अखिलेश यादव और उत्तर प्रदेश की बदलती राजनीति : पीडीए रणनीति की कहानी

Akhilesh's social engineering formula for 2027

प्रमोद शर्मा

उत्तर प्रदेश की राजनीति में समाजवादी पार्टी और उसके नेता अखिलेश यादव आज एक केंद्रीय चेहरा हैं। भारतीय राजनीति का यह सबसे बड़ा प्रांत न केवल लोकसभा में सबसे अधिक सांसद भेजता है, बल्कि यहाँ की सामाजिक और राजनीतिक धड़कन पूरे देश की सत्ता का रुख भी तय करती है। 2024 के लोकसभा चुनावों में अखिलेश यादव ने अपने पीडीए फॉर्मूले—पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक—को जिस ढंग से अमल में उतारा, उसने उन्हें राज्य में एक नई ऊँचाई दिलाई।

पीडीए फॉर्मूला और 2024 की सफलता

अखिलेश यादव ने समझा कि उत्तर प्रदेश में केवल यादव-मुस्लिम समीकरण पर टिके रहना अब पर्याप्त नहीं है। 1990 के दशक में मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक आधार जहाँ यादव और मुस्लिम मतदाताओं की साझेदारी पर टिका था, वहीं 2014 और 2019 के चुनावों ने दिखा दिया कि बीजेपी ने इस सामाजिक समीकरण को तोड़कर अपने पक्ष में एक नया हिंदुत्व और गैर-यादव ओबीसी गठजोड़ खड़ा कर दिया है।

इसी चुनौती का जवाब अखिलेश ने गैर-यादव ओबीसी को अपने पाले में खींचकर दिया। उन्होंने कुर्मी, राजभर, लोधी जैसे समुदायों को टिकट देकर न केवल प्रतीकात्मक संदेश दिया, बल्कि वास्तविक जीत भी दर्ज की। उदाहरण के लिए, कुर्मी और पटेल समुदाय को दिए गए 10 टिकटों में से सात पर जीत हासिल हुई। यह आँकड़ा दर्शाता है कि अखिलेश ने केवल अपनी पारंपरिक यादव राजनीति से आगे बढ़कर सामाजिक आधार का विस्तार किया।

इस रणनीति का परिणाम था कि समाजवादी पार्टी ने 2024 में उत्तर प्रदेश से 37 लोकसभा सीटें जीतीं—जो अब तक की उनकी सबसे बड़ी चुनावी उपलब्धि है।

दलित राजनीति में सेंध : बसपा की कमजोरी, सपा की मजबूती

दलित राजनीति उत्तर प्रदेश में लंबे समय तक बसपा और मायावती के इर्द-गिर्द घूमती रही। लेकिन समय के साथ बसपा की पकड़ कमजोर हुई और अखिलेश ने इस खाली जगह को भाँप लिया। उन्होंने 2021 में समाजवादी बाबा साहेब वाहिनी का गठन किया और इसका नेतृत्व बसपा से आए मिठाई लाल भारती को सौंपा। यह कदम सीधे-सीधे बसपा के वोट बैंक में सेंध लगाने की रणनीति थी, खासकर गैर-जाटव दलितों के बीच।

इसी कड़ी में इंद्रजीत सरोज जैसे नेताओं को पार्टी में शामिल किया गया, जिन्हें टिकट और संगठनात्मक जिम्मेदारियाँ दी गईं। आंबेडकर जयंती जैसे अवसरों पर अखिलेश ने संविधान और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर खुलकर अपनी प्रतिबद्धता दिखाई। इसने दलितों, विशेषकर उन तबकों को, जो बसपा से निराश हो चुके थे, समाजवादी पार्टी की ओर आकर्षित किया।

अल्पसंख्यक और सामाजिक समावेश

समाजवादी पार्टी का पारंपरिक आधार मुस्लिम समुदाय रहा है, लेकिन 2024 के बाद अखिलेश ने यह संदेश देने की कोशिश की कि वे केवल मुसलमानों की पार्टी नहीं हैं। उन्होंने गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों और ऊँची जातियों के बीच भी अपने लिए जगह बनाने की कोशिश की।

