सभी राजनीतिक दल भेड़ चाल में चल रहे हैं

All political parties are following the herd

अरुण कुमार चौबे

दिल्ली विधानसभा चुनाव के राजनीतिक घोषणा पत्रों में मुफ्त घोषणाओं की बाढ़ आ गई है, लगभग सभी राजनीतिक दल मुफ्त की रेवड़ी बांट कर चुनाव जीतना चाहते हैं। श्री अरविंद केजरीवाल जब पूर्ण बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने स्वास्थ्य,शिक्षा और सिटी बसों में में मुफ्त और रियायती सुविधाएं प्रदान की थीं और सरकारी स्कूलों को प्राइवेट स्कूलों की तरह सर्व सुविधायुक्त बनाया था।वहीं सरकारी अस्पतालों में भी स्वास्थ्य सुविधाओं को विश्वसनीय और सुविधाजनक बनाया। सिटी बसों में रियायती/मुफ्त बस यात्रा की सुविधा प्रदान की तब तक भाजपा और कांग्रेस ने इस प्रकार कोई भी ऐसा सुविधाजनक कार्य नहीं किया था जो आमजनों के लिए सुविधाजनक हो सके।

श्री अरविंद केजरीवाल ने एक पत्रकार वार्ता में बताया था कि हमारी सरकार में भ्रष्टाचार नहीं है,सरकार के पास पर्याप्त धन है मुफ्त और रियायती सुविधाएं देने सरकार पर किसी भी प्रकार का बोझ नहीं है।

इसके बाद दूसरे राजनीतिक दलों ने देखा कि मुफ्त सुविधाएं देकर आम आदमी पार्टी की सरकार दो बार भारी बहुमत से विधानसभा चुनाव जीत चुकी है तो मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार को यह चुनाव जीतने का नुस्खा पसंद आया और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे श्री शिवराज सिंह चौहान ने लाडली लक्ष्मी योजना देकर महिलाओं के बीच अपनी लोकप्रियता बनाई और 2023 का मध्यप्रदेश की।विधानसभा का चुनाव जीता तथा इसी के दम पर मध्यप्रदेश की सभी 29 लोकसभा सीटें भाजपा ने फतह की, इसके बाद झारखंड,महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल ने महिलाओं के लिए मुफ्त घोषणाओं का पिटारा खोल दिया और विधानसभा के चुनावों में जीत दर्ज की।

राजनीतिक दलों ने समझ लिया है कि जिस तरह परीक्षा से दो चार दिन पहले रट कर परीक्षा पास करना आसान है,ठीक उसी प्रकार से मुफ्त की रेवड़ियां बांट कर चुनाव जीतना भी आसान है। कांग्रेस और भाजपा ने भी मुफ्त घोषणाओं की झड़ी लगा दी है। इन राजनीतिक दलों को यह पता नहीं है कि इस मुफ्तखोरी के लालच को पूरा करने के लिए धन कहां से आएगा।

नेता और राजनीतिक दल बेफिक्र होकर मुफ्तखोरी के लालच की घोषणाएं इसलिए करते रहते हैं कि मुफ्तखोरी के लालच का धन नेताओं की जेब या निजी धन संपत्ति से जाना ही नहीं है न ही किसी भी राजनीतिक दल के कोष से यह धन जाना है। इसका सीधा भार सरकारी खजाने पर पड़ता है जिसका बोझ देश के वो नागरिक ढ़ोते हैं जो ईमानदारी से आयकर दे रहे हैं, जी एस टी दे रहे हैं,संपत्ति कर दे रहे हैं पेट्रोल डीजल और रसोई ईंधन आदि की भारी कीमत चुका रहे हैं उन पर यह भारी बोझ आर्थिक तौर पर पड़ता है। राजनीतिक दलों और नेताओं की देश और नागरिकों के प्रति कोई जवाबदारी नहीं है वो आम जनता के धन से ऐश करते हैं।

संसद और राज्यों की विधानसभा के सत्रों में हो हल्ला करके सत्र अनिश्चित काल के लिए स्थगित करके मजे करते हैं। सरकारी बंगला, गाड़ी, रियायती रेल और हवाई यात्रा विदेशों के दौरे आम नागरिकों के द्वारा चुकाएं गए धन के दम पर ही करते हैं। संविधान कहता है कि देश नागरिकों का असल में देश की सत्ता राजनीतिक दलों और नेताओं की।निजी जागीर बन गई है।
राजनीतिक दलों ने भांप लिया है मुफ्त घोषणाओं और सस्ती लोकप्रियता के नाम पर चुनाव के समय आम जनता का ध्यान भटकाना आसान है,मतदाता जिसे राजनीतिक दल अपना निजी वोट बैंक मानते हैं वो मुफ्त के रेवड़ियां मिलते है सरकार नेताओं और राजनीतिक दलों के द्वारा किए कराए सारे पाप भूल जाता है और भ्रष्ट आचरण को भारी बहुमत से जिता देता है,यही चुनावी खेल है।

