शिशिर शुक्ला
हाल ही में टाइम्स हायर एजुकेशन द्वारा जारी की गई ’‘वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग 2023″ में लंदन स्थित ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय को शीर्ष स्थान प्राप्त हुआ है। चौंकाने वाली बात यह है कि भारत का कोई भी संस्थान शीर्ष 250 रैंकिंग तक किसी भी स्थान पर काबिज नहीं हो सका है, जबकि यदि टॉप 500 की बात की जाए तो इस सूची में भारत के केवल दो संस्थान— भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलोर एवं भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई ही अपनी जगह बना पाए हैं। एशिया के आंकड़ों के अनुसार, शीर्ष 10 में से 5 संस्थान चीन के हैं जबकि भारत का कोई संस्थान शीर्ष 25 में शामिल नहीं हो सका है। और तो और, भारत के संस्थानों की स्थिति में भी गिरावट दर्ज की गई है। शिक्षा के वैश्विक पटल पर भारतीय शिक्षण संस्थानों का पंक्ति में पीछे खड़े होना निश्चित रूप से दुर्भाग्यपूर्ण एवं चिंताजनक विषय है।
यह ध्यातव्य है कि आज 21वीं सदी में भले ही हम अपने विद्यार्थियों को शिक्षा ग्रहण करने हेतु अमेरिका, कनाडा, जर्मनी, ताइवान, लंदन इत्यादि विभिन्न स्थानों पर भेजते हों, किंतु कभी एक समय ऐसा भी था जब हम शिक्षा के क्षेत्र में जगतगुरु थे। इतिहास बताता है कि विश्व के प्राचीनतम एवं विशालतम विश्वविद्यालय भारत में विद्यमान थे। ये ऐसे विश्वविद्यालय थे जहां पर शिक्षा का अमृतपान करने संपूर्ण विश्व से विद्यार्थी आया करते थे। विश्व का प्राचीनतम माना जाने वाला तक्षशिला विश्वविद्यालय, जो कि विभाजन से पूर्व भारत में स्थित था, शिक्षा का एक अमूल्य केंद्र था। बिहार स्थित नालंदा विश्वविद्यालय के विषय में प्राप्त जानकारी के अनुसार, यहां पर तीन सौ से अधिक शिक्षण कक्ष एवं नौ मंजिला पुस्तकालय था। दस हजार विद्यार्थी यहां विद्या अध्ययन करते थे, जिनको विश्वविद्यालय में प्रवेश हेतु एक उच्च स्तर की प्रवेश परीक्षा को उत्तीर्ण करना पड़ता था। इसके अतिरिक्त बिहार स्थित विक्रमशिला विश्वविद्यालय, गुजरात का वल्लभी विश्वविद्यालय, उड़ीसा का पुष्पगिरी विश्वविद्यालय, बिहार का तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय, ओदंतपुरी विश्वविद्यालय, कश्मीर का शारदापीठ विश्वविद्यालय आदि अनेक ऐसे प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र थे जहां अध्ययन करना संपूर्ण विश्व के विद्यार्थियों का स्वप्न हुआ करता था। इन सभी शिक्षण संस्थानों में विज्ञान, कला, ज्योतिष, साहित्य, ललितकला आदि विभिन्न विषयों के ज्ञान का अथाह भंडार विद्यमान था। यदि सत्य कहा जाए तो ज्ञान के प्रत्येक पहलू की सरिता का उद्गम भारतवर्ष में ही स्थित था। दुर्भाग्यवश एवं हमारी आंतरिक कमजोरियोंवश, अनेक विदेशी आक्रांताओं ने सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत को जी भरकर लूटा एवं तहस-नहस किया। दुर्भाग्य व दुर्घटनाओं की दामिनी से शिक्षा जगत में भारत का लहराता हुआ परचम भी अछूता नहीं रह पाया। दुष्परिणाम यह हुआ कि न जाने कितने शिक्षा केंद्र एवं उनमें विद्यमान ज्ञान के अनेक ग्रंथ अग्नि की भेंट चढ़ा दिए गए। यह एक कटुसत्य है कि भारत की जो छवि पहले थी वह संभवत: अब कदापि नहीं बन सकती।
