
ललित गर्ग
मस्तिष्क और स्मृति की उपेक्षा से बढ़ रहा स्मृति लोप का रोग दुनिया की एक बड़ी गंभीर समस्या हैं। याददाश्त हर उम्र के व्यक्ति के लिए सबसे बड़ी पूंजी है। तेज़-तर्रार और तनावग्रस्त जीवन ने शरीर और आत्मा दोनों को उपेक्षित कर दिया है। अल्ज़ाइमर की चुनौती हमें याद दिलाती है कि स्वस्थ मस्तिष्क ही स्वस्थ जीवन और स्वस्थ समाज का आधार है। मनुष्य अपनी स्मृति से ही मनुष्य है; जब यादें खोने लगती हैं तो पहचान भी धुंधला जाती है। स्मृति का हृास केवल व्यक्ति की कमजोरी नहीं, बल्कि उसकी अस्तित्वगत पहचान के मिट जाने की त्रासदी है। इस बढ़ते रोग की भयानकता के कारण ही 21 सितम्बर को पूरी दुनिया विश्व अल्ज़ाइमर दिवस मनाती है। यह केवल एक स्वास्थ्य-समस्या की याद नहीं दिलाता, बल्कि यह चेतावनी भी है कि आधुनिक जीवनशैली, मानसिक दबाव और बदलते सामाजिक ढाँचे ने हमारे मस्तिष्क को असमय थका दिया है।
आज दुनिया में पाँच करोड़ से अधिक लोग डिमेंशिया से पीड़ित हैं और इनमें सबसे बड़ी हिस्सेदारी अल्ज़ाइमर रोगियों की है। अल्जाइमर दिमाग की एक बीमारी है जिसमें इंसान धीरे-धीरे बातों को भूलने लगता है। शुरुआत में छोटी-छोटी बातें भूलती हैं जैसे किसी का नाम, चीज कहां रखी थी या हाल की घटना। लेकिन समय के साथ यह भूलना इतना बढ़ जाता है कि व्यक्ति को अपने परिवार के लोग, जगह या रोज के काम भी याद नहीं रहते। विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि 2050 तक यह संख्या तीन गुना तक पहुँच सकती है। हर तीन सेकंड में दुनिया के किसी न किसी कोने में एक नया डिमेंशिया रोगी जुड़ जाता है। दुनिया में, 2025 तक 55 मिलियन (5.5 करोड़) से अधिक लोग मनोभ्रंश (डिमेंशिया) से पीड़ित हैं, और 2050 तक यह संख्या बढ़कर 139 मिलियन (13.9 करोड़) तक पहुंचने का अनुमान है, जिसमें अल्जाइमर रोग इसका सबसे आम रूप है। भारत में, 2023 के एक अध्ययन के अनुसार 9 मिलियन (90 लाख) से अधिक बुजुर्ग मनोभ्रंश से जूझ रहे हैं, और यह संख्या 2036 तक बढ़कर लगभग 17 मिलियन (1.7 करोड़) हो जाने का अनुमान है। आंकड़ों के अनुसार, यह समस्या महिलाओं को अधिक होती है। एम्स और निम्हैंस जैसी संस्थाएं इसकी शुरूआती पहचान और रिसर्च पर काम कर रही है। बुजुर्गों के साथ-साथ युवाओं में इस रोग का बढ़ना ज्यादा चिन्ताजनक है।
अल्जाइमर के बढ़ने के कारणों में मुख्य रूप से बढ़ती उम्र, आनुवंशिकी (कुछ जीन) और मस्तिष्क में असामान्य प्रोटीन जमाव शामिल हैं। इसके अलावा, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, मोटापा और धूम्रपान जैसे जीवनशैली संबंधी कारक, और हृदय संबंधी समस्याएँ भी अल्जाइमर के जोखिम को बढ़ा सकती हैं। शोध बताते हैं कि लगातार मोबाइल इस्तेमाल करने वालों में 35 प्रतिशत तक याददाश्त और एकाग्रता कम हो सकती है। लंदन यूनिवर्सिटी ने पाया कि मोबाइल पास होने मात्र से 10 प्रतिशत तक स्मृति घट जाती है। आईएएमएआई की रिपोर्ट बताती है कि भारत में 60 करोड़ स्मार्ट फोन इस्तेमाल करने वाले हर रोज औसतन 4.9 घंटे मोबाइल पर रहते हैं। एम्स के मुताबिक, युवाओं में डिजिटल डिमेंशिया जैसे लक्षण बढ़ रहे हैं। इस रोग की सबसे भयावह सच्चाई यह है कि यह केवल रोगी को नहीं, बल्कि उसके पूरे परिवार को प्रभावित करता है। स्मृति का खो जाना, निर्णय लेने की क्षमता का क्षीण हो जाना, बार-बार वही प्रश्न पूछना, भाषा और व्यवहार में असामान्यता आना और अंततः अपनी पहचान तक खो बैठना-यह सब न केवल रोगी बल्कि उसके आसपास के लोगों के लिए भी असहनीय स्थिति बन जाती है।
