
दिल्ली के तीन उत्साही नौजवान यहां के ग्रामीण जीवन के इतिहास और वर्तमान को वाचिक परंपरा के जरिए दर्ज कर रहे हैं। दिल्ली में साढ़े तीन सौ से अधिक गांव हैं। इनका समाज और संस्कृति कमोबेश देश के किसी भी गांव की तरह है। इन्हीं गांवों पर बने संसद भवन से लेकर राष्ट्रपति भवन वगैरह। ये तीन नौजवान कौन हैं ? इन्हें दिल्ली के गांवों के चप्पे- चप्पे को जानने की इच्छा क्यों हुई ?
एक कोशिश दिल्ली के गांवों के इतिहास और वर्तमान को जानने की ताकि दिल्ली के गांवों के रंग जान ले दुनिया
विवेक शुक्ला
कितने दिल्ली वालों को पता है कि जहां पर हमारा राष्ट्रपति भवन और संसद भवन आबाद हैं, वहां ज्यादा नहीं, सवा सौ साल पहले तक रायसीना नाम का एक गांव बसा हुआ था। वहां पर होती थी खेती। अब उस गांव का नामो- निशान भी नहीं मिलता। अब कनॉट प्लेस चलिए। देश की सबसे खास मार्केट और कमर्शियल सेंटर। ये सारा एरिया 1927 से पहले माधोगंज नाम का गांव था। जिधर दिल्ली विधानसभा की बिल्डिंग ( पुराना सचिवालय) खड़ी है, वहां पर होता था चंद्रावल गांव। चंद्रावल गांव वालों को दिल्ली यूनिवर्सिटी मेन कैंपस के पास जगह दी गई थी। उन्होंने वहां पर चंद्रावल नाम से ही गांव बसा लिया।
दरअसल दिल्ली के गांवों का इतिहास बहुत गौरवशाली है। इनमें रहने वालों ने 1857 के पहले गदर से लेकर स्वाधीनता आंदोलन में गोरी सरकार के दांत खट्टे किए थे। दिल्ली के सरकारी दस्तावेज बताते हैं कि यहां अब भी 357 गांव हैं। हरेक गांव का अपना एक रंग और समाज है। इनकी अपनी दुनिया है। इनमें अब भी गांवों के संस्कार और परंपराएँ जीवित हैं। हालांकि ये अफसोसजनक है कि दिल्ली के ग्रामीण जीवन पर गहन अध्ययन नहीं हुआ।
आज की दिल्ली के दस फीसद लोगों को भी मालूम नहीं होगा कि भारत की हरित क्रांति की नींव उत्तर दिल्ली के जोंती गांव में रखी गई थी। जोंती की चर्चा किए बिना हरित क्रांति पर बात नहीं हो सकती। भारतीय कृषि अनुसंधान, पूसा में गेंहू की फसल का उत्पादन बढ़ाने के लिए गेंहू के उन्नतशील बीज विकसित किए गए थे। उसके बाद इन्हीं बीजों को दिल्ली के किसी गांव में लगाने का फैसला हुआ । अब मसला पैदा हुआ कि किस गांव में इन बीजों को लगाया जाए। तब खोजबीन के बाद जोंती गांव का चयन हुआ। जोंती को मुख्य रूप से इसलिए चुना गया था क्योंकि यहां पर करीब की एक नहर का पानी आता था। अब बताइये कि कितने देश वासियों को या दिल्ली वालों को इस गांव के संबंध में जानकारी है।
तो दिल्ली कैसे जाने अपने आस-पास बसे गांवों के बारे में? इस काम को करने की जिम्मेदारी उठाई है—देवली गाँव (दक्षिणी दिल्ली) के पुनीत सिंह सिंघल, मदनपुर खादर (दक्षिण-पूर्वी दिल्ली) के गगनदीप सिंह, और निलोठी (पश्चिमी दिल्ली) के पार्थ शौकीन ने। ये सब तीस साल के आसपास की उम्र के नौजवान हैं। ये सब दिल्ली के गांवों से संबंध रखते हैं। इनके परिवार दिल्ली से चार-पांच सौ सालों से जुड़े हुए हैं।
