डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत की जीवन पद्धति और पश्चिमी देशों की जीवन पद्धति में कितना अंतर है। भारत में हालांकि वर्णाश्रण धर्म का आजकल लोग नाम भी नहीं जानते लेकिन सदियों से इस आर्य जीवन पद्धति का इतना गहरा प्रभाव रहा हैं कि भारत ही नहीं, सारे दक्षिण और मध्य एशिया में इसका पालन होता रहता है। अमेरिका में हुए एक ताजा सर्वेक्षण से पता चला है कि वहां के ज्यादातर युवा शादी करना ही नहीं चाहते। 57 प्रतिशत युवक अकेले रहना ही पसंद करते हैं याने वे गृहस्थ आश्रम में प्रवेश नहीं करना चाहते। भारत में ऐसे लोग बहुत कम होते हैं। एक-दो प्रतिशत भी नहीं लेकिन जो लोग अमेरिका में गृहस्थ नहीं बनना चाहते, वे क्या ब्रह्मचारी बने रहना चाहते हैं? वे क्या ब्रह्मचर्य आश्रम में ही टिके रहना चाहते हैं? यह सवाल ही उनके लिए असंगत है, क्योंकि ब्रह्मचर्य जैसी परंपरा की वहां कोई कीमत ही नहीं है, हालांकि केथोलिक ईसाइयों में सेलिबेसी (ब्रह्मचर्य) का पालन काफी दृढ़ता के साथ किया जाता है। अमेरिका की पूंजीवादी और सोवियत रूस की साम्यवादी व्यवस्थाओं ने मनुष्य के बाहरी जीवन को तो संपन्न बनाने में कोई कसर उठा नही रखी थी लेकिन उसका आंतरिक जीवन दोनों व्यवस्थाओं में खोखला होता गया। अब से लगभग 50-55 साल पहले मुझे मास्को और न्यूयार्क के विश्वविद्यालयों में पढ़ने का और वहां रहने का मौका मिला था। मैं यह देखकर दंग रह जाता था कि वहां हर दूसरा या तीसरा आदमी या औरत तलाकशुदा होते थे और उनमें से कई मुझे यह भी कह देते थे कि यह हमारी दूसरी या तीसरी शादी है। शादीशुदा लोग तब भी काफी होते थे लेकिन अब अमेरिका में 63 प्रतिशत युवकों ने, जिनकी उम्र 30 साल तक है, बताया कि वे अकेले हैं। 34 प्रतिशत महिलाएं भी अकेली ही हैं। यह आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। इसका नतीजा क्या है? अमेरिका को व्यभिचार और बलात्कार ने तंग करके रख दिया है। इन मामलों में फंसनेवाले लोगों की संख्या उसकी जेलों में सबसे ज्यादा है। जो लोग पकड़े नहीं जाते, उनकी संख्या पकड़े जानेवाले लोगों से ज्यादा होती है। वे समाज में तनाव और अविश्वास बढ़ा देते हैं। जो लोग शादी नहीं करते, वे लोग प्रायः मुक्त यौन-संबंधों की जुगाड़ में रहते हैं और जो शादीशुदा हैं, वे भी खुले-आम या चोरी-छिपे स्वछन्द यौन जीवन बिताने की कोशिश करते हैं। ऐसा नहीं है कि हमारे दक्षिण और मध्य एशिया के देशों में सभी गृहस्थ सदाचारी होते हैं। अपवाद तो यहां भी मिलते ही हैं लेकिन उनकी संख्या नगण्य होती है और उन-जैसे लोगों पर अक्सर समाज के निगाह टेढ़ी ही बनी रहती है। अमेरिका और यूरोप में रहनेवाले भारतीय मूल के लोगों में अब भी सद्गृहस्थ की परंपरा जीवित है लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था ने विवाह जैसी पवित्र परंपरा को भी उपभोक्तावाद का शिकार बना दिया है।