
रंगनाथ द्विवेदी
आज ठंड अन्य दिनों की अपेक्षा कुछ अधिक थी. इसलिए इमरोज़ बिना अमृता को जगाये ही किचन में चाय बनाने के लिए चले गये.जब वह चाय बनाकर कमरे में लौटे तो देखा कि,- अमृता जाग चुकी हैं लेकिन वह लिहाफ से बाहर नहीं निकली थी और ना ही उसके लिहाफ से हाल फिलहाल बाहर निकलने का कोई इरादा ही इमरोज को दिखाई पड़ रहा था. तभी इमरोज़ ने कहा कि,- लग रहा आज आपका मूड लिहाफ से बाहर आने का नहीं है. इतना कहते हुए इमरोज ने दो खाली कपो में चाय डाली और बेड पर अमृता के करीब आ बैठा और चाय का कप अमृता को पकड़ा दी. अमृता ने कप में से उठते हुये चाय के धुएँ को देखते हुए कहा कि,- इस धुएं को तुम देख रहे हो इमरोज! तो इमरोज़ ने थोड़ी गंभीरता से कहा– हाँ! देख तो रहा हूं. लेकिन क्या तुम वह देख पा रहे हो जो यह अमृता इस धुएं मे देख पा रही है? अब इमरोज़ समझ गया अमृता कोई गूढ़ बात कहेगी लेकिन क्या यह अमृता ही जाने. इसलिए उसने केवल इतना कहा कि,- बहुत कुछ तो नहीं देख पा रहा लेकिन हाँ चाय के धुएं इधर-उधर उड़ जरूर रहे हैं.
इमरोज़ इधर-उधर उड़ते हुए यह धुएं सिर्फ धुएं नहीं बल्कि यह तुम्हारी अमृता का भटकाव हैं जो इतने वर्षों बाद तुम्हारी चाहत के चाय के धुएं से मिल जा रही, तभी चाय के कुछ घुट पी कर अमृता फिर बोली — इमरोज़ जानते हो कि, कभी इसी तरह यह अमृता एक और धुएं की दीवानी थी. “साहिर के सिगरेट के धुएं की.” उन दिनों जब मेरे पास से साहिर जाते तो मैं उनके पीकर फेंके हुए सिगरेट को फिर से जला कर अपने होठों से लगा लेती फिर उस कश के धुएं की तपीस में मुझे साहिर के होठों का एहसास होता. हालांकि इस होठ के रिश्ते को हम शादी का नाम नहीं दे पाये. लेकिन साहिर के सिगरेट का वह रिश्ता मैं आज भी नही छोड़ पाई. आज भी जब मैं सिगरेट पीती हूं तो लगता है कि,–जैसे मैं साहिर की फेंकी हुई सिगरेट को ही जलाकर पी रही हूं इमरोज! अमृता ने कभी भी दुनियां से अपनी मोहब्बत नही छिपाई. यह इमरोज़ भी भली-भांति जानते थे कि, अमृता ने अपने और साहिर के रिश्ते को लेकर बहुत ही बेबाकी से लिखा है. लेकिन इमरोज़ यह अच्छे से जानते है कि, आज की तारीख में वह अमृता के लिए सिर्फ एक रंगकर्मी ही नहीं बल्कि इसके बाद भी बहुत कुछ हैं. शायद दूसरे साहिर!
