एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी
वैश्विक स्तरपर दुनियाँ के राजनीतिक गलियारों में इन दिनों सबसे ज्यादा चर्चा जिसमुद्दे पर हो रही है,वह है अमेरिका का 33 वर्षों के बाद पुनः परमाणु परीक्षण शुरू करने का आदेश।जिस देश ने दशकों तक पूरी दुनियाँ को परमाणु हथियारों से दूर रहने की नसीहत दी,आज वही देश फिर से न्यूक्लियर बमों की गूंज सुनना चाहता है राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा अमेरिकी सेना को परमाणु परीक्षण तुरंत शुरू करने का आदेश देने के बाद वैश्विक समुदाय में एक प्रकार की हलचल मच गई है।
रूस से लेकर चीन,उत्तर कोरिया से लेकर ईरानतक हर देश की निगाह अब वॉशिंगटन की ओर है। सवाल यह है कि क्या यह कदम दुनियाँ को एक बार फिर से ‘न्यूक्लियर रेस’ में धकेल देगा?दुनियाँ यह देख रही है कि अमेरिका का दोहरा मापदंड “दूसरों को रोको, खुद करो” नीति का परिणाम क्या निकलेगा, अमेरिका दशकों से वैश्विक राजनीति में ‘न्यूक्लियर नैतिकता’ का सारथी बनकर बैठा रहा है। उसने हमेशा अन्य देशों पर परमाणु हथियार न बनाने का दबाव बनाया। चाहे वह ईरान हो, उत्तर कोरिया हो या कभी भारत,अमेरिकी नीतियों ने हमेशा यह कहा कि परमाणु हथियार मानवता के लिए खतरा हैं।लेकिन अब वही अमेरिका,जो खुद को “ग्लोबल पीस कीपर” कहता है, नए परीक्षणों के आदेश जारी कर चुका है। यह कदम न केवल उसकी विदेश नीति की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करता है, बल्कि उसके “डबल स्टैंडर्ड” की अंदरुनी नीति भी ओपन करता है।अमेरिका की यह नीति इतिहास में कई बार देखी जा चुकी है,जब वह अंतरराष्ट्रीय संधियों से खुद को अलग कर लेता है और दूसरों पर उसका पालन थोपताहै,उदाहरण के लिए, ट्रंप प्रशासन ने 2018 में ईरान न्यूक्लियर डील से बाहर निकलकर वैश्विक स्थिरता को बड़ा झटका दिया था। आज 2025 में, वही नीति एक नए रूप में फिर लौट आई है। इसलिए आज हम मीडिया में उपलब्ध जानकारी के सहयोग सेइस आर्टिकल के माध्यम से चर्चा करेंगे,33 वर्षों बाद अमेरिका के परमाणु परीक्षण आदेश से कांपा विश्व-क्या शुरू होगी नई “न्यूक्लियर रेस”?
साथियों बात अगर हम 33 वर्षों के बाद क्यों? ट्रंप की सामरिक रणनीति के संकेत को समझने की करें तो,यह सवाल सबसे अहम है कि आखिर अमेरिका ने अब ऐसा कदम क्यों उठाया? आखिरी बार अमेरिका ने 1992 में नेवादा परीक्षण स्थल पर परमाणु परीक्षण किया था।उसके बाद उसने अंतरराष्ट्रीय दबाव और “कंप्रीहेंसिव न्यूक्लियर टेस्ट बैन ट्रीटी” के तहत परीक्षण रोक दिए थे। लेकिन अब ट्रंप का यह आदेश बताता है कि वाशिंगटन का इरादा वैश्विक सैन्य वर्चस्व को दोबारा स्थापित करने का है।अमेरिकी खुफिया एजेंसियों और रक्षा विशेषज्ञों के अनुसार, चीन और रूस की तेज़ी से बढ़ती परमाणु क्षमता ने ट्रंप प्रशासन को यह कदम उठाने के लिए प्रेरित किया। रूस ने अपने हाइपरसोनिक न्यूक्लियर मिसाइल“एवंगार्ड”और “सरमाट” की घोषणा कर दी है, जबकि चीन भी “डोंगफ़ेंग-41” जैसी लंबी दूरी की मिसाइलों का परीक्षण कर चुका है। ट्रंप शायद यह दिखाना चाहते हैं कि अमेरिका अब भी ‘मिलिट्री टेक्नोलॉजी’ में सर्वश्रेष्ठ है।
