हवाला कारोबारियों से महिला एसडीओपी समेत अन्य पुलिसकर्मियों ने लूटे करोड़ो रुपए

A woman SDOP and other policemen looted crores of rupees from hawala traders.

प्रमोद भार्गव

अभी तक मध्यप्रदेश और देष में भृष्टाचार से अर्जित काली कमाई के अनगिनत मामले सामने आते रहे हैं। लेकिन अब वर्दी पहने पुलिस वालों ने सिवनी के हवाला कारोबारियों से 2.96 करोड़ रुपए राश्ट्रीय राजमार्ग पर लूटने के बाद परस्पर बांट लिए। इस लूट में महिला एसडीओपी पूजा पांडेय, एसआई अर्पित भैरम समेत 11 पुलिसकर्मी षामिल हैं। इस मामले में पुलिसकर्मियों के विरुद्ध डकैती, अपहरण और आपराधिक शड्यंत्र की धाराओं में प्राथमिकी दर्ज करने के बाद इनकी गिरफ्तारी भी हो गई है। रक्षक से भक्षक बने उच्च शिक्षित नौकरशाहों हों की यह कहानी यहीं समाप्त नहीं होती, एक पखवाड़े के भीतर समाज को झकझोर देने वाली ऐसी तीन और घटनाएं सामने आई हैं। राजधानी भोपाल में दो आरक्षकों ने उदित गायकी की पीट पीट कर हत्या कर दी। बालाघाट थाने के मालखाने से प्रभारी ने 75 लाख रुपए की जब्त सामग्री गायब कर दी। कदाचरण से जुड़ा एक मामला लोकायुक्त पुलिस के छापे से सामने आया है। दो माह पहले सेवानिवृत्त हुए आबकारी अधिकारी धर्मेंद्र भदौरिया से एक करोड़ की नगदी के साथ 10 करोड़ से ज्यादा की संपत्ति बरामद हुई है। वैसे तो यह हाल लगभग पूरे देष में है, लेकिन मप्र में देष भक्ति-जनसेवा के नाम पर जैसी लूट-मार , हिंसा और अराजकता लगातार देखने में आ रही है, वैसे उदाहरण अन्य प्रदेषों में दिखाई नहीं दे रहे हैं। ये मामले नौकरशाही में अवमूल्यन के प्रतीक बनने के साथ समाज की चिंता बढ़ाने वाले है। क्योंकि जब पुलिस ही अपने दायित्व से भटक रही है, तब पीड़ित जनता की सुरक्षा का दायित्व किस पर है ?

पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की राज्य मंत्री परिषद ने भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के नजरिये से विशेष अदालतें गठित करने वाले विधेयक को मंजूरी दी थी। इन अदालतों में उन लोकसेवक राजनेताओं और नौकरशाहों के विरुद्ध मामले चलाने की शुरुआत हुई थी, जिन्होंने आय से अधिक संपत्ति अर्जित की थी। इस दायरे में सरपंच से लेकर मुख्यमंत्री और भृत्य से लेकर प्रमुख सचिव के साथ सेवानिवृत्त अधिकारियों और पूर्व जनप्रतिनिधियों व मंत्रियों को भी जांच के दायरे में ले लिया गया था। अदालतों को एक साल के भीतर मामला निपटाना जरूरी था। इस फैसले की अपील उच्च न्यायालय में करने का प्रावधान है। लोक सेवक ने आय से अधिक संपत्ति गलत तरीकों से हासिल की है तो सरकार तत्काल प्रभाव से इस जायदाद को अस्थाई तौर से जब्त करेगी और प्रकरण में दोषी पाए जाने पर सरकार का संपत्ति पर अधिकार स्थाई हो जाएगा। लेकिन यह कानून कागजी और व्यवस्था आखिरकार सफेद हाथी साबित हो रही है। इस विधेयक में दावा तो यह किया गया था कि कदाचरण से जुड़े ऐसे मामले एक साल के भीतर अंजाम तक पहुंच जाएंगे। लेकिन ऐसा इक्का-दुक्का मामलों में ही देखने में आया। नतीजतन परिणाम ढांक के तीन पात रहा। मोहन यादव सरकार को अस्तित्व में आए दो साल होने को हैं, लेकिन उनके शासनकाल में प्रशासनिक सुधार की कोई नई पहल करने की बजाय, प्रशासन शिथिल तो हुआ ही, उसकी उद्दंडता भी प्रदेशव्यापी दिखाई दे रही है।