तभी अमृता ने फिर इमरोज़ से कहा तो इमरोज़ ख्यालों से बाहर आ गया. इस बीच चाय की कप भी खाली हो चुकी थी जिसे अमृता के हाथों से लेकर इमरोज ने बगल की मेज पर रखा और एक बार फिर अमृता के करीब आ बैठा तो अमृता तकिए से टेक लगाकर बैठ गई और बोली कि– जानते हो मैने साहिर से मोहब्बत के बाद बिना तकिये के किसी बिस्तर पर नहीं सोई. बिस्तर के इसी तकिये की टेक लेकर मैंने कभी “एक तकिया तेरे नाम” लिखा. वैसे तकिया चाहे जितना आराम दायक हो लेकिन उसके आराम की रंगत और खूबसूरती उसके खूबसूरत गिलाफ़ को चढ़ा देने पर और बढ़ जाती हैं. जैसे कि– इस तकिये की बढ़ गई हैं लेकिन इस तकिये की रंगत में अब एक और भी रंगत हैं. शायद तुम्हारी इमरोज़! अब तो लोग भी यह कहने लगे हैं कि इमरोज़ और अमृता का रिश्ता बहुत गहरा हैं और यह काफी हद तक सही भी हैं. इमरोज़ के लिए इतना ही बहुत था कि, अमृता उसके पास उसके इतने करीब हैं कि, जितने करीब किसी की दुआ भी कभी उसके साथ ना रही हो. अमृता और इमरोज़ की उम्र के बीच तकरीबन दस वर्ष का फासला था. इसलिए कभी भी इमरोज़ ने अमृता को तुम नही कहा. अमृता हमेशा इमरोज़ के लिए हमेशा आप रही.
अमृता ने इमरोज़ से ऐसे ही किसी दिन चर्चा करते हुये बताया था कि– उसके और साहिर के बीच शुरू-शुरू में एक तरफा मोहब्बत थी. ” पहली मुलाकात में साहिर ने उसे अपनी एक नज़्म दी थी फिर रफ्ता-रफ्ता हम दोनों ने एक दूसरे को बहुत सारे खत लिखे, कुछ छोटे तो कुछ बड़े साहिर के कईयों से रिश्ते रहे लेकिन एक रिश्ता मेरा ही रहा जो उसके ना रहने के भी जिंदा है. वैसे करने को तो मैंने भी अमृत सिंह से शादी की लेकिन वह शादी मैं जी नहीं पाई. दरअसल मेरी देह की किताब हमेशा औरों से अलग रही एक तरह से तुम कह सकते हो कि, उस किताब पर मेरी शादी की जो जिल्द चढ़ी तो मुझे लगा, नहीं अमृता की जिंदगी की किताब यूं ढकने के लिए नहीं है. फिर उस चढ़े हुए जिल्द को मैंने फाड़ दिया. आज वही किताब तुम्हारे सामने है लेकिन इस पर मैं सिर्फ साहिर को ही लिख पाई. काश तुम पहले मिलते मुझे इमरोज. फिर एक गहरी सांस के साथ अमृता ने कहा कि,– तुमने नाहक मेरे साथ बगल के कमरे में रहने की एक खता की और यह ऐसी खता हैं कि, तुम मेरे बिस्तर के इतने करीब हो कर भी मेरी बिस्तर के नहीं हो और ना ही मैं तुम्हारे बिस्तर की हूं. तो क्या सारे रिश्ते सिर्फ बिस्तर के ही होते है और कुछ नहीं?
अब अमृता ने इमरोज की तरफ देखा और बोली– जानते हो तुम क्या कह रहे हो? हाँ मैं बहुत अच्छे से जानता हूं कि मैं क्या कह रहा हूं! फिर अमृता ने सिगरेट जलाकर एक बार फिर से अपनी होंठों के बीच रखा और चंद एक कश लेने के बाद सिगरेट के धुएं के गुबार में अमृता ने खुद को देखा,उसके उस देखने में कही धुंधला सा इमरोज भी दिख रहा था. थोड़ी देर उसे देखने के बाद अमृता बोली कि,–“ इमरोज जब भी मैं अपनी मौत के बाद पढ़ी जाऊंगी तो निश्चित ही इस अमृता के नाम की किताब के पहले पन्ने पर लोग साहिर और उसके बाद के आखिरी पन्ने पर लोग इमरोज़ को पढ़ेंगे.”
