
विनोद कुमार विक्की
बात 2010 की है। रेलवे ट्रैफिक अप्रेंटिस की मुख्य परीक्षा देने लखनऊ गया हुआ था। वहीं स्टेशन के ए.एच. वहीलर स्टाल पर रंग-बिरंगे कार्टून का मुखावरण लिए अट्टहास से पहली बार रु-ब-रू होने का मौका मिला। दस रुपए अदा कर अंक खरीदीं और यूपी से बिहार पहुंचते-पहुंचते अट्टहास को पढ़ डाला। उन दिनों मैं अर्य संदेश, सांवली आदि कुछेक स्थानीय पत्रिकाओं के लिए लघु कथा लिखा करता था।
उन दिनों छपास की चाहत भी बलवती थी।
हास्य और व्यंग्य की इस अनूठी पत्रिका ने मुझे उस समय हास्य-व्यंग्य लिखने को प्रेरित किया, जिस दौरान व्यंग्य का आधा ‘व'(व्) भी नहीं जानता था और कार्टून केंद्रित हंँसी-ठिठोली वाली रचनाओं को ही व्यंग्य समझा करता था।(वैसे अभी भी व्यंग्य को सीख और समझ ही रहा हूं।)
महेशखूंट आने के बाद मैंने अट्टहास के मूड और मिजाज के अनुसार कुछ हास्य रचनाएं लिखी और अट्टहास के लखनऊ अवस्थित 9 गुलिस्ता, कालोनी वाले पते पर पोस्ट कर दी। डेढ़ सौ रुपया का भुगतान कर वार्षिक सदस्यता भी ले ली और रचनाएं भेजने लगा, लेकिन मेरी एक भी रचनाएं उसमें प्रकाशित नहीं हुई। हास्य-व्यंग्य लिखने को प्रेरित करने वाली पत्रिका में दर्जनों रचनाएं भेजने के बाद जब एक भी रचना प्रकाशित नहीं हुई तो काफी हताशा हुआ। उसके बाद व्यंग्य (उस समय मेरी नजरों में हास्य) के प्रति मेरा मोह भंग सा हो गया।
फिर अप्रैल 2013 में अचानक एक दिन डाक द्वारा अट्टहास (अप्रैल 2013) की एक प्रति प्राप्त हुई। इसमें मेरी एक रचना ‘कोहबर से कारागार’ प्रकाशित हुई थी जो मैंने वर्ष 2010 में प्रकाशन हेतु प्रेषित की थी। उन दिनों पीडीएफ का दौर नहीं था रचनाओं के प्रकाशन की सूचना पत्रिका हाथ में मिलने के बाद ही पता चल पाती थी।
राष्ट्रीय स्तर के दिग्गज व्यंग्य साहित्यकारों के साथ अपनी रचनात्मक उपस्थिति देख कर मैं कितना खुश हुआ यह शब्दों में बयां नहीं कर सकता। लगभग दो महीने बाद अनूप सर को मैंने मोबाइल से कॉल किया और औपचारिक अभिवादन के बाद कहा “सर बिहार से विनोद कुमार विक्की बोल रहा हूंँ, मैंने कुछ रचनाएं भेजी है, यदि संभव हो तो अट्टहास में स्थान देने की कृपा करेंगे।” उन्होंने तत्काल ही जवाब दिया अरे तुम्हारी तो रचना अभी लगाई ही थी। मैंने धन्यवाद दिया और अपनी प्रेषित रचनाओं के प्रकाशित किए जाने का अनुरोध भी किया। वे काफी स्पष्टवादी थे,बोले भेजो देखता हूंँ। उसके बाद डाक द्वारा रचनाओं के भेजने का सिलसिला जारी हो गया किंतु अप्रैल 2013 के बाद वर्ष 2014, वर्ष 2015 तक मेरी एक भी रचना प्रकाशित नहीं हुई।
वर्ष 2016 के आस-पास मुझे अनूप सर से फेसबुक पर जुड़ने का मौका मिला। यहीं से अट्टहास की ई-मेल एड्रेस की जानकारी भी हुई। मैंने ईमेल पर अपनी व्यंग्य रचनाएं भेजनी शुरू कर दी और मैसेंजर में भी अनूप सर को अपनी रचनाएं भेजने लगा मेरी रचनाओं में अपेक्षित सुधार और व्यंग्य में तीखापन लाने को उन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया।
मैसेंजर पर ही गुड मॉर्निंग, गुड इवनिंग का संबंध शुरू हुआ। एक दिन औपचारिक अभिवादन के बाद मैंने अट्टहास हेतु रचना भेजने का उनसे पुनः अनुरोध किया तो उन्होंने मैसेंजर में ही अप्रैल अंक के मूर्खता विशेषांक हेतु कल शाम तक अपनी एक रचना भेजो और मैंने अगली शाम तक उनको ‘अद्भुत गोला’ नामक एक रचना फेसबुक मैसेंजर पर प्रेषित कर दी।
उन्होंने रचना स्वीकृति या स्वीकृति के बारे में तो नहीं बताया लेकिन एक सप्ताह के अंदर अप्रैल अंक 2016 में प्रकाशित मेरी रचना की तस्वीर भेजी। मैं काफी खुश हुआ और धन्यवाद ज्ञापन करने के साथ ही छपास मोह में एक-एक कर 8-10 हास्य व्यंग्य की रचनाएं भेजने लगा। जब मन होता तो रचनाओं पर प्रतिक्रिया देते अथवा तल्ख लहजे में पूछते कि इन रचनाओं में व्यंग्य कहांँ है? मैं शिष्ट शिष्य की भांति मैसेंजर में उनसे क्षमा मांग लेता और बेहतर लिखने का भरोसा दिलाता।
फिर जुलाई 2016 में अट्टहास युवा व्यंग्य विशेषांक में प्रकाशित होने का मौका मिला।
प्रकाशित होने की चाहत में हास्य-व्यंग्य की कविताएं भी लिखनी शुरू कर दी और उन्हें मैसेंजर पर भेजने लगा। एक दिन उन्होंने मैसेंजर पर मैसेज किया कि पद्य की बजाय गद्य में ही हाथ आजमाओ। फिर यदा-कदा विषयानुसार नए अंक के लिए तत्काल रचनाएं मांग लिया करते थे और तय समय-सीमा में मैं भेज भी दिया करता था। ऑनलाइन जुड़ने के बाद ईमेल से रचनाओं के भेजने का सिलसिला जारी हुआ और उसके बाद अट्टहास के लगातार कुछ अंकों में मुझे छापने का मौका मिला।
अपने चुटीली टिप्पणी व कुशल संपादन के अलावा अनूप श्रीवास्तव सर व्यंग्य जगत में अपने प्रयोग के लिए भी जाने जाते थे। उनका साहित्यिक प्रयोग ही रहा है कि अट्टहास के नए-नए धरोहर विशेषांकों का प्रकाशन संभव हो सका। तमाम विशेषांक के संपादन की जिम्मेदारी व्यंग्य जगत के दिग्गजों व नवोदितों को सौंपने की उनकी जोखिम कला प्रशंसनीय व अनुकरणीय है। इन विशेषांकों का एक सकारात्मक परिणाम ये भी रहा कि महज एक साल में दर्जनों नए व्यंग्यकारो ने राष्ट्रीय पटल पर पहली व्यंग्य रचना के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। साथ ही इन्हें राष्ट्रीय स्तर के वरिष्ठ व दिग्गज व्यंग्यकारों के साथ छपने व दिखने का मौका मिला।
