दिल्ली नगर निगम एकीकरण के बाद दिल्ली विधान सभा के वजूद पर उठने लगे सवाल

मनोज कुमार मिश्र

केन्द्र की भाजपा की अगुवाई वाली सरकार ने दिल्ली नगर निगम(संशोधन) विधेयक-2022 को संसद के दोनों सदनों से पास करवाकर दस साल बाद दिल्ली में फिर से तीन नगर निगम को मिलाकर एक नगर निगम बनवा दिया। लोक सभा में दिल्ली सरकार में काबिज आम आदमी पार्टी(आप) का कोई सांसद न होने के चलते इस संशोधन विधेयक का विरोध कांग्रेस जैसे विरोधी दल ही कर पाए, राज्य सभा में अन्य विपक्षी दलों के साथ-साथ आप के सांसदों ने विरोध किया। आप सांसदों का आरोप था कि निगम चुनाव में हार के डर से केजरिवाल फोबिया के चलते भाजपा यह विधेयक लाई है। उसके जबाब में केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अन्य बातों के अलावा यह भी कह दिया कि नगर निगम एकीकरण के ज्यादा विरोध में कहीं अपनी सरकार न गवां बैठे। बाद में इस पर न तो कोई सफाई आई न चर्चा हुई लेकिन पिछले कुछ सालों से चल रहे हालात से यह चर्चा तेज हो गई कि नगर निगम को मजबूती देने के बाद तो हालात महानगर परिषद वाले बनने लगे हैं। पिछले साल संविधान संशोधन करके उप राज्यपाल को ज्यादा ताकत देने और आरक्षित विषयों(भूमि, कानून-व्यवस्था और राजनिवास के मामले) को पूरी तरह से दिल्ली सरकार और विधान सभा से अलग करने के बाद तो दिल्ली सरकार की हैसियत1966 में बनी दिल्ली महानगर परिषद जैसी ही बन गई है। तारीख गवाह है कि जब-जब केन्द्र सरकार यानि उप राज्यपाल के साथ दिल्ली सरकार का टकराव हुआ, नुकसान दिल्ली सरकार को ही हुआ।

चार जुलाई,2018 को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने चार अगस्त,2016 के दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को पलटते हुए कहा कि गैर आरक्षित विषयों में दिल्ली की सरकार फैसला लेने के लिए स्वतंत्र है। हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि दिल्ली सरकार का मतलब उप राज्यपाल है। तब तक दिल्ली सरकार की उप राज्यपाल से इस कदर तानातानी बढ़ गई थी कि उप राज्यपाल ने आरक्षिक विषयों पर सरकार और विधान सभा में चर्चा करानी तक बंद करवा दी थी। उसके बाद पिछले साल मार्च महीने में संसद के दोनों सदनों से ‘राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली(संशोधन)-2021’ विधेयक पास करवाकर उप राज्यपाल को पहले से ज्यादा ताकतवर बना दिया। दिल्ली विधान सभा की नियमावली बनाने वाले संविधान के जानकार सुदर्शन कुमार शर्मा तभी कहा था कि संविधान के जिस 69 वे संशोधन के तहत दिल्ली को विधान सभा मिली, उसमें यह भी लिखा हुआ है कि इसमें कोई भी संशोधन मूल विधान में संशोधन माना जाएगा। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ज्यादा बदलाव कर पाएगी, इसमें संदेह ही है। यही हुआ भी। आज तक उसमें कोई बदलाव नहीं हुआ।25 मार्च की रात राज्यसभा में इस संशोधन पर हुई बहस का जबाब देते हुए तब के गृह राज्य मंत्री ने कहा था कि इस संशोधन से दिल्ली सरकार के अधिकार कम करने के बजाए राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अधिनियम-1991 की कमियों को ठीक किया गया है। लेकिन वास्तव में दिल्ली की मौजूदा आम आदमी आदमी पार्टी (आप) की सरकार और उप राज्यपाल के माध्यम से केन्द्र की सरकार से अनवरत चल रही लड़ाई ने दिल्ली को विधान सभा बनाने वाले साल 1993 में फिर से पहुंचा दिया गया था।

