आचार्य महाश्रमण ने हजारों किमी लंबी अहिंसा पदयात्रा कर विश्व में एक नया कीर्तिमान बनाया

Acharya Mahashraman made a new record in the world by doing thousands of kilometers long non-violence padayatra

गोपेन्द्र नाथ भट्ट

जैन श्वेतांबर तेरापंथ के ग्याहरवें आचार्य महाश्रमण ने हजारों किमी लंबी अहिंसा पदयात्रा कर विश्व में एक नया कीर्तिमान बनाया है। महान दार्शनिक आचार्य महाश्रमण,भारतीय ऋषि परंपरा को जीवित रखते हुए निरंतर गतिमान होकर मानवता की सेवा और जनोपकार के लिए चरैवेति-चरैवेति सूत्र के साथ अथक पदयात्राएं कर रहे हैं।

आचार्य महाश्रमण, तेरापंथ के ग्यारहवें अनुशास्ता बनने के बाद सारी दुनिया में तब चर्चित हो गए जब उन्होंने देश की राजधानी नई दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले से नौ नवंबर 2014 को नैतिकता, सद्भावना और नशा मुक्ति के संदेश के साथ अहिंसा यात्रा प्रारंभ की। अपनी यह अहिंसा यात्रा उन्होंने विश्व में अहिंसक चेतना के विकास,नैतिक मूल्यों के जागरण एवं शांति के संदेश को जन जन-तक पहुंचाने के उद्देश्य से निकाली थी।

11यह पहला ऐतिहासिक अवसर था,जब किसी जैनाचार्य ने पदयात्रा करते हुए न सिर्फ देश की 20 प्रदेशों की सीमाओं का स्पर्श किया अपितु अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रों को भी छुआ। आचार्य महाश्रमण ने दिल्ली,बिहार,असम,नागालैंड, मेघालय,पश्चिम बंगाल,झारखंड,उड़ीसा, तमिलनाडु,कर्नाटक,केरल,पांडिचेरी,आंध्र प्रदेश, तेलंगाना,महाराष्ट्र,छत्तीसगढ़ आदि राज्यों के साथ ही भारत के पडौसी देशों नेपाल एवं भूटान की यात्रा भी की और लाखों लोगों को नैतिकता,सदाचार,अहिंसा एवं शांति के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया । अहिंसा यात्रा के उपक्रम से और आचार्यश्री की प्रेरणा से हर जाति, धर्म, वर्ग के लाखों लोगों ने इस अहिंसा यात्रा में सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति के संकल्पों की प्रतिज्ञा को स्वीकार किया है।

आचार्य श्री ने वर्ष 2014 में शुरू की अपनी अहिंसा यात्रा वर्ष 2021 में पूरी की। इन सात वर्षों में उन्होंने 18,000 किमी पैदल यात्रा की। अहिंसा यात्रा शुरू होने से पहले ही आचार्य महाश्रमण ने जनकल्याण के उद्देश्य से लगभग 34,000 किमी की पैदल यात्रा की थी। इस प्रकार आचार्य श्री की 52,000 किमी से भी अधिक लंबी यह यात्रा अपने आप में न केवल विलक्षण रही बल्कि इसने पूरे विश्व में एक मिसाल भी कायम की। आंकड़ों के अनुसार,उनकी यह यात्रा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की दांडी मार्च से 125 गुना बड़ी और पृथ्वी की परिधि से 1.25 गुना अधिक बताई जाती है। यदि कोई व्यक्ति ऐसी पदयात्रा करता है,तो वह भारत के उत्तरी छोर से दक्षिणी छोर या पूर्वी छोर से पश्चिमी छोर तक 15 से अधिक बार यात्रा कर सकता है।

अणुव्रत आंदोलन के प्रणेता आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ के पद चिन्हों पर चल कर आचार्य महाश्रमण ने अणुव्रत आन्दोलन, प्रेक्षाध्यान, जीवन विज्ञान की शिक्षा आदि को चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया हैं। एक धार्मिक संगठन के आचार्य होने के बावजूद उनके विचार बहुत ही उदार और धर्म निरपेक्ष हैं तथा अहिंसा, नैतिक मूल्यों और सिद्धांतों को बढ़ावा देने में उनका दृढ़ विश्वास है।

