संजय सक्सेना
जब हुकूमत बदलती है तो संवैधानिक संस्थाओं का कामकाज का तरीका और नजरिया भी बदल जाता है। याद कीजिए मोदी सरकार के आने से पूर्व तक कैसे अयोध्या में रामलला के जन्म स्थान,वाराणसी के ज्ञानवापी मंदिर-मस्जिद और मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मभूमि विवाद को लटकाया जाता रहा था। कश्मीर से धारा 370 हटाये जाने पर खूब-खराबे की बात कही जाती थी। एक बार में तीन तलाक को शरिया की आड़ में सही ठहरा के लाखों मुस्लिम महिलाओं को एक झटके में घर से बेखर कर दिया जाता था और सरकारें तुष्टिकरण की सियासत और मुस्लिम वोट बैंक के चक्कर में उफ तक नहीं करती थीं। मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड शरिया की चादर ओढ़कर सरकार पर दबाव बनाने का काम करता था। हलाला के नाम पर महिलाओं का शारीरिक शोषण और मानसिक शोषण को एक परम्परा बना दिया गया था। मुस्लिम महिलाओं को पारिवारिक सम्पति में उनके हुकूक से महरूम रखा जाता था।बहु विवाह महिलाओं के लिये एक अभिशाप बन हुआ है। धर्म की आड़ में वक्फ बोर्ड जैसी संस्थाएं किसी की भी जमीन मकान पर अपना मालिकाना हक जता देते थे। 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने जब एक तलाकशुदा बुजुर्ग मुस्लिम महिला शाहबानो को उसके शौहर से चंद रुपये का मुआवजा देने का आदेश सुनाया तो राजीव गांधी सरकार ने इस फैसले को पलटने में देरी नहीं लगाई थी।
खैर, चालीस साल बाद अब एक बार फिर उसी सुप्रीम कोर्ट ने इतिहास को दोहराते हुए एक अहम फैसले में तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के गुजारे भत्ता लेने के हक की बात कही है। कोर्ट ने कहा कि मुस्लिम महिलाएं भी सीआरपीसी की धारा 125 के तहत पति से गुजारा भत्ता पाने की हकदार है। जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह की बेंच ने ये फैसला सुनाया है। दोनों जजों ने फैसला तो अलग-अलग सुनाया, लेकिन दोनों की राय एक ही थी। दोनों ने कहा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला भी गुजारा भत्ता पाने के लिए पति के खिलाफ सीआरपीसी की धारा 125 के तहत केस कर सकती हैं।सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला ठीक वैसा ही है, जैसा कि 23 अप्रैल 1985 में शाहबानो मामले में दिया गया था।
दरअसल, 1985 में इंदौर की एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला शाहबानो ने गुजारा भत्ता हासिल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो के पक्ष में फैसला सुनाते हुए उनके पति मोहम्मद अहमद खान को सीआरपीसी की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया।कट्टरपंथी मुस्लिमों ने इस फैसले को शरिया में दखलंदाजी करार देते हुए विरोध शुरू कर दिया। उस समय की मौजूदा राजीव गांधी सरकार जो मुस्लिम वोटों की बड़ी दावेदार थी,उसे जब लगा कि उसका मुस्लिम वोट बैंक इस फैसले से खिसक सकता है तो तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी कट्टरपंथियों के विरोध के आगे झुक गये और सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी बनाने के लिए मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) कानून, 1986 लाकर मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए कोर्ट के फैसले को पलट दिया।
राजीव गांधी सरकार द्वारा लाए गए मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण ) कानून, 1986 की संवैधानिक वैधता को 2001 में डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई थी। डेनियल लतीफी वकील थे। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में शाहबानो का प्रतिनिधित्व किया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में 1986 के कानून की व्याख्या इस तरह से की जिससे की अधिनियम में लागू की गई रोक एक तरह से अप्रभावी हो गई। अपने फैसले में कोर्ट ने कहा कि महिलाओं के अधिकार इद्दत की अवधि के आगे भी रहते हैं। कोर्ट के इस फैसले ने सुनिश्चित किया कि मुस्लिम महिलाओं को गरिमा के साथ अपना जीवन जीने के लिए उचित मदद मिले।
राजीव गांधी सरकार ने भले ही शाहबानों केस में मुआवजे के सुप्रीम कोर्ट के आदेश वाले फैसले को कानून बनाकर पलट दिया था,लेकिन मुस्लिम महिलाओं के हक की लड़ाई कभी थमी नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने 2009 में जोर देकर कहा था कि धर्म का पालन करने के अधिकार में दूसरों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने का अधिकार शामिल नहीं है। यह बात खास कर लैंगिक समानता के परिप्रेक्ष्य में कही गई थी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले में इस बात की पुष्टि की गई थी कि पर्सनल ला संवैधानिक अधिकारों के अनुरूप होने चाहिए। इसी प्रकार 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने शमीम बानो नाम असरफ खान मामले में कहा था कि मुस्लिम महिला तलाक के बाद भी अपने पति से गुजारा भत्ता पाने की हकदार है और मजिस्ट्रेट की अदालत के समक्ष इसके लिए आवेदन कर सकती है। फैसले में इस बात पर जोर दिया गया था कि मुस्लिम पति की जिम्मेदारी हैं कि वह तलाकशुदा पत्नी के भविष्य के लिए गुजारा भत्ता सहित उचित व्यवस्था करें और यह बात इद्दत की अवधि से आगे के लिए भी लागू होती है। इस कड़ी में 2017 में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को भी नहीं भुलाया जा सकता है।जब सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को असंवैधानिक और अवैध करार दे दिया था। कोर्ट ने कहा कि तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।