एक समय यह था कि विधान सभा की 1993 में नियमावली बनाते समय तब के उप राज्यपाल पी के दवे ने दिल्ली की पहली निर्वाचित सरकार के अनुरोध पर आरक्षित विषयों- जमीन(दिल्ली विकास प्राधिकरण), कानून- व्यवस्था और दिल्ली पुलिस, के काम काज पर भी विधान सभा में उसी तरह से चर्चा करने के लिए विधान बनाने की आजादी दी जैसे अन्य विषयों में चर्चा करने का प्रावधान नियमावली में बन रहा था। विधान सभा में आराम से आरक्षित विषयों पर चर्चा होती थी। जिस तरह से बाकी विभाग प्रमुख प्रश्न काल या चर्चा के समय विधान सभा के अधिकारी दीर्धा में मौजूद रहते थे उसी तरह से दिल्ली पुलिस आयुक्त, दिल्ली विकास प्राधिकरण(डीडीए) उपाध्यक्ष आदि मौजूद रहते थे। अब तो यह कोई सोंच ही नहीं सकता है। इतना ही नहीं तब के मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना के अनुरोध पर दिल्ली सरकार के आला अधिकारियों के ए. सी. आर.(सालाना गोपनीय रिपोर्ट) लिखने का अधिकार मुख्यमंत्री और मंत्रियों को दे दिया था। उप राज्यपाल केवल कुछ अधिकारियों के रिपोर्ट को रिव्यूव(फिर से जांच) करते थे। जबकि अधिकारी यानि सेवाएं आरक्षित विषय है। इस सरकार में तो आंतरिक तबादला की कौन कहे सरकार को अपने आदेश मनवाने के लिए कसरत जैसा करना पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट से अभी भी दिल्ली की अफसरशाही पर किसका नियंत्रण हो यह तय नहीं हो पाया है। आज हालात ऐसे बन गए कि जो विधान सभा की नियमावली बनी हुई है और जिस पर सालों से अमल हो रहा है, वही बेमतलब हो गई। अब तो गैर आरक्षित विषयों पर भी फैसला लेने से पहले उप राज्यपाल की सहमति लेनी होती है। अब तो वैधानिक रूप से दिल्ली सरकार का मतलब उप राज्यपाल कर दिया गया है। साल 2002 में तब के उप राज्यपाल ने अपने अधिकार बढ़वाने के लिए केन्द्रीय गृह मंत्रालय से दो परिपत्र जारी करवाए। उसका विरोध तब की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और कांग्रेस ने किया था। तब भी गृह मंत्रालय ने यही लिख कर भेजा था कि दिल्ली सरकार मतलब उप राज्यपाल होता है। यही चार अगस्त 2016 को दिल्ली हाई कोर्ट ने भी कहा था। उसके खिलाफ दिल्ली सरकार सुप्रीम कोर्ट गई और सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने चार जुलाई 2018 को यह फैसला दिया कि दिल्ली में गैर आरक्षित विषयों में दिल्ली सरकार फैसला लेने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र है।

दिल्ली के अधिकारों की लड़ाई में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इसलिए नहीं खत्म हुआ था क्योंकि अभी बहुत सारी चीजें तय होनी रह गई। दूसरे, संविधान पीठ ने अपने फैसले में दिल्ली की सरकार को मजबूती दी लेकिन यह कह कर कि दिल्ली केन्द्र शासित प्रदेश ही रहेगा, राज्य नहीं बन सकता है, उसकी हद तय कर दी। भाजपा की ओर से कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कोई भी विधेयक का प्रारुप या प्रशासनिक फैसलों की फाइल उप राज्यपाल के पास आखिरी क्षण में भेजी जा रही है। जिससे राजनिवास (उप राज्यपाल का दफ्तर) को उस पर कानूनी राय आदि लेने का समय नहीं मिल पाए। इतना ही नहीं विधायी कार्य मनमाने तरीके से किए जा रहे हैं। विधान सभा का सत्रावसान नहीं करवाया जाता है। सत्रावसान या सत्र बुलाने के लिए तो फाइल उप राज्यपाल के पास भेजनी होगी। बार-बार एक-एक दिन का सत्र बुलाने के लिए तो कोई कारण बताना पड़ेगा। जब मन में आया विधान सभा की बैठक बुला ली जाती है। दिल्ली विधान सभा में देश भर के मुद्दे पर कैसे चर्चा हो सकती है। जिस उप राज्यपाल के नाम पर विधान सभा की बैठक बुलाई जाती है, उसी का निंदा प्रस्ताव विधान सभा कैसे पास कर सकती है। विधान सभा की कमेटियां विधान सभा के फैसलों को लागू करने में मददगार बनती है, इस सरकार ने इसे अफसरों को सबक सिखाने का एक माध्यम बना लिया गया। हर रोज दिल्ली सरकार के आला अधिकारी को विधान सभा की समितियों की बैठक में बुलाने से परेशान होकर एक मुख्य सचिव एमएम कुट्टी को अदालत की शरण में जाना पड़ा था।

