
नीलेश शुक्ला
जब दो पड़ोसी देश, जो दशकों से अविश्वास और हिंसा के इतिहास में जकड़े हों, एक बार फिर आमने-सामने खड़े हो जाते हैं, तो उसकी गूंज सीमाओं से परे जाकर पूरे एशिया को हिला देती है। अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच हालिया सीमा संघर्ष अब केवल गोलियों और बमों की आवाज नहीं है, बल्कि यह दक्षिण एशिया की भू-राजनीतिक दिशा को बदल देने वाला संकेत है। भारत, चीन, अमेरिका और इस्लामी दुनिया — सभी इस आग को ध्यान से देख रहे हैं, मगर हर देश की अपनी राजनीतिक गणना और हितों का समीकरण है।
दरअसल, यह संघर्ष उस ड्यूरंड रेखा से जुड़ा है, जो 1893 में ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में खींची गई थी। यह रेखा अफगानिस्तान और ब्रिटिश भारत के बीच की सीमा थी, जो बाद में पाकिस्तान की पश्चिमी सीमा बन गई। मगर अफगानिस्तान ने इसे कभी वैध रूप से स्वीकार नहीं किया। आज, वही सीमा फिर से खून में डूबी है। चमन और तोर्खम जैसे इलाकों में तोपों की गूंज, ड्रोन हमले और गोलाबारी ने दोनों देशों के बीच व्यापार और आवाजाही रोक दी है। नागरिक मारे जा रहे हैं, सीमा पर तनाव हर दिन बढ़ रहा है।
पाकिस्तान का आरोप है कि अफगानिस्तान की तालिबान सरकार तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) को शरण दे रही है, जो पाकिस्तानी सेना और नागरिकों पर आतंकी हमले करती है। दूसरी ओर, काबुल सरकार का आरोप है कि पाकिस्तान उसकी संप्रभुता का उल्लंघन करते हुए हवाई हमले करता है और अफगान सीमांत क्षेत्रों में दखल देता है। इस आरोप-प्रत्यारोप के बीच अब दोनों देशों के बीच एक “घोषणाहीन युद्ध” की स्थिति बन चुकी है।
विडंबना यह है कि पाकिस्तान ने ही कभी तालिबान को अपनी “रणनीतिक गहराई” के रूप में पाला-पोसा था, ताकि भारत के खिलाफ अफगान मोर्चा मजबूत रहे। पर आज वही तालिबान पाकिस्तान के लिए सिरदर्द बन चुका है। यह इतिहास की सबसे बड़ी रणनीतिक उलटफेरों में से एक है। पाकिस्तान अब अपने ही बनाए जाल में फंस चुका है — जिस ताकत को उसने हथियार दिया, वही अब उसकी सीमाओं पर चुनौती बनकर खड़ी है।
भारत इस पूरे घटनाक्रम को गहरी रणनीतिक शांति के साथ देख रहा है। नई दिल्ली ने एक ऐसी नीति अपनाई है जिसे कूटनीति में “रणनीतिक संयम के साथ सक्रिय निगरानी” कहा जाता है। भारत न तो खुलकर हस्तक्षेप कर रहा है और न ही चुपचाप किनारे बैठा है। अफगानिस्तान में पाकिस्तान की घटती पकड़ और तालिबान की स्वतंत्रता भारत के लिए अवसर है — एक ऐसे देश में अपने प्रभाव को पुनर्स्थापित करने का, जहाँ दशकों तक पाकिस्तान की छाया रही।
2021 में जब अमेरिका ने अफगानिस्तान से वापसी की और तालिबान ने सत्ता संभाली, तब भारत ने अपने कदम बहुत सावधानी से बढ़ाए। न तो तालिबान को तुरंत मान्यता दी, न ही संपर्क तोड़े। भारत ने मानवीय सहायता के माध्यम से अफगान जनता तक पहुँच बनाए रखी — गेहूं, दवाइयाँ और टीके भेजे गए। हाल के महीनों में भारत ने काबुल में अपने दूतावास मिशन को भी पुनर्सक्रिय किया है, जो संकेत है कि नई दिल्ली तालिबान शासन को वास्तविकता के रूप में स्वीकार कर चुकी है।
भारत के लिए यह नीति बहुआयामी लाभ देती है। एक तरफ यह पाकिस्तान को कूटनीतिक रूप से कमजोर करती है, तो दूसरी ओर अफगानिस्तान में भारत के मानवीय और विकास संबंधों की नई नींव रखती है। भारत जानता है कि अफगानिस्तान में अस्थिरता पाकिस्तान के आतंकवाद नेटवर्क को पुनर्जीवित कर सकती है। लेकिन साथ ही यह भी सच है कि जब पाकिस्तान अपनी पश्चिमी सीमा पर उलझा होगा, तब वह कश्मीर या भारत के खिलाफ छेड़छाड़ में कमज़ोर होगा। इसलिए भारत की नीति व्यावहारिक है — अफगानिस्तान की संप्रभुता का समर्थन करना, पर किसी सैन्य या प्रत्यक्ष दखल से बचना।
