
रावेल पुष्प
किसी के लिये भी एक,दो या चार भाषाओं से अधिक जानना आसान नहीं, लेकिन अनुवाद एक ऐसा माध्यम है, जिससे हम एक भाषा से इतर दूसरी भाषा के माध्यम से दूसरे-तीसरे क्षेत्र या देश-दुनिया की सभ्यता, संस्कृति से बखूबी परिचित हो पाते हैं। भाषायें ही तो हैं, जो अलग-अलग क्षेत्रों, देशों के लोगों को आपस में जोड़ती हैं, लेकिन उसका माध्यम तो आखिर अनुवाद ही होता है। सचमुच अनुवाद न होता तो आज जो दुनिया हम देख रहे हैं वैसी तो कदापि नहीं हो पाती। दुनिया आज जितनी उन्नत है पारस्परिक संबंध जितने प्रगाढ़ हुए हैं, उसके पीछे का कारण तो अनुवाद ही है। ये बात तो जरूर है कि अनुवादक को दोनों भाषाओं की सभ्यता, संस्कृति से भी बखूबी परिचित होना होता है।
अनुवाद तो दरअसल एक पुनर्रचना ही है,क्योंकि इसमें मूल से कुछ ना कुछ छूट ही जाता है और कुछ जुड़ भी जाता है यानि विसर्जन और सर्जन दोनों ही होता है। वैसे तो अनुवाद पर काफी कुछ लिखा पढ़ा गया है, लेकिन इधर हाल ही में एक पुस्तक आई है जिसका नाम है- अनुवाद में विसर्जन और सर्जन का सिद्धांत और इसके लेखक हैं श्रीनारायण समीर। समीर जी स्वयं केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो के निदेशक पद पर वर्षों रहे हैं और इससे पूर्व भी उनकी अनुवाद पर कुछ पुस्तकें आ चुकी हैं मसलन- अनुवाद: अवधारणा एवं विमर्श, अनुवाद और उत्तर आधुनिक अवधारणायें, अनुवाद की प्रक्रिया तकनीक और समस्याएं तथा अनुवाद का नया विमर्श।अनुवाद पर इतनी प्रमुख पुस्तकों के बाद अब वे फिर एक पुस्तक के साथ साहित्य जगत में हाजिर हुए हैं।
वे इस नई पुस्तक के माध्यम से स्पष्ट करते हैं कि किसी एक भाषा के कथन को दूसरी भाषा में उसी प्रकार और प्रभाव के साथ दोहराना संभव नहीं होता, परंतु फिर भी मानव- मन की ज्ञान-पिपासा इतनी गहन, व्यापक और अपरिमित होती है कि अनुवाद के बिना काम नहीं चलता। मनुष्य अपनी भाषा के बाहर के ज्ञान को अनुवाद के माध्यम से हासिल करता है। ज्ञान हासिल करने की यह पद्धति मनुष्य शताब्दियों से अपनाता रहा है। आधुनिक जमाने में संचार साधनों के तीव्र विकास में अनुवाद को और भी जरूरी तथा अपरिहार्य बना दिया है। अनुवाद का उद्देश्य किसी भाषिक विचार को दूसरी भाषा में अंतरित करना है ताकि उस विचार से दूसरे भाषा-भाषी भी लाभान्वित हो सकें ।
अब क्योंकि अनुवाद दो भाषाओं के बीच होता है और भाषा एवं संस्कृति गहरे रूप से जुड़ी होती है इसलिए भाषांतरण में संस्कृति के तत्वों की टकराहट स्वाभाविक है। जब किसी भाषा, समाज के विशेष भाव और संस्कृति के लिए समानार्थक शब्द नहीं मिल पाते तब अनुवादक के पास भावानुवाद करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता। फिर भी ये जरूरी नहीं कि भावानुवाद में मूल कथन पूरा का पूरा अंतरित और व्यक्त हो सके। एक भाषा से दूसरी भाषा में किस तरह कुछ चीजें विसर्जित होती हैं और कुछ चीजें सर्जित होती हैं,इसका उदाहरण भी कविगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक कविता “मानस प्रतिमा” से लेखक ने दिया है। इसके मूल पाठ को कवि ने ही पहले तो कविता और फिर गायन के रूप में करने पर परिवर्तन किया है।
