डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ज्ञानवापी की मस्जिद की हर गुंबद के नीचे कुछ न कुछ ऐसे प्रमाण मिल रहे हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि वह अच्छा-खासा मंदिर था। यही बात मथुरा के श्रीकृष्ण जन्म स्थान पर लागू हो रही है। छोटी और बड़ी अदालतों में मुकदमों पर मुकदमे ठोक दिए गए हैं। अदालतें क्या करेंगी? वे क्या फैसला देंगी? क्या वे यह कहेंगी कि इन मस्जिदों को तोड़कर इनकी जगह फिर से मंदिर खड़े कर दो? फिलहाल तो वे ऐसा नहीं कह सकतीं, क्योंकि 1991 में नरसिंहराव सरकार के दौरान बना कानून साफ-साफ कहता है कि धर्म-स्थलों की जो स्थिति 15 अगस्त 1947 को थी, वह अब भी जस की तस बनी रहेगी। जब तक यह कानून बदला नहीं जाता, अदालत कोई फैसला कैसे करेगी? अब सवाल यह है कि क्या नरेंद्र मोदी सरकार इस कानून को बदलेगी? वह चाहे तो इसे बदल सकती है। उसके पास संसद में स्पष्ट बहुमत है। देश के कई अन्य दल भी उसका साथ देने को तैयार हो जाएंगे। इसीलिए तैयार हो जाएंगे कि सभी दल बहुसंख्यक हिंदुओं के वोटों पर लार टपकाए रहते हैं। संप्रदायवाद की पकड़ भारत में इतनी जबर्दस्त है कि वह जातिवाद और वर्ग चेतना को भी परास्त कर देती है। यदि ऐसा हो जाता है और धर्म-स्थलों के बारे में नया कानून आ जाता है तो फिर क्या होगा? फिर अयोध्या, काशी और मथुरा ही नहीं, देश के हजारों पूजा स्थल आधुनिक युद्ध-स्थलों में बदल जाएंगे। कुछ लोगों का दावा है कि भारत में लगभग 40,000 मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनाई गई हैं। देश के कोने-कोने में कोहराम मच जाएगा। हर वैसी मस्जिद को बचाने में मुसलमान जुट पड़ेंगे और उसे ढहाने में हिंदू डट पड़ेंगे। तब क्या होगा? तब शायद 1947 से भी बुरी स्थिति पैदा हो सकती है। सारे देश में खून की नदियां बह सकती हैं। तब देश की जमीन के सिर्फ दो टुकड़े हुए थे, अब देश के दिल के सौ टुकड़े हो जाएंगे। उस हालत में अल्लाह और ईश्वर दोनों बड़े निकम्मे साबित हो जाएंगे, क्योंकि जिस मस्जिद और मंदिर को उनका घर कहा जाता है, वे उन्हें ढहते हुए देखते रह जाएंगे। उनका सर्वशक्तिमान होना झूठा साबित होगा। अगर वे मंदिर और मस्जिद में सीमित हैं तो वे सर्वव्यापक कैसे हुए? उनके भक्त उनके घरों के लिए आपस में तलवारें भांजें और उन्हें पता ही न चले तो वे सर्वज्ञ कैसे हुए? मंदिर और मस्जिद के इन विवादों को ईश्वर या अल्लाह और धर्म या भक्ति से कुछ लेना-देना नहीं है। ये शुद्ध रूप से सत्ता के खेल हैं। सत्ता जब अपना खेल खेलती है तो वह किस-किस को अपना गधा नहीं बनाती है? वह धर्म, जाति, वर्ण, भाषा, देश— जो भी उसके चंगुल में फंस जाए, वह उसी की सवारी करने लगती है। इसीलिए शंकराचार्य के कथन ‘ब्रह्मसत्यम् जगन्मिथ्या’ को मैं पलटकर कहता हूं, ‘सत्तासत्यम् ईश्वरमिथ्या’।