दूसरी तरफ, यह सवाल उठता है कि अमेरिका क्यों चुप है? कभी वॉशिंगटन दक्षिण एशिया की हर हलचल में निर्णायक भूमिका निभाता था। पर अब हालात बदल गए हैं। 2021 में अफगानिस्तान से अपमानजनक वापसी के बाद अमेरिका ने वहाँ के मामलों से दूरी बना ली है। उसके लिए यह अब “दो संप्रभु देशों का क्षेत्रीय विवाद” है। न उसके पास अफगान जमीन पर कोई प्रभाव बचा है, न पाकिस्तानी शासन पर वह पहले जैसा दबाव डाल सकता है। इस्लामाबाद अब धीरे-धीरे चीन के करीब चला गया है और वॉशिंगटन ने अपना ध्यान इंडो-पैसिफिक, यूक्रेन और मध्य पूर्व पर केंद्रित कर लिया है।
अमेरिका अब केवल औपचारिक बयान देता है — “दोनों देशों को संयम बरतना चाहिए” — और वहीं पर उसकी भूमिका खत्म हो जाती है। सच तो यह है कि अमेरिका अब हिंदूकुश की आग में दोबारा हाथ नहीं जलाना चाहता। उसकी निगाह में यह संघर्ष एशिया के क्षेत्रीय शक्तियों का खेल है, जिसमें हस्तक्षेप केवल राजनीतिक नुकसान लाएगा।
चीन के लिए यह संकट और भी पेचीदा है। पाकिस्तान उसका सबसे करीबी सामरिक सहयोगी है, और चीन-पाक आर्थिक गलियारा (CPEC) उसकी अरबों डॉलर की परियोजना का केंद्र है। सीमा पर हिंसा और अस्थिरता का सीधा असर चीन के निवेश पर पड़ता है। अफगानिस्तान में उसके कई खनन प्रोजेक्ट और भू-संसाधन संबंधी अनुबंध हैं, जो युद्ध की स्थिति में खतरे में पड़ सकते हैं। इसके अलावा, चीन को डर है कि अफगान सीमा के जरिए चरमपंथी तत्व शिनजियांग प्रांत में दाखिल हो सकते हैं।
बीजिंग के लिए यह स्थिति दोधारी तलवार जैसी है। वह पाकिस्तान का सैन्य सहयोगी है, पर तालिबान शासन से भी उसे संबंध बनाए रखने हैं। इसलिए चीन अब दोनों पक्षों से संयम की अपील कर रहा है और परदे के पीछे मध्यस्थता की कोशिशें भी कर रहा है। लेकिन इसका असली मकसद शांति नहीं बल्कि अपने आर्थिक गलियारों की सुरक्षा और भू-राजनीतिक साख को बचाना है।
दूसरी ओर, अफगानिस्तान के तालिबान शासन ने स्पष्ट कर दिया है कि वह किसी भी विदेशी दबाव के आगे झुकने वाला नहीं है। पाकिस्तान की सैन्य ताकत अधिक है, पर अफगान तालिबान के पास कठोर और वफादार लड़ाके हैं, जो अपने ‘इस्लामी अमीरात’ के लिए मर मिटने को तैयार हैं। तालिबान जानता है कि अगर उसने पाकिस्तान के आगे झुकाव दिखाया, तो उसकी घरेलू वैधता और पश्तून अस्मिता दोनों पर आंच आएगी। इसलिए काबुल हर कीमत पर स्वतंत्रता बनाए रखना चाहता है।
अफगानिस्तान अब केवल सैन्य ताकत पर नहीं, बल्कि राजनयिक संतुलन पर भी भरोसा कर रहा है। वह चीन, ईरान, रूस और भारत जैसे देशों से संपर्क बढ़ा रहा है ताकि पाकिस्तान पर निर्भरता कम की जा सके। यह नई ‘बहुध्रुवीय कूटनीति’ तालिबान के लिए अस्तित्व की रणनीति है।
पाकिस्तान के लिए यह संघर्ष बेहद कठिन समय पर आया है। देश पहले से ही आर्थिक कंगाली, महंगाई, IMF की शर्तों और राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहा है। खैबर पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान में आतंकी हिंसा लगातार बढ़ रही है। हर बार जब सीमा बंद होती है, तो व्यापार ठप होता है और आम जनता पर बोझ बढ़ता है। सेना पर जनता का भरोसा घटा है और राजनीतिक दलों के बीच गहरी फूट है।
इस पर एक और खतरा मंडरा रहा है — तालिबान की जिद पाकिस्तानी तालिबान (TTP) को भी और भड़का रही है। पाकिस्तान जिस “रणनीतिक गहराई” का सपना देखता था, वह अब “रणनीतिक दलदल” बन चुका है। शिकारी अब खुद अपने बनाए जाल में फंस गया है।