अल्ज़ाइमर का सीधा संबंध मस्तिष्क की कोशिकाओं से है। यह एक प्रगतिशील रोग है जिसमें मस्तिष्क की कोशिकाएँ धीरे-धीरे नष्ट होने लगती हैं। उम्र बढ़ने के साथ इसका खतरा अधिक हो जाता है, लेकिन केवल यही कारण नहीं है। असंतुलित जीवनशैली, तनाव, नींद की कमी, मानसिक निष्क्रियता, नशे की आदतें और अस्वास्थ्यकर आहार भी इसके बड़े कारण हैं। धीरे-धीरे मनुष्य की सोचने-समझने की शक्ति कम होने लगती है और उसका व्यक्तित्व बदल जाता है। यह रोग न केवल चिकित्सा की दृष्टि से, बल्कि सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से भी गहरी चुनौती है। रोगी की देखभाल पर आने वाला खर्च कई बार परिवार की आर्थिक रीढ़ तोड़ देता है। परिवार के सदस्यों के लिए यह लगातार तनाव और थकान का कारण बनता है। कई बार यह रोग परिवारों में दूरी और टूटन का भी कारण बन जाता है। एक ओर बढ़ती वृद्धावस्था, दूसरी ओर उपेक्षा और अकेलेपन का संकट-ये सभी मिलकर स्थिति को और भी विकट बना देते हैं।
अल्जाइमर दिमाग से जुड़ी एक गंभीर बीमारी है, जिसमें दिमाग की कोशिकाएं नष्ट होने लगती हैं। इससे याददाश्त बुरी तरह प्रभावित होती है। व्यक्ति के व्यवहार और जीवन पर असर पड़ने लगता है। वह धीरे-धीरे सब कुछ भूल जाता है। प्रारंभिक चरण में स्मृति हल्की, लेकिन ध्यान देने योग्य होती है। लोग हाल ही में घटित घटनाओं या परिचित नामों को भूल सकते हैं। मध्यम अवस्था में संज्ञानात्मक गिरावट अधिक सपष्ट हो जाती है। रोगी को समस्या-समाधान करने, बोलने या नियमित काम करने में समस्या हो सकती है। निगलने में कठिनाई और फेफड़ों में संक्रमण जैसी जटिलताएं सामने आती हैं। उन्नत अवस्था में रोगी बात करने में असमर्थ हो सकते हैं। उन्हें हर समय देखभाल करने की जरूरत हो सकती है। वे खाने व चलने जैसे बुनियादी काम नहीं कर पाते। वे बार-बार गिर सकते हैं, जिसमें उन्हें चोट लग सकती है।
दुर्भाग्य यह है कि अल्ज़ाइमर का आज तक कोई पूर्ण उपचार उपलब्ध नहीं है। अमेरिका में हाल में कुछ दवाओं को शुरूआती स्तर पर अल्जाइमर की प्रगति धीमी करने के लिए मंजूरी मिली है। ये दवाएं दिमाग में एमीलॉइड प्लेक्स कम करने पर काम करती हैं, जिन्हें समस्या का मुख्य कारण माना जाता है। संभावना है जल्दी ही देश में भी ये दवाएं मिलने लगेंगी। दवाइयाँ केवल इसकी गति को कुछ समय के लिए धीमा कर सकती हैं। ऐसे में रोकथाम के लिये संकल्प, प्राकृतिक उपचार, मनोबल ही सबसे बड़ी दवा है। नियमित व्यायाम, संतुलित आहार, पर्याप्त नींद, योग और ध्यान जैसे अभ्यास, मानसिक सक्रियता बनाए रखना, नई-नई चीजें सीखना, किताबें पढ़ना और सामाजिक जुड़ाव बनाए रखना-ये सब मस्तिष्क को सक्रिय और स्वस्थ बनाए रखने के महत्वपूर्ण साधन हैं। जीवनशैली में थोड़े-से परिवर्तन अपनाकर इस रोग को देर तक टाला जा सकता है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि अल्ज़ाइमर से पीड़ित लोगों को सबसे अधिक आवश्यकता हमारी करुणा और सहानुभूति की होती है। यह केवल चिकित्सा की नहीं, बल्कि संवेदना की भी चुनौती है। हमें रोगियों को बोझ न समझकर उनके आत्मसम्मान को बनाए रखना चाहिए। उनके प्रति धैर्य, प्रेम और संवेदनशीलता का व्यवहार ही उन्हें कुछ हद तक संबल दे सकता है। इस बीमारी के बारे में जागरूकता बढ़ाने और रोगियों में कलंक एवं हीनता के भाव को कम करने के लिए ही विश्व अल्जाइमर दिवस मनाया जाता है। विश्व अल्ज़ाइमर दिवस की थीम हर साल बदलती है ताकि डिमेंशिया देखभाल और जागरूकता के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान केंद्रित किया जा सके। 2025 की थीम है ‘डिमेंशिया के बारे में पूछें, अल्ज़ाइमर के बारे में पूछें’, जिसका उद्देश्य अल्ज़ाइमर रोग और डिमेंशिया के बारे में वैश्विक जागरूकता बढ़ाना, खुले संवाद को प्रोत्साहित करना और समय पर निदान को बढ़ावा देना है। ये थीम दुनिया भर में जागरूकता अभियानों का मार्गदर्शन करती हैं, तथा हमें याद दिलाती हैं कि अल्जाइमर केवल एक स्वास्थ्य समस्या नहीं है, बल्कि एक सामाजिक चुनौती भी है, जिसके लिए करुणा, चिकित्सा सहायता और मजबूत नीतियों की आवश्यकता है, जो इस रोग के बारे में बेहतर समझ और रोगियों को मजबूत इच्छाशक्ति बनाने में मदद कर सकती है।