इन्होंने दिल्ली देहात प्रोजेक्ट शुरू किया है। इनकी चाहत है कि दिल्ली की ग्रामीण विरासत का दस्तावेजीकरण करना। ये ही काम अब तक नहीं हुआ था। पुनीत सिंह सिंघल बताते हैं कि हम गांव-गांव जाकर ग्रामीणों से मिलकर उनके गांव, समाज, संस्कृति, इतिहास वगैरह की जानकारी को रिकॉर्ड कर रहे हैं। हम पुरानी तस्वीरें एकत्र कर रहे हैं, जो दिल्ली के गांवों की कहानी को बयां करती हैं। ये सब वाचिक परंपरा के अनुसार हो रहा है। हमने पहले भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ( पूसा) की बात की। यहां दिन-रात सैकड़ों कृषि वैज्ञानिक शोध करते हैं। पर बहुत कम दिल्ली वालों को पता है कि पूसा शादीपुर खामपुर और दसघरा गांवों की जमीनों पर बना है। गगनदीप सिंह कहते हैं कि ये दोनों गांव अब भी हैं। इनका शहरीकरण हो गया है। खेती तो इनमें नहीं होती, पर यहां चौपाल और पंचायतें हैं। आप कह सकते हैं कि हम वाचिक परंपरा के जरिए दिल्ली के गांवों के इतिहास और वर्तमान को संजो रहे हैं। ये काम पहले हो जाना चाहिए था, पर हमें खुशी है कि इसे हम निस्वार्थ भाव से कर रहे हैं।
गांवों के मंदिर, देवता और जोहड़
दिल्ली देहात प्रोजेक्ट खेतों और चौपालों से लेकर स्थानीय देवताओं,मंदिरों, सूखे हुए जोहड़ों से लेकर अब मेट्रो स्टेशनों के पीछे छिपे खंडहरों की कहानी को बताना चाहता है। पार्थ शौकीन एक महत्वपूर्ण सवाल उठाते है: दिल्ली के गाँवों को क्यों नजरअंदाज किया जाता है? दिल्ली के जीवन की बातें होती हैं तो गांवों को क्यों नजरअंदाज कर दिया जाता है? आखिर इन पर ही बने जेएनयू,आईआईटी, इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट, तमाम एरिया वगैरह। ये सब होता रहा गांवों वालों की अक्सर बिना सहमति के ही। इस क्रम में गांव उजड़ते रहे और उनके समाज और इतिहास को संरक्षित करने की कोई ठोस पहल नहीं हुई। पर दिल्ली देहात प्रोजेक्ट को शुरू करने वाले तीनों नौजवान गुजरे दौर की गलतियों से सीखकर आगे बढ़ रहे हैं। ये अपने साथ ग्रामीणों, इतिहासकारों और शहरी योजनाकारों को जोड़ रहे हैं। पुनीत सिंह सिंहल कहते हैं कि “दिल्ली देहात” कोई अतीतमोह नहीं है। दिल्ली के गांव देश की राजधानी की प्राण और आत्मा हैं। इनका वजूद अब भी भी कायम है। हम इन गांवों से ही संबंध रखते हैं। हम दिल्ली के गांवों के प्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग तक के ऐतिहासिक कालखंडों को समेटे रहे हैं। महरौली, हौज खास, नजफगढ़ और बवाना जैसे गांवों में पुरातात्विक अवशेष, प्राचीन मंदिर, मस्जिदें और किले मौजूद हैं, जो दिल्ली सल्तनत, मुगल काल और महाभारत काल से संबंधित हैं। इन गांवों ने विभिन्न शासकों के अधीन अपनी संस्कृति और जीवनशैली को बचाकर रखा। बेशक, दिल्ली की भागमभाग के बीच यहां के गांवों का इतिहास लिखने से आने वाली पीढ़ियों को यहां के बारे में विस्तार से जानकारी मिलेगी।