चुनाव आयोग को भी यह साफ दिखाई देता है,चुनाव आयोग भी अब निष्पक्ष नहीं है वह भी सत्ता और राजनीतिक हस्तक्षेप का गुलाम बन चुका है।

चुनाव आयोग चाह कर भी कोई ऐसा सख्त कदम नहीं उठा सकता है जो मुफ्त की घोषणाओं पर नकेल कस
सके। होना तो यह चाहिए कि कोई भी राजनीतिक दल यदि वोट बटोरने की खातिर मुफ्तखोरी की घोषणा करता है तो उस राजनीतिक दल के बैंक खाते और नगद खजाना न्यायालय को राजसात कर लेना चाहिए और जिस नेता ने कोई भी मुफ्त घोषणा की है उसकी पूर्ति उसकी चल अचल संपत्ति और निजी कोष से की जाना चाहिए।

यदि मुफ्त घोषणाओं के दम पर कोई भी राजनीतिक दल चुनाव जीतता है उसकी वसूली नेता के मिलने वाले वेतन भत्तों से की जाना चाहिए।

जिस भी राजनीतिक दल को सत्ता मिलती है उस राजनीतिक दल के नेता भ्रष्टाचार से इतना धन कमा लेते हैं कि उनके आगे कुबेर भी गरीब ही निरूपित होता है, नेता यदि अपने निजी खजाने से भी मुफ्त घोषणाओं की पूर्ति कर भी दें तो उनके खजाने पर कोई भी अंतर नहीं पड़ेगा।

चाहे राष्ट्रपति हो,राज्यपाल हों या सदन के अध्यक्ष हो ये निष्पक्ष नहीं हैं बल्कि सत्ता के मानसिक दबाव में काम करते हैं,उसी प्रकार से चुनाव आयोग भी निष्पक्ष नहीं है उसे सत्ता के सुर में ही अपना सुर मिलाना पड़ता है।

टी एन शोषण के युग की कल्पना करना दिवास्वप्न है।

वहीं राज्य सरकारों के जो अधिकारी और कर्मचारी चुनाव मतदान प्रक्रिया संपन्न कराते हैं उन्हें भी राज्य सरकार और बूथ पर तैनात दबंगों के दबाव में चुनाव प्रक्रिया कराना होती है।

राजनीतिक दृष्टिकोण से शांतिपूर्ण मतदान वही है जिसमें मतदाता बूथों पर कब्जे होते हों दो चार की हत्या हो जाए और गंभीर रूप से लोग घायल हो जाएं मतदान स्थलों पर हिंसा भड़के झगड़े हों तो इसे ही राजनीतिक दल शांतिपूर्ण मतदान मानते हैं। इससे राजनीतिक दलों की आत्मा को शांति मिलती है।

इस समय जो मुफ्त घोषणाओं की भेड़ चाल में राजनीतिक दल मतदाताओं को भ्रमित कर रहे हैं उससे किसी का भी भला होने वाला नहीं है।

कर्मचारियों को आठवें वेतन आयोग का इजाफा दिया जा रहा वो भी वोट कबाड़ने का सस्ता तरीका है ताकि चाहे जो सरकारी मातहत सत्ता के पक्ष में बने रहें।

मीडिया भी डरा सहमा है दिन को रात और रात को दिन कहते नहीं थकता है, राजनीतिक मानसिक दबाव के वशीभूत होकर वही कहता और करता है जो सत्ता के पक्ष में हो यह सही है कि “सचिव, वैद्य,गुरु, जौ प्रिय बोलहीं भय आस,राज धर्म तन तीनी कर होई बैंगीही नास।। परन्तु राजनीतिक दल सत्ता के लालच में राम राम तो कहते हैं परन्तु रामचरित मानस की नीति को ताक पर रख देते हैं।

किस राजनीतिक दल की मुफ्त रेवड़ी का मीठा स्वाद जनता की जुबां पर चढ़ा है यह 8 फरवरी को आने वाले चुनाव परिणामों के दिन पता चलेगा।

चुनाव आयोग को किसी भी राजनीतिक दल के मानसिक दबाव में आए बगैर मुफ्त की घोषणाओं पर सख्त रोक लगाने का प्रावधान करना चाहिए।

जो राजनीतिक दल रास्तों से कारवां तक और इस जमीं से आसमा तक सत्ता सम्हाले हैं, उन्हें भी अपनी ही लोकप्रियता पर भरोसा नहीं है इसलिए वो भी मुफ्तखोरी की चुनावी घोषणाओं की भेंड़चाल में सबसे आगे चल रहे हैं।