नई दिल्ली में 27 मार्च 2022 को आयोजित अहिंसा यात्रा संपूर्णता समारोह कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में कहा कि भारत में हजारों वर्षों से ऋषि, मुनियों और आचार्यों की एक महान परंपरा रही है। काल के थपेड़ों ने कैसी भी मुसीबत क्यों न पेश की हों लेकिन यह परंपरा वैसी ही अनवरत चलती रही है। हमारे यहां आचार्य वही बना है जिसने चरैवेति चरैवेति का मंत्र दिया है।

मोदी ने अहिंसा यात्रा पूरी होने पर आचार्य श्री एवं सभी मुनियों को बधाई दी। उन्होंने बताया कि आचार्य महाश्रमण जी ने सात वर्षों में 18,000 किमी की पदयात्रा की, जिसमें उन्होंने सभी को शांति और अहिंसा का पाठ पढ़ाया तथा लोगों को नैतिकता और नशा मुक्ति के बारे में बता कर मानव कल्याण का बड़ा काम किया है। । प्रधानमन्त्री ने कहा कि जहां अहिंसा हैं,वहीं एकता होती है और जहां एकता होती है वहीं श्रेष्ठता आती है। आचार्य श्री ने दुनिया के 3 देशों भारत,नेपाल और भूटान की पदयात्रा थी। इस यात्रा के द्वारा आचार्य ने वसुधैव कुटुंबकम के भारतीय विचार का विस्तार किया है। इस पदयात्रा ने देश के 20 राज्यों को एक विचार और प्रेरणा से जोड़ा है।

प्रधानमंत्री ने कहा कि आचार्य श्री नेअपनी पदयात्रा के दौरान सद्भावना,नैतिकता और पुनर्वास को एक संकल्प के रूप में समाज के सामने पेश किया । मोदी ने कहा कि “मुझे बताया गया है कि आचार्य की पदयात्रा के दौरान लाखों लोग पुनर्वास जैसे संकल्प में शामिल हुए हैं। यह अपने आप में एक बड़ा अभियान है। आज हमारी आध्यात्मिक शक्तियां, हमारे आचार्य और संत भारत के भविष्य को दिशा दे रहे हैं।”

आचार्य महाश्रमण एक बिरले दार्शनिक संत है।इनका जन्म राजस्थान के सरदारशहर कस्बे में वि. सं. 2019, वैशाख शुक्ला नवमी (13 मई 1962) को दूगड़ जैन परिवार में मातुश्री नेमादेवी की कोख से हुआ। उनके पिता का नाम झूमरमल दूगड़ था। व्यवहार में उनका नाम ‘मोहन’ रखा गया । बालक मोहन बचपन से ही मेधावी, श्रमशील, कार्यनिष्ठ विद्यार्थी थे। उनकी विनम्रता, भद्रता, ऋजुता, मृदुता और पापभीरुता हृदय को छूने वाली थी । उस समय कौन जानता था कि वह बालक आगे चलकर तेरापंथ का ग्यारहवां अधिशास्ता बनेगा । जब वे मात्र सात वर्ष की लघु अवस्था में थे तभी वे पितृ-वात्सल्य से वंचित हो गए। परिवार में एक अपूरणीय क्षति हो गई किन्तु माता नेमादेवी ने अपने वासल्य और स्‍नेह से उन्हे कभी उस रिक्तता की अनुभूति नहीं होने दी ।जीवन की क्षणभंगुरता ने बालक मोहन की दिशा और दशा दोनों को बदल दिया । उनके मन में वैराग्य का अंकुर प्रस्फुटित हो गया। ज्यों-ज्यों उसे सिंचन मिला वह पुष्पित, पल्‍लवित होता चला गया । उनकी अध्यात्म के प्रति रुचि बढ़ती गई । धीरे-धीरे उन्होंने उन अर्हताओं को अर्जित कर लिया, जो एक दीक्षित होने वाले साधक में होनी चाहिए।