साथियों बात अगर हम वैश्विक प्रतिक्रिया,रूस का जवाब और दुनिया की चिंता को समझने की करें तो,जैसे ही अमेरिका के परमाणु परीक्षण के आदेश की खबर फैली, सबसे पहले रूस ने इसका कड़ा जवाब दिया। रूसी विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट कहा कि यदि अमेरिका परीक्षण शुरू करता है,तो रूस भी “तुरंत जवाबी परमाणु परीक्षण” करेगा। यह बयान सीधे संकेत देता है कि दुनियाँ फिर से “कूल्ड वॉर” जैसे दौर की ओर बढ़ सकती है।रूस की इस प्रतिक्रिया के बाद चीन ने भी अपनी सैन्य प्रयोगशालाओं में “सुरक्षा और क्षमता वृद्धि” के नाम पर तैयारी शुरू कर दी है। वहीं, यूरोप के देशों,विशेषकर फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन ने संयुक्त बयान? जारी कर कहा कि यह फैसला “वैश्विक स्थिरता के लिए घातक” साबित हो सकता है।संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने भी गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि “33 वर्षों की शांति को तोड़ने वाला यह कदम, दुनियाँ को एक और हथियारों की दौड़ में झोंक सकता है।”
साथियों बात अगर हमन्यूक्लियर रेस,क्या इतिहास खुद को दोहरा रहा है? को समझने की करें तो,यदि हम इतिहास पर नज़र डालें तो यह समझना कठिन नहीं कि हर बार जब किसी शक्ति ने अपने हथियारों की ताकत दिखाने की कोशिश की है, तो उसका परिणाम “वैश्विक अस्थिरता” के रूप में सामने आया है।1945 में हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिका द्वारा किए गए दो बम विस्फोटों ने मानव सभ्यता की दिशा ही बदल दी थी।उसके बाद 1945 से अब तक लगभग 2,000 से अधिक परमाणु परीक्षण दुनिया भर में किए गए हैं।इनमें से आधे से अधिक परीक्षण अमेरिकाने अकेले किए,आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका ने करीब 1,030 परमाणु परीक्षण, रूस (पूर्व सोवियत संघ) ने 715, फ्रांस ने 210, चीन ने 45, ब्रिटेन ने 45, भारत ने 6, पाकिस्तान ने 6, और उत्तर कोरिया ने 6 परीक्षण किए हैं।यह सूची बताती है कि परमाणु शक्ति केवल “रक्षा” का माध्यम नहीं रही, बल्कि यह देशों के “राजनीतिक दबाव” और “वैश्विक पहचान” का उपकरण बन चुकी है।
साथियों बात अगर हम भारत की स्थिति,संयमित शक्ति, जिम्मेदार नीति को समझने की करें तो, भारत का नाम जब भी परमाणु शक्ति वाले देशों में लिया जाता है, तो एक “जिम्मेदार शक्ति” के रूप में लिया जाता है। भारत ने कभी भी “पहले इस्तेमाल” की नीति नहीं अपनाई। उसने केवल “नों फर्स्ट यूज़ पालिसी” के सिद्धांत पर चलते हुए कहा कि परमाणु हथियार केवल “रक्षा” के लिए हैं,“आक्रमण” के लिए नहीं।भारत ने अब तक केवल दो बार परमाणु परीक्षण किए(1)1974 में “स्माइलिंग बुद्धा” नाम से, जब इंदिरा गांधी सरकार ने दुनियाँ को भारत की क्षमता दिखाई (2) 1998 में “पोखरण-II” परीक्षण, जब भारत ने आधिकारिक रूप से खुद को परमाणु शक्ति घोषित किया।इसके बाद भारत ने किसी भी प्रकार का नया परीक्षण नहीं किया है।बल्कि, उसने “सीटीबीटी” पर हस्ताक्षर न करने के बावजूद उसका “स्वैच्छिक पालन” जारी रखा है।2017 के बाद से, जब उत्तर कोरिया ने अपना आखिरी परीक्षण किया था, तब से लेकर अब तक किसी देश ने कोई नया परमाणु परीक्षण नहीं किया। इस दृष्टि से भारत की नीति अत्यंत संतुलित मानी जाती है।