2025 में महाराणा प्रताप जयंती के अवसर पर उन्होंने क्षत्रिय नेताओं के साथ मंच साझा कर उनके बलिदान को याद किया। इसी तरह ब्राह्मण नेताओं से मुलाकात कर उन्होंने यह संकेत दिया कि पार्टी सामाजिक समावेश और व्यापक प्रतिनिधित्व की राह पर चल रही है। 2024 के चुनावों में समाजवादी पार्टी ने चार ब्राह्मण और एक भूमिहार प्रत्याशी को टिकट दिया, जिनमें से कुछ ने जीत दर्ज की। यह दिखाता है कि अखिलेश धीरे-धीरे सॉफ्ट हिंदुत्व और सामाजिक संतुलन की रणनीति अपना रहे हैं।

महिला और युवा वोटर्स : भविष्य की नींव

अखिलेश की राजनीति का एक बड़ा आयाम महिलाओं और युवाओं को आकर्षित करना भी रहा है। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने 1090 महिला हेल्पलाइन, कामधेनु योजना और लैपटॉप वितरण जैसी पहलें की थीं। आज भी उनकी छवि युवा और टेक-सेवी नेता की है।

सोशल मीडिया पर उनकी सक्रियता, त्वरित प्रतिक्रिया और मीम-संस्कृति के बीच उनकी सहज मौजूदगी ने युवाओं में उन्हें लोकप्रिय बनाया है। बुलडोज़र राजनीति के खिलाफ उन्होंने अनन्या यादव जैसे मामलों को उठाकर यह संदेश दिया कि वे सामाजिक न्याय और संवैधानिक मूल्यों के पक्षधर हैं।

गठबंधन की राजनीति और सतर्कता

अखिलेश ने कांग्रेस और छोटे दलों के साथ तालमेल बनाते हुए यह संतुलन साधा कि उनकी पार्टी का सेक्युलर चेहरा भी बना रहे और राजनीतिक आधार भी कमजोर न हो। 2024 के उपचुनावों में उन्होंने कांग्रेस को सीटें देने में सतर्कता बरती। वहीं छोटे-मझोले दलों और नेताओं, जैसे महेंद्र राजभर, को अपने साथ जोड़कर उन्होंने पूर्वांचल में अपनी पकड़ मजबूत की।

चुनौतियाँ और संभावनाएँ

हालाँकि, चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। कुछ मुस्लिम नेताओं ने उन पर आरोप लगाया है कि वे मुस्लिम समुदाय की वास्तविक समस्याओं को अनदेखा कर रहे हैं। साथ ही, बसपा और अन्य क्षेत्रीय दल लगातार उनके वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रहे हैं।

इसके बावजूद, अखिलेश यादव की राजनीति का केंद्र आज भी पीडीए फॉर्मूला ही है। गैर-यादव ओबीसी, दलित, मुस्लिम, ब्राह्मण, क्षत्रिय, महिला और युवा—इन सभी को जोड़कर वे एक व्यापक सामाजिक गठबंधन खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं।

2027 की राह

उत्तर प्रदेश की राजनीति में अखिलेश यादव ने 2024 के चुनावों से जो संदेश दिया है, वह साफ है—सिर्फ पारंपरिक वोट बैंक पर निर्भर रहकर सत्ता में वापसी संभव नहीं है। उन्होंने सामाजिक इंजीनियरिंग, डिजिटल राजनीति और गठबंधन की रणनीति को मिलाकर एक ऐसा खाका तैयार किया है, जो उन्हें 2027 के विधानसभा चुनावों में मजबूत दावेदार बनाता है।

अखिलेश की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वे विभिन्न समुदायों के बीच विश्वास बनाए रख पाते हैं या नहीं। यदि वे इस संतुलन को कायम रखते हैं, तो न केवल समाजवादी पार्टी, बल्कि उत्तर प्रदेश की राजनीति भी एक नए अध्याय की ओर बढ़ सकती है।