रवीन्द्रनाथ स्वयं अपनी कविताओं के अंतिम रूप तक भी संतुष्ट नहीं होते थे और काट-छांट करते ही रहते थे। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण कोलकाता मेट्रो के रवीन्द्र सदन स्टेशन के प्लेटफार्म की दीवारों पर उत्कीर्ण कविताओं को देखा जा सकता है, जहां जगह-जगह संशोधन दिखता है और जहां वे शब्द हटाते थे उसे किसी पक्षी वगैरह के चित्र में परिवर्तित कर देते थे।
खैर, उसके बाद इस कविता का अंग्रेजी से बांग्ला अनुवाद बांग्ला के कवि शक्ति चट्टोपाध्याय ने किया था। इसे अंग्रेजी में मेर्विन ने पाब्लो नेरुदा के स्पैनिश से किया था।
अब एक भाषा से दूसरी भाषा फिर तीसरी-चौथी यानि न जाने कितना विसर्जन और सर्जन हुआ होगा। वैसे कई बार ऐसा भी होता है कि अनूदित रचना मूल से भी बेहतर और अर्थवान साबित होती है। इन्हीं सब बातों को बखूबी बड़े विस्तार से इस लेखक ने पुस्तक में उदाहरण सहित दिखाया है। इसके लिए उन्होंने विभिन्न भाषाओं की रचनाओं का मूल उसके लिप्यंतरण तथा अनुवाद को शामिल किया है। मसलन- सीताकांत महापात्र की उड़िया कविता तथा प्रतिभा राय के उड़िया उपन्यास महामोह का अनुवाद राजेंद्र प्रसाद मिश्र द्वारा तथा उमाशंकर जोशी की गुजराती कविता तथा पन्नालाल पटेल की गुजराती कहानी का अनुवाद है। इसके अलावा पंजाबी के सिरमौर कवि सुरजीत पातर की कविता का हिंदी अनुवाद रावेल पुष्प द्वारा जिसे साहित्यिक पत्रिका वागर्थ से लिया गया तथा अमृता प्रीतम की आत्मकथा रसीदी टिकट के अंश का अनुवाद,शंखों घोष की कविता का बांग्ला से निशांत द्वारा हिन्दी अनुवाद। इसके साथ ही मराठी, कन्नड़, मलयालम, तेलुगू से भी कुछ अनुवाद शामिल किये गये हैं।
इन सब से इतर बूकर पुरस्कार प्राप्त गीतांजलि श्री के उपन्यास रेत समाधि के अंश का उसकी अनुवादिका डेजी आरवेल द्वारा अनुवाद “द राक आफ़ सैण्ड” को भी शामिल किया गया है। ये तो अनुवाद ही था जिसके कारण इस कृति को बूकर पुरस्कार मिला और पुरस्कार राशि 63000 पाउंड को मूल लेखक और अनुवादक के बीच बराबर-बराबर बांटा गया। 2022 में मिले इस पुरस्कार के बाद अब फिर 2025 में कन्नड़ कथाकार बानू मुश्ताक को उनके कथा संग्रह के अनुवाद “हार्ट लैम्प” पर दिया गया। यानि सारी बातों का लब्बोलुआब यही है कि अनुवाद ही वो जरिया है जिसके चलते विश्व के व्यापक फलक तक पहुंचा जा सकता है और ऐसे पुरस्कार विजेता बनने का गौरव भी हासिल किया जा सकता है। सचमुच अगर काव्य संग्रह गीतांजलि की कविताओं का अनुवाद न हुआ होता तो रवीन्द्रनाथ ठाकुर को नोबेल पुरस्कार नहीं मिलता और फिर न हम उन्हें विश्व कवि की उपाधि से नवाज पाते।
श्रीनारायण समीर ने इस पुस्तक के साथ लम्बी संदर्भ ग्रंथ सूची भी शामिल की है, जिससे साफ़ पता चलता है कि उन्होंने इसके पीछे काफी मेहनत और सूझबूझ से इसे अंजाम दिया है।
इस पुस्तक में अनुवाद सिद्धांत पर तीन महत्वपूर्ण आलेख भी दिए हैं – अनुवाद का उत्तर अध्ययन, अनुवाद के विविध सिद्धांत, अनुवाद में विसर्जन और सर्जन का सिद्धान्त।
ये पुस्तक जहां अकादमिक महत्व की है, वहीं शौकिया तथा पेशेवर अनुवादकों के लिए भी संग्रहणीय पुस्तक है। मुझे विश्वास है कि साहित्यिक जगत तथा अन्य क्षेत्रों में भी ये समादृत होगी।
अनुवाद में विसर्जन और सर्जन का सिद्धान्त
लोकभारती प्रकाशन
पेपरबैक मूल्य: ₹250