नृपेन्द्र अभिषेक नृप
जब पृथ्वी ने अपने विकास की पहली लंबी साँस ली होगी, जब महाद्वीपों का आकार तय हो रहा होगा और जीवन की संभावना धीरे-धीरे आकार ले रही होगी, तब अरावली पर्वतमाला धरती की देह पर एक स्थिर, धैर्यवान और मौन संरक्षक के रूप में उभरी। लगभग दो सौ करोड़ वर्ष पुरानी यह पर्वत शृंखला केवल भूगर्भीय संरचना नहीं, बल्कि पृथ्वी के इतिहास की जीवित स्मृति है। यह वह साक्षी है जिसने जीवन के उद्भव को देखा, जलवायु के अनगिनत उतार-चढ़ाव सहे और मनुष्य के आगमन से बहुत पहले प्राकृतिक संतुलन की रक्षा का भार अपने कंधों पर लिया। अरावली हमें यह सिखाती है कि प्रकृति की महानता उसकी ऊँचाई या चमक से नहीं, बल्कि उसकी भूमिका, धैर्य और निरंतरता से मापी जाती है।
अरावली सदियों से राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर भारत के लिए एक प्राकृतिक कवच बनी हुई है। यह पर्वतमाला थार रेगिस्तान और शेष उपजाऊ भारत के बीच एक अदृश्य दीवार की तरह खड़ी रही है। इसकी चट्टानें और पहाड़ियाँ तेज़ हवाओं की गति को रोकती हैं, धूल और रेत को आगे बढ़ने से थामती हैं और इस प्रकार रेगिस्तान को बेकाबू फैलने से रोकती हैं। यदि आज भी राजस्थान पूरी तरह रेगिस्तान में नहीं बदला है, यदि हरियाणा और दिल्ली अब तक पूर्ण मरुस्थलीकरण से बचे हैं, तो इसके पीछे अरावली का मौन योगदान है। यह योगदान इतना स्वाभाविक रहा कि मनुष्य ने इसे कभी महसूस ही नहीं किया, और शायद यही उसकी सबसे बड़ी त्रासदी है।
जल संरक्षण के क्षेत्र में अरावली की भूमिका किसी वरदान से कम नहीं रही। इसकी प्राचीन चट्टानें वर्षा जल को रोककर धीरे-धीरे धरती के गर्भ में समाहित करती हैं। यही जल भूजल बनकर कुओं, बावड़ियों, झीलों और नदियों को जीवन देता है। अरावली को सही अर्थों में “वॉटर रिचार्ज ज़ोन” कहा जा सकता है। जब मानसून की बारिश तेज़ होती है, तब यह पर्वतमाला जल की गति को नियंत्रित करती है, बाढ़ की विभीषिका को कम करती है और पानी को बह जाने के बजाय संचित होने का अवसर देती है। यदि यह संरचना टूटती है, तो पानी केवल कुछ घंटों में बहकर नष्ट हो जाएगा, और धरती के नीचे का जल भंडार धीरे-धीरे खाली हो जाएगा। यही कारण है कि आज दिल्ली-एनसीआर और आसपास के क्षेत्रों में बढ़ते जल संकट की जड़ें कहीं न कहीं अरावली के क्षरण से जुड़ी हैं।
जलवायु संतुलन में अरावली की भूमिका उतनी ही गहरी और मौन है। यह पर्वतमाला तापमान को नियंत्रित करने में सहायक रही है। इसके जंगल, झाड़ियाँ और चट्टानें वातावरण में नमी बनाए रखती हैं और गर्मी की तीव्रता को कम करती हैं। यदि अरावली का विनाश जारी रहा, तो तापमान में निरंतर वृद्धि होगी, हीट आइलैंड प्रभाव बढ़ेगा और मानसून का स्वरूप बिगड़ सकता है। बारिश अनियमित होगी, कहीं अतिवृष्टि तो कहीं सूखा पड़ेगा। धूल भरी आँधियाँ और प्रदूषण सामान्य जीवन का हिस्सा बन जाएँगे। यह परिवर्तन अचानक नहीं, बल्कि धीरे-धीरे होंगे, और शायद इसी कारण हम उनकी गंभीरता को समय रहते समझ नहीं पा रहे हैं।
अरावली केवल पत्थरों और पहाड़ियों की शृंखला नहीं है, यह जैव विविधता का एक जीवंत संसार है। इसके जंगलों में तेंदुआ, सियार, नीलगाय, लोमड़ी, असंख्य पक्षी और सरीसृप प्रजातियाँ पनपती रही हैं। यहाँ औषधीय पौधों का भंडार है, जिनका उपयोग पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में सदियों से होता आया है। यह पर्वतमाला इन जीवों के लिए केवल आवास नहीं, बल्कि सुरक्षा कवच भी है। जब जंगल कटते हैं और पहाड़ तोड़े जाते हैं, तो केवल पत्थर नहीं गिरते, बल्कि पूरे पारिस्थितिकी तंत्र की नींव हिल जाती है। कई प्रजातियाँ अपने घर खो देती हैं, और कुछ हमेशा के लिए इस धरती से विलुप्त हो जाती हैं। यह हानि केवल प्रकृति की नहीं, बल्कि मानवता की भी है, क्योंकि जैव विविधता का संतुलन ही जीवन की निरंतरता को बनाए रखता है।