वैसे अमृता अपने और साहिर के रिश्ते को लेकर हमेशा संजीदा रही. वह इस रिश्ते को एक नाम देना चाहती थी लेकिन साहिर को ही इस रिश्ते को नाम देने से गुरेज था. ऐसे में एक गाने की लाइन जो शायद ऐसी मोहब्बत के लिए हमेशा मुफीद रहेगी — “वह मुझे याद आ रही कि,, प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम ना दो.” वाकई जब किसी प्यार को कोई नाम नहीं दिया जाता है तब उस रिश्ते की तरफ यह दुनिया कुछ ज्यादा ही देखती हैं और उसके बारे में जानने को एक सामान्य रिश्ते से कही ज्यादा लोग बेचैन रहते है. साहिर और अमृता दो ऐसे नाम रहे जो आज ना रहके भी चर्चा में हैं. साहिर सिनेमा और जिंदगी दोनों के मकबूल शायर थे लेकिन इसके अलावा उनकी जिंदगी मकबूलियत और अपनी शायरी से इतर भी रही. क्योंकि उन्हें आज भी लोग अमृता की मोहब्बत की लिहाफ में लेटे हुए पाते हैं और अमृता भी उस लिहाफ में साहिर के कंधे के तकिये पर लेटी हुई दिखती हैं एक रिश्ता बनता हैं,बिगड़ता हैं दोनों के होंठों के सिगरेट की जूठन का एक धुंआ आज भी चर्चा में हैं. इस चर्चा में अमृता आज भी साहिर के दिल की वही “रसीदी टिकट” हैं जो उसने अपने और साहिर के रिश्ते को लेकर लिखा था. अमृता की मोहब्बत पंजाब के “बुल्लेशाह की सोनी महिवाल” के बाद सबसे ज्यादा मकबूल हुई. हालांकि साहिर के इंतकाल के बाद वह इमरोज को अपने काफी करीब पाती हैं लेकिन लोग कहते हैं कि उसने इमरोज को चाहा नहीं बल्कि इमरोज आखिर के दिनों में उसकी जरूरत बन गये थे जिसे कि, अमृता ने अपने तरीके से इस्तेमाल किया. खैर! अमृता ने कभी लोगों के कुछ भी कहने की परवाह नहीं की. उसने हमेशा अपने तय किये हुए आसमान को जिया. अगर जीना ना होता तो वह प्रीतम सिंह से अपनी शादी हो जाने के बाद भी इस कदर साहिर को ना चाहती. इमरोज भी अपनी केनवास के बड़े रंगकर्मी थे लेकिन शायद उतने बड़े नहीं जितने बड़े नाम से बाद में उनका नाम जुड़ गया. अमृता की जिंदगी में उसके पति को छोड़कर दो नाम हमेशा जीवित रहे एक साहिर तो दूसरे इमरोज का. हालांकि कि अमृता से जुड़ने की कीमत सर्वाधिक इमरोज़ ने चुकाई.
वैसे इमरोज — यह दुनियां अमृता प्रीतम को लिखते- लिखते थक जायेगी तब भी वह मुकम्मल अमृता प्रीतम को नहीं लिख पायेगी. मैं ताउम्र रसीदी टिकट थी, हूं और रहूंगी. जो कभी चिपकी नहीं जहां चिपकी भी तो वहां से उखड़ गई तुम्हारे सामने बिस्तर पर मैं लेटी जरूर हूं लेकिन मैं जानती हूं कि इस बिस्तर के लिफाफे पर अमृता अभी भी साहिर के होने के ख्याल से चिपकी हुई है. मैंने सौ किताबें लिखी मेरी किताब को लोगों ने कई भाषाओं में लिखा उसका अनुवाद किया लेकिन मैं कभी खुद का अनुवाद नहीं कर पाई.. मेरी खुद की अनुवाद आज भी अधूरी हैं. मुझे लोग पंजाब की पहली कवयित्री कहते हैं लेकिन मैं खुद को आखिरी कवयित्री मानती हूं. तभी इमरोज़ ने कहा कि– ठीक है! अब काफी रात हो गई हैं थोड़ी देर आप सोले! ठीक हैं इमरोज़! फिर उन्हें लिहाफ उढ़ाकर जब इमरोज अपने कमरे की तरफ जाने लगे तो अमृता प्रीतम ने लिहाफ को देखा और हल्के से मुस्कुरा दी. दरअसल इमरोज की ही जिद थी कि, जब भी अमृता ठंड की रात में लेटे तो उसे वह खुद अपनी हाथों से लिहाफ उढ़ाकर ही अपने कमरे में सोने के लिए जायेगा.