प्रजातांत्रिक मूल्यों में नौकरशाही का भ्रष्टाचार और अब सार्वजनिक डकैती के मामले राष्ट्रघाती हैं। यह सामाजिक सद्भाव को तो खंडित करता ही है, संस्थागत संरचना के प्रति अविश्वास भी पैदा करता है। लोकतांत्रिक और आर्थिक प्रक्रिया में बहुसंख्यक लोगों की भागीदारी भ्रश्टाचार के चलते वंचित रह जाती है। संसाधनों के आबंटन में अनियमितता बरती जाती है, नतीजतन गरीब, वंचित, व सीमांत तबके के हित प्रभावित होते हैं। सामाजिक, आर्थिक व शैक्षिक विषमता का आधार भी भ्रष्टाचार बन रहा है। भ्रष्टाचार राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से भी एक बड़ा खतरा है। 1993 के मुबंई विस्फोट में जो हथियार प्रयोग में लाए गए थे, वे उस तस्करी का परिणाम थे जो भ्रष्टतंत्र के बूते फलीभूत हुई थी। ऐसी भ्रष्ट व्यवस्था जिस देश में सम्मान व प्रतिष्ठा की सूचक बन गई हो उस देश की लोकतंत्रीय प्रणाली और संप्रभुता कब तक कायम बनी रह पाएगी ? यह सवाल भी एक आम भारतीय को कचोटता है। दरअसल लोकतंत्र की उम्र बढ़ने के साथ-साथ भ्रष्ट-तंत्र लगातार मजबूत होता रहा है। यही कारण है कि हमारे देश में जनकल्याणकारी योजनाएं आम-जन की हित पोषक साबित होने की बजाय, अब तक सरकारी अमले के लिए रिश्वत का चमत्कारी तिलिस्म सिद्ध होती रही हैं।

’टांसपरेंसी इंटरनेशनल इंडिया सेंटर फार मीडिया स्टडीज’ ने जो अध्ययन किया हैं, वह बताता है एक साल के भीतर हमारे देश में गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों को मूलभूत अनिवार्य व जनकल्याणकारी सेवाओं को हासिल करने के लिए तकरीबन कई हजार करोड़ रुपए की रिश्वत देनी पड़ती है। यह सांस्कृतिक रूप से सभ्य, मानसिक रुप से धार्मिक और भावनात्मक रूप से कमोवेश संवेदनशील समाज के लिए सिर पीट लेने वाली बात है। इस अध्ययन ने प्रकारांतर से यह तय कर दिया है कि हमारे यहां सार्वजनिक वितरण प्रणाली, रोजगार गारंटी, मध्यान भोजन, पोलियो उन्मूलन के साथ स्वास्थ्य लाभ व भोजन के अधिकार संबंधी योजनाएं किस हद तक जमीनी स्तर पर लूट व भ्रष्टाचार की हिस्सा बनी हुई हैं।