कुल मिलाकर 10 जुलाई 2024 को सुप्रीम कोर्ट का अपने अहम फैसले में मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता देने का आदेश व्यापक प्रभाव वाला है। तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं भी पति से भरण-पोषण यानी गुजारा भत्ता पाने की हकदार हों इसमें कोई बुराई भी नहीं हैं। ऐसे फैसलों पर धर्म के नाम पर कतई विवाद नहीं होना चाहिए।लम्बे समय से तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं हक से महरूम थीं।संभवता अब उन्हें न्याय मिल पाये। क्योंकि इस फैसले के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट ने राजीव गांधी सरकार की ओर से उठाए गए एक गलत कदम का प्रतिकार करने के साथ ही मुस्लिम महिलाओं को न्याय देने का काम किया है। एक तरह से इस निर्णय के जरिये सुप्रीम कोर्ट ने यह साबित कर दिया है कि 1985 उसकी पूर्ववर्ती बेंच के द्वारा शाहबानो मामले में दिया गया फैसला सर्वथा उचित एवं संविधान सम्मत था भले ही राजीव गांधी सरकार ने उसे पलट दिया था। 1986 में कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों के दबाव में आकर उनके मन मुताबिक और शरिया के अनुकूल मुस्लिम महिला अधिनियम बनाया था। इस अधिनियम का एकमात्र उद्देश्य मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन करना था।
चालीस सालों में हालात काफी बदल चुके हैं। तब कांग्रेस पावरफुल हुआ करती थी उसकी जगह बीजेपी ने ले ली है।सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह अधिनियम किसी पंथनिरपेक्ष कानून पर हावी नहीं होगा और तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं गुजारा भत्ता के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत याचिका दायर कर सकती हैं। तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला केवल यही आकर नहीं रुका,इसके आगे भी कोर्ट ने कहा कि अलग-अलग समुदाय की महिलाओं को भिन्न-भिन्न कानूनों से संचालित नहीं किया जा सकता, बल्कि इस फैसले के साथ कोर्ट ने समान नागरिक संहिता की आवश्यकता भी जताई है। इसी के साथ ही सुप्रीम कोर्ट यह भी संदेश दिया है कि देश के लोग संविधान से चलेंगे, न कि अपने पर्सनल कानूनों से, वे चाहे जिस पंथ-मजहब के हों। इसका कोई औचित्य नहीं कि देश में अलग-अलग समुदायों के लिए तलाक, गुजारा भत्ता, उत्तराधिकार, गोद लेने आदि के नियम-कानून इस आधार पर हों कि उनका उनका पंथ-मजहब क्या है?
सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुना दिया है,इस फैसले को राजनीतिक दल किस तरह से लेते हैं,यह देखने वाली बात होगी।हाॅ इतना तय है कि बीजेपी इसके पक्ष में खड़ी नजर आयेगी।वहीं विपक्ष से यह अपेक्षा अनुचित नहीं कि उनके नेता सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की प्रशंसा करने के लिए आगे आयेगें, जो पिछले कुछ समय से संसद के भीतर-बाहर संविधान की प्रतियां लहराकर यह दावा करने में लगे हुए थे कि उन्होंने संविधान की रक्षा की है और वे उसे बचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। यदि संविधान के प्रति उनकी प्रतिबद्धता सच्ची है तो उन्हें इस फैसले का स्वागत करना ही होगा।वर्ना संविधान बचाने का उसका दावा सियासी ही समझा जायेगा। उधर, इसकी भी पूरी आशंका है कि इस फैसले से कुछ मुस्लिम संगठन असहमति जताने के साथ उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दें।दो सदस्यीय सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ और बड़ी बैंच बनाये जाने की भी मांग उठ सकती है, लेकिन इस मुद्दे पर कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों को मोदी सरकार से कोई अपेक्षा नहीं होगी। हो सकता है कि जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता की भी बात कही है उसी को आधार बना कर मोदी सरकार समान नागरिक संहिता लागू करने के अपने वादे को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ जाये। ऐसा इसलिये भी हो सकता है क्योंकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी इस समय मोदी सरकार पर समान नागरिक संहिता,जनसंख्या नियंत्रण कानून के लिये दबाव बना रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने चार दशक के बाद जिस तरह से अपने 1985 के आदेश को जीवंत किया है,उसका नुकसान कांगे्रस को भी उठाना पड़ सकता है। क्योंकि जब शाहबानों को गुजारा भत्ता नहीं दिये जाने की बात चलेगी तो राजीव गांधी सरकार का भी नाम आयेगा,जिन्होंने मुस्लिम महिलाओं को लम्बे समय तक गुजारा भत्ता देने से महरूम रखा था।