ऐसी ही तमाम रातों के साथ फिर कुछ ऐसी रातें भी अमृता की गुजरने लगीं जिस रात को आज नही तो कल सभी को जीना है. लेकिन ऐसी रातों में दो सांसे उस कमरे में दम तोड़ती थी, एक खुद अमृता प्रीतम की और दूसरे इमरोज की. ऐसी ही एक रात जब इमरोज अमृता के पास बैठा उसके हाथों को अपनी हाथों में लेकर अपनी हल्के -हल्के हाथों से उसके हाथ को सहला रहा था तब अमृता ने कहा कि,– शायद मेरे हाथ में कुछ हैं? मैं सोचती थी कि, यह बिल्कुल खाली है मेरी हाथ की अंगुलियों में हमेशा या तो सिगरेट रहा, या तो कलम रही या फिर साहिर की लिखी कोई नज़्म लेकिन आज मेरी अंगुलियों में और भी कुछ है. शायद वह तुम हो इमरोज मुझे क्या नहीं मिला? शोहरत, इज्जत यहां तक की मैंने लोगों की बदनामियत के छीटे भी जिए मुझे 1957 में साहित्य अकादमी,1969 में पद्म श्री,1982 में साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार ज्ञानपीठ के अलावा भारत सरकार के द्वारा दिया जाने वाला दूसरा सबसे बड़ा पुरस्कार पद्म विभूषण 2004 में मिला. तभी अचानक से इमरोज ने देखा कि,- अमृता की तबीयत ज्यादा बिगड़ रही है तो उससे रहा नहीं गया. उसने कहा कि,– अब आप अपनी जिद छोड़िये! चलिये हम अस्पताल चलते हैं. वैसे इमरोज एक सिगरेट जलाकर तुम मेरी होंठ से लगा देते तो मैं तुम्हारे साथ अस्पताल चली चलती. तो इमरोज ने एक सिगरेट अमृता की होठों से लगा दिया.
फिर अमृता गंभीर रूप से काफी लंबे समय तक बीमार रही. अमृता के जीवन का दीपक अस्पताल की बेड पर पड़े -पड़े जल बुझ रहा था. इमरोज भी अमृता के जलने बुझने को अपने भीतर महसूस कर रहा था. ना जाने क्यों आज इमरोज का मन अमृता के पास से उठने का नहीं कर रहा था? उसके मन में अजीब -अजीब से ख्याल आ रहे थे. तभी नर्स ने आकर कहा कि, चलिये! अब इन्हें थोड़ा सा आराम करने दीजिए! इमरोज भारी मन से उठा और जैसे ही जाने को हुआ तो उसे ऐसा लगा कि,- जैसे अमृता ने उससे कहा हो कि,– क्या इमरोज आज तुम मुझे लिहाफ नही उढ़ाओगे? तभी इमरोज़ ने वापस आकर अमृता के पैर के पास पड़े लिहाफ को खींचकर अमृता को ओढ़ा दिया और वहां से बाहर आ गया. दूसरे दिन फिर इमरोज़ अमृता के उठने के पहले ही अस्पताल पहुंच गया. दरअसल उसे पता था कि, अमृता हर रोज कितने बजे सोकर उठती हैं लेकिन आज इमरोज़ का आना आखिरी था. क्योंकि नीद में ही ना जाने कब अमृता इस दुनियां से चली गई थी इमरोज एकटक अमृता की तरफ देख रहा था. 31अक्टूबर 2005 और 86 वर्ष की अमृता इस दुनियां की अमृता ना रही. वह सिर्फ साहिर की अमृता होकर चली गई. लेकिन जैसे वह इमरोज से कहकर गई हो कि,–“ मैं फिर आऊंगी इमरोज़ लेकिन इस बार सिर्फ तुम्हारी अमृता बनकर.”
अमृता प्रीतम की यह रचना जैसे उसके और इमरोज की रचना है—
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं?
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे कैनवास पर उतरुँगी,
या तेरे कैनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी.
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं?