एक दूसरे के विरोध में खड़ी हैं भारत में कृषि नीतियां

मनोहर मनोज

भारत में अभी कृषि को लेकर अपनायी जाने वाली नीतियां एक दूसरे के विरोध में खड़ी हैं। ना केवल घरेलू स्तर पर अपनायी जाने वाली नीतियां बल्कि वैश्विक कृषि परिदृश्य भी कृषि उत्पादकों यानी हमारे किसानों के हितों के सदैव ही प्रतिकू ल साबित हुई हैं। अभी भारत में खाद्य जिन्सों के बाजार में एक दिलचस्प व दूर्लभ स्थिति दिखायी पड़ रही है वह ये है कि अभी भारत में गेहूं का बाजार मूल्य गेहूं का न्यूनतम समर्र्थन मूल्य २०१५ रुपये प्रति क्विंटल के मुकाबले २२०० से २५०० रुपये प्रति क्विंटल जा चुका है। मजे की बात ये है कि अभी गेहूं का अंतरराष्ट्रीय मूल्य जो देश केे घरेलू मूल्य से भी कम हुआ करता था वह अब भारतीय रुपये में करीब साढे तीन हजार रुपये प्रति क्विंटल पर जा चुका है। भारत के गेहूं उत्पादक किसानों के लिए एक मुनाफादायक अवसर मिला तो सरकार ने घरेलू किल्लत और बढती मुद्रा स्फीति का हवाला देकर निर्यात पर रोक लगा दी। दुसरी तरफ अमेरिका जो अंतरराष्ट्रीय अनाज बाजार में अपना वर्चस्व रखता आया है वह विश्व खाद्य सुरक्षा का हवाला देकर भारत से निर्यात जारी रखने का अनुरोध कर रहा है। आम तौर पर फसल सीजन के दौरान एमएसपी के मुकाबले बाजार मूल्य कम ही देखा जाता रहा है। इसलिए पिछले साल किसानों के लंबे चले आंदोलन का प्रमुख मुद्दा किसानों के सभी प्रमुख उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जामा दिलवाना ही बना था जिससे निजी क्षेत्र भी किसानों के उत्पादों को सीजन में ओवर सप्लाई की स्थिति में गिरे मूल्यों के बजाए कानूनी रूप से निर्धारित दर से खरीदें। लेकिन सरकार ने इस मांग को अभी तक मूर्त रूप नहीं दिया पर उत्पादन में आयी कमी से जनित परिस्थितियों से इस बार बाजार मूल्य एमएसपी से ज्यादा है। इससे उन किसानों को जरूर लाभ मिल रहा है जिनके पास अनाज का बाजार अतिरेक मौजूद है। पर सवाल ये है कि क्या ये स्थिति हर बार मौजूद रहेगी? नहीं ऐसा नहीं होगा क्योंकि सरकारों का अनाज उत्पादन में बढोत्तरी लाना या उसे बनाये रखना ज्यादा बड़ी प्राथमिकता है ना कि किसानों की आमदनी। सरकार की इससे बड़ी प्राथमिकता है खाद्य सुरक्षा जिसके तहत भारत सरकार हर साल करीब डेढ लाख करोड़ सब्सिडी के जरिये देश के करीब 80 करोड़ लोगों को जनवितरण प्रणाली के जरिये सस्ता या मुफत अनाज प्रदान करती है।

बताते चलें पिछले करीब साठ साल से भारत सरकार की कृषि नीति किसानों को इनपुट सब्सिडी के जरिये अनाज आत्मनिर्भरता हासिल करने और फिर देश की निर्धन आबादी को जनवितरण प्रणाली के जरिये सस्ता अनाज देकर खाद्य सुरक्षा की नीति को संपुष्ट करने की रही है। इन नीतियों को अपनाये जाने के दौरान किसानों को लाभकारी मूल्य देने या उनके खेती लागत के आधार पर उनको अतिरेक आमदनी सुनिश्चित करने का मामला हमेशा गौण रहा। किसानों के हितों का हवाला सरकार केवल यह कहकर देती रही है कि उन्हें सब्सिडी युक्त खाद बीज उपकरण सिचाई व बिजली मुहै्या कराया जा रहा है।

भारत का करीब 15 करोड़ किसान परिवार इन नीतियों पर अबतक यह समझ कर चलता रहा कि उनके पुरखों के पेशे को सरकार की इन सुविधाओं से जब पर लग जाएगा तो हो सकता है उनकी आमदनी भी बढने लगेगी। पिछले साठ सालों के दौरान सरकार द्वारा एमएसपी के निर्धारण मूल्य के बेहद अपर्याप्त रखे जाने, एमएसपी के तहत सभी उत्पादों की खरीद नहीं हो पाने तथा जनवितरण प्रणाली की उपस्थिति की वजह से बाजार में किसानों के उत्पादों के मूल्य पर्याप्त रूप से नहीं मिल पाने के बावजूद भारत के किसानों ने अपने देश को खाद्य आत्मनिर्र्भरता और खाद्य सुरक्षा की स्थिति में ला दिया। पर अब सरकार को यह भी देखना चाहिए कि इन उद्येश्यों की पूर्ति की कीमत में देश के कृषि पर अवलंबित करीब साठ फीसदी आबादी के साथ व्याप्त पेशेवर असंतुलन के जरिये चुकानी पड़ी है। यानी देश के सकल घरेलू उत्पाद में साठ फीसदी आबादी केवल 15 फीसदी का योगदान कर पा रही है। ऐसेे में सरकार को यह तय करना होगा कि वह देश के पंद्रह करोड़ किसान परिवारों की बेहतर आजीविका, आमदनी और मुनाफे की सुरक्षा की नीति पर चलना चाहती है या वह इनपुट सब्सिडी व खाद्य सब्सिडी आधारित किसान विरोधाभाषी नीति पर चलना चाहती है।

भारत के राजनीतिक जमात को अबतक यही लगता आया है कि गरीबों को सस्ता राशन व अनाज की महंगाई पर नियंत्रण उसके लिए बड़ी प्राथमिकता है इसलिए वह इतने सालों तक किसानों की आमदनी को नजरअंदाज करती आई। वह यह नहीं समझ पायी कि किसानों को बिना बेहतर व मुुनाफाकारी मूल्य दिये वह केवल इनपुट सब्सिडी के जरिये उत्पादन नहीं बढा सकती। कम दाम मिलने से हताश किसान कृषि कार्य में जब दिलचस्पी नहीं दिखाएगा तो उस वजह से कम उत् पादन की स्थिति में उपजी महंगाई को सरकार नहीं रोक पाएगी। विडंबना ये है कि भारतीय कृषि की इन घरेलू परिस्थितियों को वैश्विक कृषि परिदृष्य ने अब तक आग में घी डालने का काम किया है। दुनिया के कुछ विकसित कृषक देश अमेरिका, कनाडा, जापान, आस्ट्रेलिया वगैरह अपने किसानों को अपने अकूत संसाधनों से भारी सब्सिडी प्रदान कर खेती कराती हैं पर अनाजों का जब अंतरराष्ट्रीय मूल्य तय करने की बात आती हैं तो वह एक तरह से अनाज साम्राज्यवाद की नीति अपनाती हैं। विकसित देशों में पैदा अनाज दुनिया के देशों के लिए सस्ता है पर वहां के होटलों में खाने बेहद महंगे। भारत में खेती की लागतें जहां इन देशों की लागत की तुलना में काफी सस्ती हैं पर इसके बावजूद भारतीय किसानों का अनाज अंतरराष्ट्रीय व्यापार मूल्य के प्रतियोगी नहीं बन पाता है क्योंकि भारत की सरकार उतनी भारी सब्सिडी वहन नहीं कर सकती। भारतीय किसान निर्यात नहीं भी नहीं कर पाता है और आयात भी नहीं क्योंकि दोनो स्थितियों में वह मारा जाता है। वही आज अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां ऐसी है कि निर्यात मूल्य ज्यादा होते हुए भी भारत सरकार अपनी घरेलू उपलब्धता को तवज्जो दे रही है।

कुल मिलाकर दुनिया केे सभी देशों को इस बात पर एकमत होना होगा कि दुनिया में असल रूप में खाद्य सुरक्षा प्राप्त करने के लिए, भूखमरी और कूपोषण से लड़ाई लडऩे के लिए किसानों को उनकी लागत के आधार पर उनके उत्पादों का लाभकारी मूल्य देना ही होगा। इसी की प्रेरणा से वह तभी अनवरत खेती कर पाएगा और बाजार में खाद्य उत्पादों की निर्बाध सप्लाई कायम रहेगी। कृषि के इनपुट व अनाज के बदले सब्सिडी देने के बजाए यदि भारत सहित दुनिया की सभी सरकारें तैयार भोजन के कार्यक्रम पर संसाधन व्यय करें तो इससे ज्यादा बेहतर मकसद हासिल होगा, कुपोषण पर प्रत्यक्ष रोक लगेगी, जरूरतमंदों को खाना मिलेगा और सबसे अव्वल खाद्य सब्सिडी के बंदरबांट व भ्रष्टाचार पर रोक लगेंगी। इस मामले में भारत में गुरूद्वारों में चलाये जाने वाले लंगर कार्यक्रम समूची दुनिया के लिए एक अदुभूत मिशाल हैं। जनवितरण प्रणाली का औचित्य सिर्फ आपदा व दूरदराज के इलाकों के लिए बनता है। अनाज को या तो खाना बनाकर खिलाओ या इसके बदले नकद भत्ते दो की नीति जयदा बेहतर है।