स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत यद्यपि शिक्षा के क्षेत्र में भारत ने उल्लेखनीय प्रगति की है। किंतु यह भी गौरतलब है कि वैश्विक स्तर पर हमारा प्रदर्शन अभी उस स्तर को नहीं स्पर्श कर पाया है जो कि होना चाहिए। कहीं न कहीं इसके पीछे हमारी शिक्षा व्यवस्था ही उत्तरदायी है। यह कहना गलत न होगा कि हमने शिक्षा में मात्रात्मक प्रगति तो की है किंतु गुणात्मक मापदंड पर अभी हम बहुत पीछे हैं। आज भारत में विश्वविद्यालयों एवं अन्य उच्च शिक्षण संस्थानों की एक अच्छी खासी संख्या मौजूद है किंतु कतिपय चुनिंदा शिक्षण संस्थानों को छोड़कर शेष सभी गुणवत्ता के पैमाने पर बिल्कुल भी खरे नहीं उतरते। शिक्षा के व्यापारीकरण के चलते महज एक भवन खड़ा करके उसे विश्वविद्यालय अथवा महाविद्यालय का रूप तो दे दिया गया है, किंतु प्रयोगशाला, पुस्तकालय, शिक्षकों की संख्या एवं अन्य बुनियादी सुविधाओं के नाम पर वहां कुछ भी नहीं है। मजे की बात तो यह है कि ये सभी संस्थान जिस उद्देश्य को केंद्रित करके खोले गए हैं, उसमें पूर्णतया सफल होते हुए दिखाई दे रहे हैं, क्योंकि भारत शनैः शनै: विश्व में जनसंख्या की दृष्टि से शीर्ष स्थान पर काबिज होने की ओर अग्रसर हो रहा है। व्यवसायोन्मुखी सोच ने शिक्षा को पंगु बना कर छोड़ दिया है। भारत में मजबूती से अपने पांव पसारकर बैठी निर्धनता एवं दिन-ब-दिन महंगी होती उच्च शिक्षा ने भारत में शिक्षा के स्तर को गिराने में अच्छा खासा योगदान दिया है। आज भारत के 80 प्रतिशत युवा का उद्देश्य केवल डिग्री हासिल करना एवं येन केन प्रकारेण अपनी जीविकोपार्जन हेतु नौकरी पा लेना होता है। शिक्षा को आत्मसात करना, आत्मचेतना के स्तर को उठाना एवं अपनी मौलिक सोच को विकसित करके स्वयं को दक्ष बनाने से वह कोसों दूर है। एक अन्य महत्वपूर्ण बिंदु जिस पर सर्वाधिक ध्यान देने की आवश्यकता है, वह है —दोषपूर्ण पाठ्यक्रम, दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति एवं दोषपूर्ण परीक्षा पद्धति। हमारे यहां शिक्षा पद्धति, पाठ्यक्रम एवं परीक्षा पद्धति में भारी सुधार की आवश्यकता है। पाठ्यक्रम को सैद्धांतिक से व्यावहारिक रूप देने की महती आवश्यकता है। पाठ्यक्रम में अनुप्रयोगों एवं शोध का अभाव होने के कारण हमारे यहां एक उत्तम विद्यार्थी भी विषय के सिद्धांतों को तो भली-भांति समझ लेता है किंतु जब उन्ही सिद्धांतों को व्यावहारिक एवं शोधात्मक तरीके से प्रयोग करना होता है तो वह पूर्णतया असफल हो जाता है। दुर्भाग्यवश हमारे यहां विभिन्न शिक्षण संस्थानों में प्रवेश प्रक्रिया की भी अनेक नीतियां हैं , एक तो प्रतिभा एवं परिश्रम के द्वारा एवं दूसरा राजनीति अथवा धन के माध्यम से। जो विद्यार्थी प्रतिभाविहीन किंतु धन से संपन्न हैं, वे धन अथवा राजनीतिक पहुंच के माध्यम से उच्च शिक्षा में प्रवेश पाकर प्रतिभासंपन्न विद्यार्थियों के ही समकक्ष स्थान पा जाते हैं।
शिक्षा मानव के व्यक्तित्व को परिष्कृत व परिमार्जित करती है। किसी समय में हम शिक्षा जगत में संपूर्ण विश्व के गुरु थे किंतु इस आदर्श स्थिति से आज हम बहुत दूर हैं। हमें शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। शैक्षणिक संस्थानों की भीड़ एकत्र करने के बजाय हमें गुणवत्ता पर ध्यान केंद्रित करते हुए ऐसे संस्थानों पर अंकुश लगाना होगा जो महज शिक्षा के व्यापारीकरण हेतु खोले गए हैं एवं जिनका विद्यार्थी के विकास से लेशमात्र भी लेना देना नहीं है। शोध एवं अनुप्रयोगों को शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर सम्मिलित करना होगा। हमें यह ध्यान रखना है कि जब तक शिक्षा को व्यवसाय के रूप में देखा जाएगा एवं शैक्षणिक संस्थानों की गुणवत्ता के स्थान पर मात्रा को महत्व दिया जाएगा, तब तक हम वैश्विक स्तर पर शीर्ष रैंकिंग में कदापि स्थान नहीं पा सकते।