कभी पाकिस्तान की मददगार रही इस्लामी दुनिया भी अब दूरी बना रही है। सऊदी अरब, यूएई और क़तर जैसे देशों ने खुलकर इस्लामाबाद का साथ नहीं दिया है। यहां तक कि इस्लामिक कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन (OIC) ने भी केवल औपचारिक बयान जारी किया है। इसका कारण साफ है — खाड़ी देशों की प्राथमिकताएँ अब बदल चुकी हैं। वे अब वैचारिक एकता की जगह आर्थिक स्थिरता, तकनीकी विकास और वैश्विक निवेश पर ध्यान दे रहे हैं। पाकिस्तान की दोहरी नीति — आतंकवाद को पोषित करना और सहायता मांगना — ने उसकी छवि को और नुकसान पहुंचाया है।
तालिबान शासन के प्रति पश्चिमी अस्वीकृति के कारण, कोई भी मुस्लिम देश अब पाकिस्तान के साथ तालिबान के खिलाफ खुलकर खड़ा नहीं होना चाहता। सऊदी अरब और यूएई अब तालिबान के साथ भी सीमित स्तर पर काम कर रहे हैं, इसलिए इस्लामाबाद का “धार्मिक भाईचारा” अब कूटनीतिक विवेक में बदल चुका है।
भारत के लिए यह पूरा परिदृश्य उसकी शांत नीति की जीत है। नई दिल्ली ने जल्दबाजी में तालिबान को मान्यता नहीं दी, पर मानवीय जुड़ाव बनाए रखा। इस संतुलन ने भारत को स्थिरता की आवाज़ के रूप में स्थापित किया है। पाकिस्तान जितना इस संघर्ष में उलझेगा, भारत उतना ही दक्षिण एशिया में शांत और विश्वसनीय शक्ति के रूप में उभरेगा। भारत के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि अब अफगानिस्तान पाकिस्तान की छाया से निकलकर स्वतंत्र सोच रखता है।
अमेरिका के लिए यह संघर्ष उसकी बदलती वैश्विक शक्ति का आईना है। एक समय था जब वॉशिंगटन का एक बयान इस क्षेत्र की दिशा तय कर देता था। आज वही अमेरिका केवल दर्शक की भूमिका में है। उसका प्रभाव घट चुका है और दक्षिण एशिया की बागडोर अब क्षेत्रीय शक्तियों — भारत, चीन, रूस, ईरान — के हाथ में है। यही है नई “ग्रेट गेम” — औपनिवेशिक ताकतों की नहीं, बल्कि एशियाई देशों की कूटनीतिक प्रतिस्पर्धा की।
आगे का रास्ता तीन संभावनाएँ दिखाता है। पहली, यह संघर्ष लंबे समय तक कम तीव्रता वाले युद्ध के रूप में चलता रहेगा — सीमित झड़पें, सीमाएं बंद, और दोनों देशों की अर्थव्यवस्था पर दबाव। दूसरी, यह हिंसा क्षेत्रीय अस्थिरता फैला सकती है — मध्य एशिया और ईरान तक शरणार्थियों की लहर और चरमपंथ का फैलाव। तीसरी, शायद चीन या सऊदी अरब की मध्यस्थता से कोई सीमित सुलह समझौता हो जाए, जिसमें पाकिस्तान को कुछ “चेहरा बचाने” की गारंटी मिले और अफगानिस्तान को सीमित सुरक्षा आश्वासन।
लेकिन जो भी हो, यह साफ है कि इस युद्ध का कोई विजेता नहीं होगा। अफगानिस्तान–पाकिस्तान संघर्ष केवल सीमा की लड़ाई नहीं, बल्कि पहचान, नियंत्रण और प्रभाव की जंग है। पाकिस्तान की “मिलिटेंट कूटनीति” अब उसी के खिलाफ हथियार बन चुकी है। अफगानिस्तान, गरीबी और अलगाव के बावजूद, मनोवैज्ञानिक रूप से ऊँचाई पर है — उसने अपने पूर्व संरक्षक को खुली चुनौती दी है।
भारत इस पूरी आग को दूर से देख रहा है, मगर हर लपट पाकिस्तान की वैश्विक साख को झुलसा रही है। अमेरिका दूर है, चीन बेचैन है, और इस्लामी दुनिया खामोश। इस भू-राजनीतिक शतरंज में असली कीमत आम अफगान और पाकिस्तानी जनता चुका रही है, जो अपने नेताओं की अहंकार की लड़ाई में पिस रही है।
आज एशिया एक बार फिर मोड़ पर खड़ा है — कूटनीति या विनाश। अगर विवेक और संयम हावी हुआ, तो यह संकट एक स्थायी समाधान की राह खोल सकता है। लेकिन अगर घमंड और जिद जारी रही, तो ड्यूरंड रेखा की यह आग दो देशों से आगे बढ़कर पूरे एशिया की स्थिरता को भस्म कर सकती है।