साथियों बात अगर हम अंतरराष्ट्रीय समझौते और उनका भविष्य को समझने की करें तो,अमेरिका का यह कदम न केवल अंतरराष्ट्रीय राजनीति को झकझोरता है, बल्कि दशकों से चले आ रहे परमाणु निरस्त्रीकरण समझौतों पर भी प्रश्नचिह्न लगा देता है। (1)कंप्रेहंसिव नुक्लियर टेस्ट बैन ट्रिटी (सीटीबीटी)-यह संधि 1996 में तैयार हुई थी, जिसका उद्देश्य विश्व में सभी प्रकार के परमाणु परीक्षणों को रोकना था। अमेरिका ने इसे साइन तो किया, लेकिन कभी रैटिफाई नहीं किया।(2)नॉन – प्रॉलीफेरेशन ट्रिटी (एनपीटी) -1970 में लागू हुई इस संधि के तहत देशों को परमाणु हथियार न फैलाने की जिम्मेदारी दी गई। अमेरिका इसका बड़ा समर्थक रहा है, पर अब वही नियम तोड़ रहा है।(3)स्टार्ट (स्ट्रेटेजीकआर्म्स रिडक्शन ट्रिटी)-अमेरिका और रूस के बीच हुआ यह समझौता हथियारों की संख्या घटाने के लिए था, लेकिन अब दोनों ही देश इस संधि को लगभग निष्क्रिय बना चुके हैं, अमेरिका का ताज़ा फैसला इन संधियों के लिए “मौत की घंटी” साबित हो सकता है।
साथियों बात अगर हम विश्व के लिए संभावित खतरे, शांति से युद्ध की ओर? को समझने की करें तो,अगर अमेरिका ने वाकई में अपने परमाणु परीक्षण फिर शुरू किए, तो यह डोमिनो इफ़ेक्ट की तरह काम करेगा। रूस, चीन, उत्तर कोरिया और शायद ईरान भी अपनी क्षमता बढ़ाने में जुट जाएंगे। यह न केवल हथियारों की दौड़ को तेज़ करेगा, बल्कि “न्यूक्लियर एक्सीडेंट्स”, “रेडिएशन लीकेज”, और “आर्थिक दबाव” जैसी समस्याओं को भी जन्म देगा।अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शांति बनाए रखने के लिए अब तक जो संस्थाएं काम कर रही हैं,जैसे आईएईए (इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी), उनकी भूमिका भी चुनौती में पड़ जाएगी।
साथियों बात अगर हम इस फैसले को ट्रंप की राजनीति या वैश्विक रणनीति? को समझने की करें तो,विश्लेषक मानते हैं कि ट्रंप का यह फैसला केवल सैन्य दृष्टि से नहीं, बल्कि राजनीतिक उद्देश्य से भी प्रेरित है।2025 की अमेरिकी राजनीति में ट्रंप “मजबूत राष्ट्रवाद” और “अमेरिका फर्स्ट” के नारे को पुनर्जीवित कर रहे हैं। न्यूक्लियर टेस्ट का आदेश उसी एजेंडा का हिस्सा हो सकता है, जिससे वे अमेरिका को फिर से”अजेय शक्ति” के रूप में पेश कर सकें।लेकिन सवाल यह है कि क्या यह “अजेयता” वास्तव में शांति की ओर ले जाएगी या दुनिया को एक नए संकट में धकेलेगी?
अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि यह वक्त शांति की परीक्षा का दौर हैँ,अमेरिका द्वारा 33 साल बाद परमाणु परीक्षण दोबारा शुरू करने का आदेश एक “ऐतिहासिक मोड़” है,ऐसा मोड़ जो या तो दुनियाँ को शांति के नए रास्ते पर ले जाएगा या उसे तीसरे विश्व युद्ध जैसी अंधकारमय स्थिति में झोंक देगा? भारत जैसे देशों के लिए यह एक गंभीर चुनौती है कि वे अपनी “जिम्मेदार न्यूक्लियर नीति” को बनाए रखते हुए विश्व शांति की दिशा में नेतृत्व करें।
आज विश्व समुदाय को यह तय करना होगा कि वह हथियारों की दौड़ में शामिल होगा या विवेक और संवाद की राह चुनेगा। क्योंकि एक बार यदि यह “न्यूक्लियर रेस” शुरू हो गई, तो मानव सभ्यता को खुद अपने बनाए हथियारों से मिटने में देर नहीं लगेगी? यानें “जब शक्ति विवेक के बिना चलती है, तो विनाश निश्चित होता है।अमेरिका का यह कदम केवल शक्ति का प्रदर्शन नहीं, बल्कि मानवता की परीक्षा है।”





