
प्रमोद भार्गव
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ऊल-जलूल टैरिफ संबंधी घोषणाएं करके भारत पर बेवजह दबाव बनाने में लगे हैं। उन्होंने 1 अगस्त से भारत पर 25 प्रतिशत टैरिफ लगाने का एकतरफा निर्णय ले लिया है। यही नहीं ट्रंप ने रूस से सैन्य उपकरण और कच्चा तेल खरीदने की वजह से अतिरिक्त जुर्माना लगाने की बात भी कही है। यह टैरिफ देशी भारतीय दुग्ध एवं कृषि उत्पाद हड़पने की दृश्टि से भी लगाया गया है। जिससे भारत दबाव में आकर इन उत्पादों के लिए भारतीय बाजार खोल दे। लेकिन भारत भलि-भांति जानता है कि अमेरिका के सस्ते अनाज,पसु चारा और मांसाहारी चीज (पनीर) के लिए भारतीय बाजार खोल दिया जाता है तो किसान तो तबाह होगा ही शाकाहारी संस्कृति को भी पलीता लगेगा। साथ ही भारत सरकार जिन प्राथमिक कृषि सहकारी समितियों (पैक्स) को बढ़ावा देकर कृषि और दूध उत्पादों को वैश्विक बाजार में लाने की पृश्ठभूमि तैयार कर रही है, वह विचार भी चकनाचूर हो जाएगा। इसलिए सरकार ने साफ कह दिया है कि इन क्षेत्रों में बाहरी हस्तक्षेप स्वीकार नहीं है। वैसे भी अब यह सच्चाई सामने आ रही है कि एकतरफा वैश्वीकरण से दुनिया का भला होने वाला नहीं है। अतएव स्वदेशी उत्पादों के जरिए ही आत्मनिर्भर बने रहने की पहल जारी रखनी होगी। भारत इस दिशा में मजबूती से बढ़ भी रहा है। इसलिए ट्रंप जैसे वाचाल और सनकी शासक की परवाह करने की जरूरत नहीं है।
भारत में गाय को माता यूं ही नहीं कहा जाता है। वे भारतीय ऋषि ही थे, जिन्होंने सबसे पहले जाना था कि गाय के दूध में ऐसे पोषक तत्व हैं, जो शरीर और दिमाग दोनों को ही स्वस्थ रखते हैं। यह दूध ही है, जिससे दही, मठा, मक्खन और घी जैसे सह-उत्पाद निकलते हैं। ये उत्पाद मिठाई की दुकानों से लेकर डेयरी उद्योग के जरिए करोड़ों लोगों के रोजगार का मजबूत मध्ययम बने हुए हैं। लंबे समय तक गाय से पैदा बैल पर ही भारतीय कृषि निर्भर रही है। इसी कृषि की जीडीपी में 24 प्रतिशत की भागीदारी है। भारतीय दुग्ध उत्पादन से लेकर दूध पीने में दुनिया में पहले स्थान पर हैं। इसी दूध पर अमेरिकी बाजार के कब्जे के लिए अमेरिका अपने यहां उत्पादित मांसाहारी दुग्ध उत्पाद और पशु चारा बेचना चाहता है। अन्य यूरोपीय देशों की निगाह भी इस दूध के व्यापार पर भी टिकी हैं। इस बाबत अमेरिका और भारत के बीच 500 बिलियन डॉलर के व्यापार समझौते पर बातचीत चल रही है। इसी समझौते की सूची में अमेरिकन मांसाहारी दूध के उत्पाद शामिल हैं। भारत सरकार ने इस बाबत दो टूक कह दिया है कि अमेरिकी दुग्ध उत्पादों और पशु चारे को भारतीय बाजार का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता है। यह हमारे दुग्ध उत्पादक किसानों की आजीविका और उनकी संस्कृति की सुरक्षा से जुड़ा बड़ा प्रश्न है, जो स्वीकार योग्य नहीं है।
दरअसल अमेरिका मांसयुक्तचीज (पनीर)और पनीर भारत में बेचने का इच्छुक है। इस चीज को बनाने की प्रक्रिया में बछड़े की आंत से बने एक पदार्थ का इस्तेमाल होता है। अत्यंत घिनौना कृत्य करके इसे चीज में मिलाया जाता है। शाकाहारी लोग इस प्रक्रिया को देख भी नहीं सकते हैं। इसलिए भारत के शाकाहारियों के लिए यह पनीर वर्जित है। गौ-सेवक व गऊ को मां मानने वाला भारतीय समाज इसे स्वीकार नहीं करता। अमेरिका में गायों को मांसयुक्त चारा खिलाया जाता है, जिससे वे ज्यादा दूध दें। हमारे यहां गाय-भैंसें भले ही कूड़े-कचरे में मुंह मारती फिरती हों, लेकिन दुधारू पशुओं को मांस खिलाने की बात कोई सपने में भी नहीं सोच सकता ? लिहाजा अमेरिका को चीज बेचने की इजाजत नहीं मिल पा रही है।
भारत में 13 जनवरी 1970 को फ्लड ऑपरेशन के साथ दूध का उत्पादन शुरू हुआ था। इसे ही श्वेत क्रांति का नाम दिया गया। यह केवल भारत में ही नहीं विश्व में सबसे बड़े ग्रामीण कार्यक्रमों में से एक है। इसी की बदौलत भारतीय डेयरी उद्योग का चेहरा बदला और लाखों दुग्ध उत्पादक किसानों की आर्थिकी में क्रांतिकारी बदलाव आया। दरअसल फिरंगी हुकूमत के दौरान पॉल्सन नाम की ब्रिटिश कंपनी का इस क्षेत्र का दूध खरीदने पर एकाधिकार था। कंपनी दुग्ध उत्पादकों का लगातार शोषण कर रही थी। इस शोषण की शिकायत किसानों ने सरदार पटेल से की। पटेल गोधन, गोरस और गोदान की हिंदू जीवन शैली के अनुयायी थे। पटेल शोषण की जानकारी से बेचैन हुए और लौहपुरुष के अवतार में आ गए, उन्होंने तत्काल कंपनी को दूध बेचने से मना कर दिया। उनका मानना था कि जब कंपनी को दूध मिलेगा ही नहीं, तो उसे किसानों की शर्तें मानने को मजबूर होना पड़ेगा। साथ ही पटेल ने सभी किसानों को मिलकर सहकारी संस्था बनाकर स्वयं दूध और दूध के उत्पाद बेचने की सलाह दी। पटेल के इस सुझाव से किसान सहमत हो गए और अंग्रेजों को दूध न देने की चुनौती दे दी। बाद में 1946 में पटेल ने अपने भरोसे के साथ ही मोरारजी देसाई और त्रिभुवन दास पटेल की सहायता से भारत की पहली दुग्ध सहकारी संस्था की स्थापना की, इसे ही बाद में जिला सहकारी दुग्ध उत्पादन संघ के नाम से जाना गया। 250 लीटर दूध का प्रतिदिन कारोबार करने वाली इसी संस्था को आज विश्वव्यापी संस्था ‘अमूल‘ के नाम से जाना जाता है। मिशिगन स्टेट विवि से मैकेनिकल इंजीनियरिंग करके भारत लौटे वर्गीज कुरियन ने सरकारी नौकरी छोड़कर इस संस्था में काम शुरू किया और भारत का पहला दूध प्रसंस्करण संयंत्र स्थापित किया। इसके बाद किसानों की ज्ञान परंपरा और कुरियन के यांत्रिक गठबंधन से इस संस्था ने उपलब्धि का शिखर चूम लिया।
बिना किसी सरकारी मदद के बूते देश में दूध का 70 फीसदी कारोबार असंगठित ढांचा संभाल रहा है। इस कारोबार में ज्यादातर लोग अशिक्षित हैं। लेकिन पारंपरिक ज्ञान से न केवल वे बड़ी मात्रा में दुग्ध उत्पादन में सफल हैं, बल्कि इसके सह-उत्पाद दही, मठा, घी, मक्खन, पनीर, मावा आदि बनाने में भी मर्मज्ञ हैं। दूध का 30 फीसदी कारोबार संगठित ढांचा, मसलन डेयरियों के माध्यम से होता है। देश में दूध उत्पादन में 96 हजार सहकारी संस्थाएं जुड़ी हैं। 14 राज्यों की अपनी दुग्ध सहकारी संस्थाएं हैं। देश में कुल कृषि खाद्य उत्पादों व दूध से जुड़ी प्रसंस्करण सुविधाएं महज दो फीसदी हैं, किंतु वह दूध ही है, जिसका सबसे ज्यादा प्रसंस्करण करके दही, मठा, घी, मक्खन, मावा, पनीर आदि बनाए जाते हैं। इस कारोबार की सबसे बड़ी खूबी यह है कि इससे आठ करोड़ से भी ज्यादा लोगों की आजीविका जुड़ी है। करीब 1.5 करोड़ परिवार सहकारी दुग्ध उत्पादकता से जुड़े हैं, जबकि 6.5 करोड़ ग्रामीण परिवार आज भी सहकारिता के दायरे से वंचित हैं। दूध उत्पादन में ग्रामीण महिलाओं की अहम् भूमिका रहती है। रोजाना दो लाख से भी अधिक गांवों से दूध एकत्रित करके डेयरियों में पहुंचाया जाता है। बड़े पैमाने पर ग्रामीण सीधे शहरी एवं कस्बाई ग्राहकों तक भी दूध बेचने का काम करते हैं।
इसी दूध के बाजार को अमेरिका हड़पना चाहता है। जबकि केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने कुछ माह पहले ही दस हजार नई कृषि सहकारी समितियों को हरी झंडी दिखाई है। अगले पांच साल में इनकी संख्या दो लाख तक पहुंचाने की है। इन्हीं सहकारी संस्थाओं के जरिए कृषि और दुग्ध उत्पादों को भारत से लेकर एशिया और यूरोप तक बाजार में पहुंचाने की है। ऐसे में यदि अमेरिकी दुग्ध उत्पादों के लिए भारतीय बाजार खोल दिए जाते हैं तो इन समितियों की मुश्किलें तो बढेंगी ही, दुग्ध उत्पादक आठ करोड़ दूधियों की आजीविका पर भी संकट के बादल गहरा जाएंगे।