दिल्ली के विधान में केवल केन्द्र शासित प्रदेश होने की समस्या नहीं है, अनेक विषयों पर स्पष्टता नहीं है। इसी का फायदा उठा कर केन्द्र की सरकार ने दिल्ली की चुनी हुई सरकार के अधिकारों में बेहिसाब कटौती कर दी। आप की सरकार में आने के बाद से ही उनकी समस्या यही रही कि उनकी आला अधिकारी सुनते ही नहीं वे उप राज्यपाल की ही सुनते हैं। इतना ही नहीं जिन अधिकारियों को मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मुख्य सचिव बनवाया, उनमें से नवंबर 2018 में मुख्य सचिव बने विजय कुमार देव के अलावा हर मुख्य सचिव से सरकार की लड़ाई होती रही। आप सरकार का आरोप है कि केन्द्र की सरकार उन्हें काम नहीं करने दे रही है और अधिकारियों के माध्यम से उप राज्यपाल सरकार के काम में अडंगा लगाते हैं। केन्द्र शासित प्रदेश होने के चलते दिल्ली का अधिकारियों का कोई काडर नहीं है। केन्द्रीय गृह मंत्रालय के माध्यम से उप राज्यपाल का उन पर नियंत्रण है। दिल्ली की चुनी हुई सरकार इसी से बेवस हो जाती कई ऐसे मौके आए जब उप राज्यपाल ने दिल्ली सरकार के फैसले को पलट दिया। आप सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से विषय साफ करवाया लेकिन मामला वहीं पहुंच गया जहां से 1993 में शुरू हुआ था। उसके बाद के सारे ही प्रयास पिछले साल के संशोधन से बेकार हो गए। अगर हर फैसले उप राज्यपाल के हिसाब से होने लगा है, चुनी हुई सरकार का मतलब कुछ नहीं रह गया है। दिल्ली में 15 साल तक मुख्यमंत्री रही शीला दीक्षित ने दिल्ली सरकार के समानांतर चल रही नगर निगम को दिल्ली सरकार के एक तरह से अधीन करवाकर उसे तीन हिस्सों में बंटवा दिया था। केन्द्र सरकार ने नगर निगम संशोधन विधेयक से तीनों निगमों को केवल एक नहीं किया है, दिल्ली सरकार से पूरी तरह से निगम को मुक्त करवाकर केन्द्र सरकार के अधीन करवा लिया है। अब सरकार का मतलब केन्द्र सरकार होगा। जब तक नगर निगम के चुनाव नहीं होंगे तब तक एक प्रशासक काम करेगा, जिसे केन्द्र नियुक्त करेगी।

1993 में दिल्ली में विधान सभा बनने से पहले दिल्ली की ज्यादातर नागरिक सेवाएं नगर निगम के पास थी। महानगर परिषद बन जाने के बावजूद बिजली, पानी, सीवर, सड़कें, दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी). अग्नि शमन सेवा, होम गार्ड आदि दिल्ली सरकार के अधीन थी। विधान सभा बनने के बाद विभिन्न मुख्य मंत्रियों ने इन्हें दिल्ली सरकार के अधीन करवाया। फिर भी अभी भी संपत्ति कर, पार्किंग, साफ-सफाई से लेकर बुनियादी चीजें निगम के ही अधिकार क्षेत्र में है। उच्य शिक्षा के कुछ संस्थान, कुछ बड़े अस्पताल, दिल्ली देहात की जमीन आदि ही दिल्ली सरकार के पहचान बने हैं। इसमें से काफी तो महानगर परिषद के जमाने में भी उसके अधीन है। लेकिन अगर केन्द्र सरकार तय ही कर ले तो संसद के दोनों सदनों में बहुमत के दम पर वह कुछ भी फैसला करवा सकती है। दिल्ली में विधान सभा का आंदोलन में समर्थन भले ही कांग्रेस का था लेकिन अगुवाई भाजपा की ही रही थी। विधान सभा मिलने के बाद पहली सरकार भाजपा की ही बनी और दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने का अभियान भी भाजपा ने ही शुरू किया था। उप राज्यपाल से टकराव होने और केन्द्र में भाजपा की अगुवाई वाली सरकार होने के चलते पहली बार साल 2002 में कांग्रेस ने दिल्ली को पूर्ण राज्य बनवाने का आंदोलन शुरू किया। 2012 में बनी आप ने शुरुवात से इस मांग को उठाया। अब दिल्ली में कांग्रेस बेजान हो चुकी है, आप प्रचंड बहुमत से दूसरी बार सरकार में है। दिल्ली के बाद पंजाब जीतने के बाद उसके हौसले बुलंद है। लगातार दो बार भारी अंतर से राजधानी की सभी सातों सीटें जीतने वाली भाजपा 1993 के बाद कभी भी दिल्ली विधान सभा चुनाव नहीं जीत पाई। गैर भाजपा मतों का विभाजन होने से 36 फीसद औसत वोट लाकर लगातार तीन बार से निगम चुनाव जीतती रही है। कांग्रेस के कमजोर होने के बाद अब आसानी से गैर भाजपा मतों का बड़े पैमाने पर विभाजन होने के आसार कम हैं इसलिए लगता नहीं भाजपा सामान्य तरीके से दिल्ली के स्थानीय चुनाव जीत पाए। आप ने इसीलिए भाजपा पर हार के डर से निगम चुनाव टालने का आरोप लगाया। इसीलिए अब राजनीतिक गलियारों में विधान सभा की उपयोगिता कम होने के बहाने उसे खत्म करने की ही चर्चा चल पड़ी है।