मोहन से मुनि मुदित बने

बालक मोहन ने आचार्यश्री तुलसी के सामने अपने मनोबल और शरीरबल को तोलकर दीक्षा लेने की भावना रखी। उस समय आचार्य तुलसी दिल्ली में प्रवास कर रहे थे । आचार्यश्री ने उनका यथोचित परीक्षण कर सरदारशहर की पुण्य भूमि पर ही मुनिश्री सुमेरमलजी (लाडनूं) को दीक्षा देने की अनुमति प्रदान की । इस तरह वि.सं. २०३१, वैशाख शुक्ला 14 (5 मई, 1974) रविवार के दिन बारह वर्ष की लघु अवस्था में वे दीक्षित हो गए और मोहन से मुनि मुदित बन गए। बाह्य परिवेश बदलने के साथ-साथ उनका आन्तरिक परिवेश भी बदल गया । सारी प्रवृत्तियां संयममय हो गई । व्यवहार में बाहर जीना और निश्‍चय में भीतर में रहना उनका जीवनसूत्र बन गया। वे अपना अधिकाधिक समय स्वाध्याय, ध्यान, पाठ का कंठीकरण और उसके पुनरावर्तन में नियोजित करते थे। समय-समय पर उन्हें आचार्य तुलसी और युवाचार्य महाप्रज्ञ का सान्निध्य भी मिला। वि. सं. 2041, ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी को आचार्यश्री ने उन्हें अपनी व्यक्तिगत सेवा में नियुक्त कर लिया । इससे उन्हें ज्ञानार्जन, गुरुसेवा और गुरुकुलवास में रहने का सहज ही अवसर मिल गया । साथ ही संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी और अंग्रेजी भाषाओं में उनका अध्ययन भी चलता रहा। महाश्रमण प्रारम्भ से ही एक प्रशान्तमूर्ति के रूप में प्रसिद्ध थे । न अधिक बोलना और न अधिक देखना । आंखों की पलकें भी प्राय: निमीलित ही रहती थीं। उनकी निस्पृहता, निरभिमानता सबको लुभाने वाली थी। ज्यों-ज्यों उनकी अर्हताएं बढ़ रही थीं दायित्व की परिधि भी विस्तार पा रही थी। वि. सं. 2041 में जब वे जोधपुर प्रवास में तो एक उपदेष्टा के रूप में उभर कर सामने आए । आचार्य तुलसी ने उन्हें अपने व्याख्यान से पूर्व प्रतिदिन उपदेश देने के कार्य में नियोजित किया ।

मुनि मुदित से महाश्रमण बने

आचार्य तुलसी ने अपने संघ में अनेक नवीन कार्य किए । ‘महाश्रमण’ पद का सृजन भी उसी नवीनता का परिचायक था । योगक्षेम वर्ष का पावन प्रसंग था। राजस्थान के लाडनूं की पुण्यस्थली में वि. सं. २०४६, भाद्रव शुक्ला नवमी (6 सितम्बर, 1989) की मंगलमय प्रभात और आचार्य तुलसी जी के पट्टोत्सव का पावन प्रसंग ।उस दिन आचार्यवर ने मुनि मुदित को ‘महाश्रमण’ के गरिमामय पद पर नियुक्त कर एक नया इतिहास बना दिया । महाश्रमण को सम्मानस्वरूप पछेवड्री ओढ़ाने का श्रेय शासन गौरव मुनिश्री बुद्धमलजी को मिला । वरीयता के क्रम में यह पद आचार्य और युवाचार्य के बाद होने वाला तीसरा पद था। यह पद अपने आप में गौरवशाली भी था और रचनात्मक कार्य करने की दिशा में एक नया कदम भी ।

युवाचार्य महाश्रमण

पूज्यवर्य गणाधिपति श्री तुलसी के महाप्रयाण के कुछ दिनों पश्‍चात्‌ आचार्य महाप्रज्ञ ने अप्रत्याशित रूप से महाश्रमण के युवाचार्य के रूप में मनोनयन की घोषणा कर दी। वि .सं. 2054, भाद्रव शुक्ला द्वादशी (14 सितम्बर, 1997) का मंगलमय दिवस । चौपड़ा हाई स्कूल का विशाल मैदान । वह दृश्य जन-जन के लिए कितना आह्लादकारी और नयनाभिराम था । जब आचार्य महाप्रज्ञ ने विशाल जनमेदिनी के मध्य-‘आओ मुदित’-कहकर पुकारा । एक शब्द के साथ ही लाखों हाथ हवा में ठहरा उठे, जय निनाद से धरती-अंबर गूंज उठे और खुशियों से मंगल शंख बज उठे । एक आवाज के साथ ही महाश्रमण मुनि मुदित युवाचार्य महाश्रमण बन गए, लाखों लोगों के आराध्य और पूजनीय बन गए ।आचार्य महाप्रज्ञ ने पहले स्वयं पछेवडी (उत्तरीय) धारण कर बाद में महाश्रमण को ओढ़ाकर उन्हें युवाचार्य के रूप में प्रतिष्टित किया और अपने समीप पट्ट पर बिठा कर अलंकृत भी किया ।