वर्ष 2018 में अगस्त माह में उन्होंने फोन कर बिहार- झारखंड व्यंग्य विशेषांक के अतिथि संपादन का ऑफर दिया। मैं इस चुनौतीपूर्ण जिम्मेदारी से खुश भी था और नर्वस भी। काफी कम समय पूर्व से व्यंग्य सीखना और लिखना शुरू किया था और वह जो कुछ भी लिख पा रहा था तो अट्टहास की वजह से। बहरहाल मित्रों के सहयोग और सूझबूझ से अक्टूबर 2018 बिहार झारखंड में विशेषांक का संपादन किया इस संपादन के दौरान साहित्यकार मित्रों का सहयोग भी मिला और अनूप श्रीवास्तव सर का मार्गदर्शन भी। इस विशेषांक से मुझे प्रसिद्ध भी मिली और आलोचना भी, किंतु अनूप सर ने मुझे बहुत प्रोत्साहित किया और मेरे संपादन से प्रभावित होकर जनवरी 2019 पूर्वोत्तर व्यंग्य विशेषांक के संपादन की पुनः जिम्मेदारी दे डाली। अट्टहास के संपादन के दौरान उनसे व्यक्तिगत रूप से जुड़ने का मौका मिला और अट्टहास परिवार के साथ ही अनूप श्रीवास्तव सर के परिवार से भी आत्मीय रूप से जुड़ गया।
13 जनवरी 2019 को दिल्ली के हिंदी भवन में आयोजित लोकार्पण सह सम्मान समारोह में भरे मंच से अनूप सर ने मेरे संपादन की मुक्त कंठ से प्रशंसा भी की। इस दौरान दो दिन अनूप सर के साथ बीताने का मौका मिला। साथ में नाश्ता करने, मंच साझा करने के साथ ही उन्हें सुनने और सीखने को मिला।
मैं इस बात को स्वीकार करता हूंँ कि उन दिनों जब व्यंग्य को समझ नहीं पा रहा था फिर भी संपादकीय की चुनौती पूर्ण जिम्मेदारी मुझे मिली और मुझ पर भरोसा करने का नवाचार या जोखिमपूर्ण निर्णय जो अनुप सर ने लिया वह वास्तव में अनूप सर जैसे अनुभवी और दूरदर्शी संपादक ही ले सकते हैं।
महज 14 वर्ष की उम्र में अकबर को भी शासन की जिम्मेदारी मिली थी। शुरुआती दौड़ में उन्हें भी आलोचना का शिकार बनना पड़ा जाहिर है लेखन की कम समय में प्रतिष्ठित पत्रिका के अतिथि संपादन की जिम्मेदारी में मैं भी आलोचना का शिकार होने वाला था। हिंदी की वर्तनी संबंधित अशुद्धियों के कारण कुछ लोगों के लिए चर्चा का विषय भी बना, तो कुछ मित्रों ने हिंदी वर्तनी मात्रा में मार्गदर्शन भी किया। कहते हैं जिम्मेदारी इंसान को सब कुछ सीखा देता है। मैं भी व्यंग्य को समझना शुरू किया और आज भी सीख और समझ रहा हूं। आज विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में मेरी हास्य और व्यंग्य की रचनाएं प्रकाशित हो रही है।
प्रकाशित रचनाओं पर पाठकों द्वारा फोन से मिलने वाली प्रतिक्रिया मुझे व्यंग्य लेखन हेतु संबलता प्रदान करती है।
आज मेरे नाम के साथ व्यंग्यकार का टाइटल जुड़ने में और व्यंग्य साहित्य में मेरी कुछ नाम और पहचान बनी है, तो इसमें मेरी रचनाओं के साथ ही साहित्यिक अभिभावक अनूप सर का बहुत बड़ा योगदान है, जिन्होंने मेरे अंदर हास्य और व्यंग्य के बीज को प्रस्फुटित करने में मदद की। अस्सी वर्ष की आयु में 20 जनवरी 2025 को अनूप श्रीवास्तव जी देवलोक को गमन कर गयें।
उनसे फोन या मैसेंजर पर बात करना, एक अभिभावक की तरह उनसे मार्गदर्शन प्राप्त होना मुझे हमेशा याद रहेगा।
अगाध श्रद्धा के साथ पत्रकार, लेखक, संपादक एवं महान आत्मा को शत-शत नमन।