यही कारण है कि प्रशासनिक पारदर्शिता के जितने भी उपाय एक कारगर औजार के रूप में उठाए गए वे सब के सब प्रशासन की देहरी पर जाकर ठिठक जाते हैं। ई-प्रशासन के बहाने कम्प्यूटर का अंतर्जाल सरकारी दफ्तरों में इसलिए फैलाया गया था कि यह प्रणाली भ्रष्टाचार पर अंकुश तो लगाएगी ही ऑन लाइन के जरिये समस्याओं का समाधान भी तुरंत होगा। लेकिन इस नेटवर्किंग में करोड़ों रुपये खर्च कर दिये जाने के बावजूद इसी प्रणाली के जरिए भ्रश्टाचार का दायरा और बढ़ गया है। न्यायालयों, राजस्व न्यायालयों और पुलिस का वही परंपरागत ढर्रा जस की तस कायम है, जो अंग्रेजी षासन व्यवस्था के समय से बरकरार बना हुआ है। फाइलों का निराकरण आज भी कछुए की गति से चल रहा है। कंप्यूटर सरकारी क्षेत्र में टाइपराइटर का उम्दा विकल्प भर बनकर रह गया है।

सूचना के अधिकार को भ्रष्टाचार से मुक्ति का पर्याय माना जा रहा था। क्योंकि इसके जरिये आम नागरिक हरेक सरकारी विभाग के कामकाज व नोटशीट पर अधिकारी की दर्ज टिप्पणी का लेखा-जोखा तलब कर सकता है। लेकिन सरकारी अमले की अनियमितताएं घटने की बजाए और बढ़ गईं। भ्रष्टाचार पर किए अध्ययन इसका उदाहरण है। इससे जाहिर होता है कि सूचना का अधिकार भी भ्रष्टाचार से मुक्ति की कसौटी पर खरा नहीं उतरा ? ऐसा इसलिए संभव हुआ, क्योंकि हमारे जो श्रम कानून हैं वे इस हद तक प्रशासनिक तंत्र के रक्षा कवच बने हुए हैं कि वे पारदर्शिता और जवाबदेही की कोई भी शर्त स्वीकारने को मजबूर नहीं होते ?

दरअसल हमने औपनिवेशिक जमाने की नौकरशाही को स्वतंत्र भारत में जस की तस मंजूर लेने की एक बड़ी भूल की थी। नतीजतन आज भी हमारे लोकसेवक उन्हीं दमनकारी परंपराओं से आचरण ग्रहण करने में लगे हैं, जो अंग्रेजी राज में विद्रोहियों के दमन की दृष्टि से जरूरी हुआ करती थीं। इस सिलसिले में नौकरशाहों के लिए ढाल बनी संविधान के अनुच्छेद 310 एवं 311 में बदलाव की वकालत अर्से से हो रही है। लेकिन इनमें बदलाव की हिम्मत नरेंद्र मोदी भी नहीं कर पाए हैं। भ्रष्टाचार समाप्त करने में यही अनुच्छेद रोड़े अटका रहे हैं। लिहाजा लोकसेवक से जुड़ी सेवा शर्तों को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है। म.प्र. सरकार ने विधेयक के मसौदे में संविधान के अनुच्छेद 310 एवं 311 को संसद में बदले बिना प्रदेश सरकार कैसे भ्रष्ट संपत्ति को जब्त करेगी इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं हैं। क्योंकि इन अनुच्छेदों में निर्धारित प्रावधानों के चलते ही ताकतवर नेता और प्रशासक जांच एजेंसियों को प्रभावित तो करते ही हैं, तथ्यों व साक्ष्यों को भी कमजोर करते हैं। भ्रष्टाचार के ज्यादातर मामलों में सीबीआई भी भरोसेमंद व मजबूत गवाहों की तुलना में संख्या की दृष्टि से ज्यादा गवाहों को तरजीह देती है। फलस्वरूप मामला लंबा खिंचता है और गवाहों के बयानों में विरोधाभास पैदा होता है, जिसका लाभ भ्रष्टाचारी को मिलता है। इसके वनस्बित मामले से सीधे जुड़े इक्का-दुक्का गवाहों को ही तरजीह देना चाहिए। इन सक्षम व चश्मदीद गवाहों के बयान ही गुनाह को साबित करने के लिए पर्याप्त हैं। हालांकि भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में दस्तावेज ही पर्याप्त सबूत होते हैं। बहरहाल, प्रषासनिक सुधार किए बिना क्रांतिकारी बदलाव लाना असंभव है।