ग्यारहवें अनुशास्ता बने

वि.सं. 2657, द्वि. वैशाख कृष्णा एकादशी (9 मई, 2010) के दिन आचार्य महाप्रज्ञ का सरदारशहर, गोठी भवन में आकस्मिक महाप्रयाण हो गया। वि.सं. 2067, द्वि. वैशाख शुक्ला दशमी (23 मई, 2010) को गांधी विद्या मन्दिर के विशाल प्रांगण में आचार्य महाश्रमण का ग्यारहवें अनुशास्ता के रूप में पदाभिषेक का विशाल आयोजन था । उस समय देश विदेश के कोने-कोने से 35 हजार श्रद्धालुजन तथा देश के शीर्षस्थ राजनीतिज्ञ एवं चिंतक लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथ सिंह, राजस्थान के स्वास्थ्य मंत्री राजकुमार शर्मा, सांसद सन्‍तोष बागडोरिया, राजस्थान भाजपा के पूर्व अध्यक्ष महेश शर्मा आदि कई विशिष्ठ जन उपस्थित थे।

आचार्य महाश्रमण के विषय व्यक्तित्व से प्रभावित होने वाले देश दुनिया के अनेक विशिष्ठ जनों ने उनके प्रति जी विचार प्रकट किए हैं उनका उल्लेख करना समयोचित है। भारत की पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने कहाकि
“आप महिला विकास और पर्यावरण संरक्षण के लिए भी काम कर रहे हैं। आपके उत्कृष्ट, निर्मल और विधायी लेखकत्व को नमस्कार करते हुए, हम विश्व स्तर पर एक शांतिपूर्ण समाज बनाने में आपके सहयोग का अनुरोध करते हैं। ”
आचार्य श्री महाश्रमण जी की पुस्तक “विजयी बानो” का विमोचन 10 जुलाई 2013 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा किया गया था । उस समारोह के राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी उपस्थित थे।

आचार्य महाश्रमण जी के महान कार्यों और प्रयासों से प्रभावित होकर पेसिफिक यूनिवर्सिटी उदयपुर ,राजस्थान में आयोजित “विश्व धर्मगुरु सम्मेलन” में उन्हे शांतिदूत की उपाधि से सम्मानित किया गया। भारतीय दिगम्बर जैन तीर्थयात्रा समिति ने उन्हें “श्रमण संस्कृति उद्गाता” के रूप में सुशोभित किया है। इसके अलावा भी अनेक अभिनंदन समारोह आचार्य श्री के जीवन तथा उनके विशाल व्यक्तित्व और कृतित्व की झलक दर्शाने वाले है।

आचार्य महाश्रमण जी ने कई पुस्तकेभी लिखी जिनमें आओ हम जीना सीखें,क्या कहता है जैन वाङ्मय,दुख मुक्ति का मार्ग,संवाद भगवान से, महात्मा महाप्रज्ञ,धम्मो मंगल मुखित्तम और विजयी बनो आदि प्रमुख है।

वर्तमान में आचार्य महाश्रमण जैन श्वेतांबर तेरापंथ के ग्याहरवें आचार्य हैं । तेरापंथ संगठन के तहत होने वाली सभी गतिविधियों का वे नेतृत्व करते हैं। विशेष रूप से अणुव्रत आंदोलन, प्रेक्षाध्यान और जीवन विज्ञान की शिक्षा को आगे बढ़ाना उनकी प्राथमिकताओं में शामिल है।आचार्य श्री महाश्रमण के मार्गदर्शन में सभी तेरापंथ उप-संगठन, विशेष रूप से जैन विश्व भारती,जैन श्वेतांबर तेरापंथी महासभा आदि संगठन बहुत ही शिद्दत के साथ काम कर रहे हैं ।एक धार्मिक संगठन के आचार्य होने के बावजूद, आचार्य श्री महाश्रमण के विचार उदार और धर्मनिरपेक्ष हैं । अहिंसा, नैतिक मूल्यों और सिद्धांतों को बढ़ावा देने में उनका दृढ़ विश्वास है।

लेखक को भी नब्बे के दशक से लगातार आचार्य श्री तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ जी का शुभाशीर्वाद मिलता रहा। दक्षिणी राजस्थान के उदयपुर मेवाड़ अंचल के राजसमंद में अणुविभा के शुभारंभ अवसर पर उनका विशेष स्नेह एवं सानिध्य जीवन की एक बहुमूल्य धरोहर है। साथ ही वर्तमान आचार्य श्री महाश्रमण के दिल्ली प्रवास के सभी कार्यक्रमों के प्रचार प्रसार का सौभाग्य भी मेरे लिए किसी अमूल्य थाती से कम नहीं है।