चुकी हैं और वे सभी प्रतिमाएँ आचार्य श्री कुलरत्न भूषण महाराजजी के दृष्टांत से मिलीं हैं। यह संपूर्ण भारत वर्ष में या दुनिया में ऐसी एकमेव अतिशयकारी प्रतिमा है, जिसको आदिवीर भगवान के नाम से जाना जाता है।
जैन परम्परा में चौबीस तीर्थंकरों की मान्यता है। पौराणिक मान्यतानुसार प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ जिन्हें ऋषभदेव भी कहते हैं और अंतिम 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर हैं, जिनके विषय में सब जानते हैं। मान्यतानुसार चौबीस तीर्थंकरों से पूर्व भी चौबीस तीर्थंकर हो चुके हैं और आगे भी चौबीस तीर्थंकर होंगे जो भविष्यकालीन चौबीसी कहलाती है।
वर्तमान चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ का जन्म आज से करोड़ों वर्ष पूर्व हुआ। ऋषभदेव का वर्णन वेदों और भागवत पुराण आदि में भी मिलता है। दर असल वैष्णव परम्परा में मान्य शंकर जी से ऋषभदेव का बहुत साम्य है। कुछ विद्वान् तो मानते हैं कि शिव और ऋषभदेव एक ही हैं। उन्हें मानने की परम्परायें कालान्तर में भिन्न भिन्न हो गईं।
उपरोक्त मान्यता के कई कारण भी हैं-
1. ऋषभदेव का तपस्या व निर्वाण स्थल कैलाश पर्वत है, शिव का भी विचण व तपस्या स्थल कैलाश पर्वत है।
2. ऋषभदेव का चिह्न वृषभ या बैल हैै, शिव का भी वाहन या आराधक नंदी बैल है।
3. ऋषभदेव का मूत्यंकन जटाजूटयुक्त किया जाता रहा है, उनकी विभिन्न जटासज्जायुक्त प्रतिमाएं प्राप्त होती हैं, शिव तो जटाधारी हैं ही, जटा हित शिव की मूर्तियां देख्ने में नहीं आई हैं।
4. ऋषभदेव को भगवान माना जाता है, शिव को भी भगवान की मान्यता है।
5. ऋषभदेव का विवाह हुआ था, शिव का भी विवाह हुआ था।
6. ऋषभदेव दिगम्बर अर्थात् वस्त्र रहित रहे, शिव भी दिगम्बर कहे जाते हैं।
इस अनूठी आदिवीर प्रतिमा में एक ओर केश जटायें स्कंधों पर लटकी हुई अंकित हैं। मस्तक पर तृतीय नेत्र का अर्धाकार शिल्पित है। यह जैन मूर्ति परम्परा से सर्वथा हटकर है। इसमें शैव पुराणों में वर्णितशिव के तृतीय नेत्र की संयोजना प्रततीत होती है। आदिनाथ के चिह्न वृषभ को प्रायः पादपीठ में नीचे लघु रूप में दर्शाये जाने की परम्परा है, किन्तु इस प्रतिमा में वृषभ को कुछ बड़े आकार में अंकित किया गया है, जो पादपीठी से ऊपर पादों के समानान्तर तक आ गया है। उसका विषाण तो हथेली के समानान्तर तक पहुंच गया है।
पादपीठ भी एक ओर प्राकृतिक लघु पाषाणों की दर्शाई गई है, जबकि महावीर की ओर का पादपीठ कलात्मक है।
केवल मस्तक पर बने अर्धनेत्र को दरकिनार कर दें तो यह प्रतिमा तीर्थंकर के अतिरिक्त अन्य किसी की संभाव्य नहीं है।
यह प्रतिमा पहली-दूसरी शती की बताई जाती है, इस कथन में संदेह है। इसके कई कारण हैं- 1. प्रतिमा की बनावट, भूगर्भ में रहने पर भी इसकी बहुत अच्छी स्थिति। अर्थात् न कोई क्षरण, न चट्टे। ऐसे कोई उदाहरण हमें उपलब्ध नहीं हैं। 2. किसी पुरातत्त्वविद द्वारा इसका परीक्षण कर समय के निर्धारण की रिपोर्ट सामने नहीं आई है। 3. ऋषभदेव, सुपार्श्वनाथ और पार्श्वनाथ के अतिरिक्त किन्हीं अन्य तीर्थंकर के लांछन अंकित करने का उस समय प्रचल नहीं हुआ था। उपरिवर्णित प्रतिमा अर्वाचीन प्रतीत होती है।