आज अरावली अपने अस्तित्व के सबसे कठिन दौर से गुजर रही है। खनन की भूख, शहरी विस्तार की अंधी दौड़ और विकास की संकीर्ण परिभाषा ने इस प्राचीन पर्वतमाला को खतरे में डाल दिया है। मशीनों की दहाड़, विस्फोटों की गूँज और ट्रकों की आवाज़ ने उस मौन को तोड़ दिया है, जिसमें अरावली सदियों से धरती की रक्षा करती आई थी। विडंबना यह है कि जो पर्वत करोड़ों वर्षों तक भूकंपों, आँधियों और जलवायु परिवर्तनों को सहता रहा, वह आज मानव की लालच से भयभीत है। यह भय केवल अरावली का नहीं, बल्कि हमारे भविष्य का है।
इस संकट को और गहरा बनाती है वह सोच, जो पर्वत की परिभाषा को केवल उसकी ऊँचाई से जोड़कर देखती है। यह कहा जा रहा है कि जिन पहाड़ियों की ऊँचाई सौ मीटर से कम है, वे पहाड़ नहीं मानी जाएँगी। यह दृष्टिकोण प्रकृति की आत्मा को समझने में पूरी तरह विफल है। अरावली भले ही हिमालय जैसी ऊँचाई न रखती हो, लेकिन उसकी उम्र, स्थिरता और उपयोगिता किसी भी विशाल पर्वत से कम नहीं है। यह बूढ़ी है, पर कमजोर नहीं; यह शांत है, पर निष्क्रिय नहीं। इसकी ताकत उसके विस्तार, उसकी जड़ों और उसके धैर्य में है। इसे केवल ऊँचाई के पैमाने पर तौलना, प्रकृति के साथ घोर अन्याय है।
अरावली के टूटने का प्रभाव केवल पर्यावरण तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि मानव स्वास्थ्य पर भी गहरा असर पड़ेगा। खनन गतिविधियों से हवा में धूल और जहरीले कण फैलते हैं, पानी में भारी धातुएँ घुल जाती हैं। इसका परिणाम दमा, टीबी, त्वचा रोग, आँखों की बीमारियों और अन्य गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं के रूप में सामने आता है। जो विकास आज कुछ लोगों को आर्थिक लाभ देता दिख रहा है, वही विकास कल समाज को असाध्य रोगों और जीवन की गिरती गुणवत्ता की ओर धकेल सकता है। यह एक ऐसी कीमत है, जिसे आने वाली पीढ़ियाँ चुकाने के लिए मजबूर होंगी।
प्राकृतिक आपदाओं का खतरा भी अरावली के विनाश से कई गुना बढ़ जाता है। जब पहाड़ और जंगल नहीं होते, तो मिट्टी को बाँधने वाली शक्ति कमजोर पड़ जाती है। परिणामस्वरूप मृदा अपरदन बढ़ता है, बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएँ आम हो जाती हैं, और ज़मीन धँसने लगती है। यह सब केवल ग्रामीण क्षेत्रों तक सीमित नहीं रहता, बल्कि शहर भी इसकी चपेट में आते हैं। शहरी बाढ़, जलभराव और बुनियादी ढाँचे का क्षरण इसी असंतुलन का परिणाम है।
अरावली आज खामोश होकर हमसे प्रश्न कर रही है—क्या उसकी आवश्यकता समाप्त हो गई है? यह प्रश्न केवल एक पर्वतमाला का नहीं, बल्कि हमारी सोच, हमारी संवेदनशीलता और हमारे विकास के दृष्टिकोण का है। यदि हमने आज अरावली को खो दिया, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमसे पूछेंगी कि जो तुम्हें बचाता था, जो तुम्हारे लिए जल, हवा और संतुलन का आधार था, तुमने उसे क्यों नहीं बचाया। उस प्रश्न का उत्तर हमारे पास तभी होगा, जब आज हम विकास और विनाश के बीच का अंतर समझें।
अरावली को बचाना केवल पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा नहीं है, यह अपने भविष्य की रक्षा का प्रश्न है। यह स्वीकार करने का समय है कि प्रकृति के साथ सामंजस्य ही स्थायी विकास का एकमात्र रास्ता है। अरावली हमें आज भी अवसर दे रही है कि हम रुकें, सोचें और अपनी दिशा बदलें। यदि हमने उसकी इस खामोश पुकार को सुन लिया, तो शायद हम आने वाली पीढ़ियों को एक संतुलित, सुरक्षित और जीवंत धरती सौंप सकेंगे। लेकिन यदि हम बहरे बने रहे, तो इतिहास हमें उस पीढ़ी के रूप में याद रखेगा, जिसने अपने ही संरक्षक को नष्ट कर दिया।





