अरावली बनाम तथाकथित विकास: प्रकृति के शोषण की कीमत

Aravalli vs so-called development: The cost of exploiting nature

सुनील कुमार महला

मनुष्य के स्वार्थ और लालच की कोई सीमा नहीं है और आज मनुष्य को विकास के सिवाय जैसे कुछ नज़र ही नहीं आता है, लेकिन विकास के बीच प्रकृति को नजरंदाज करने को क्या ठीक या जायज ठहराया जा सकता है ? अरावली पर्वत श्रृंखला केवल पहाड़ ही नहीं है, बल्कि यह तो उत्तर भारत की प्राकृतिक जीवन–रेखा है। जहां एक ओर यह मरूस्थल रोकने में ढ़ाल है,जल संरक्षण और भूजल पुनर्भरण के लिए वरदान है, वहीं पर दूसरी ओर यह वनस्पतियों, वन्यजीवों, पक्षियों और औषधीय पौधों का प्राकृतिक घर भी है, जो पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखते हैं। इतना ही नहीं, जलवायु और वर्षा संतुलन,भूमि क्षरण और बाढ़ नियंत्रण,वायु प्रदूषण से सुरक्षा के साथ ही अरावली कृषि और मानव जीवन का भी प्रमुख आधार है। वास्तव में, यह भारत की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखला है, जो हमारी सांस्कृतिक विरासत और सभ्यता के विकास की साक्षी रही है,जिसके संरक्षण में ही मानव, पर्यावरण और भविष्य की सुरक्षा निहित है। इसे बचाना केवल पर्यावरण का नहीं, बल्कि हमारे अस्तित्व का भी प्रश्न है। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि आज का मनुष्य स्वयं को विकास की दौड़ में सबसे आगे समझने लगा है, पर यह विकास प्रकृति की कीमत पर हो रहा है। शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के नाम पर जंगलों का सफाया, पहाड़ों का कटाव और नदियों का दोहन लगातार बढ़ता जा रहा है। हर ओर कंक्रीट की ऊँची-ऊँची दीवारें खड़ी कर दी गई हैं। सड़कें, पुल, बांध, सुरंगें और बड़े-बड़े औद्योगिक प्रोजेक्ट्स इस तरह बनाए जा रहे हैं, मानो प्रकृति केवल उपयोग की वस्तु हो, संवेदनशील जीवन-तंत्र नहीं। पिछले कुछ समय से देश में खनन के औचित्य और इसके पर्यावरण पारिस्थितिकी पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर कई सवाल उठे हैं, लेकिन यह पूरा मसला विकास बनाम प्रकृति के संरक्षण के द्वंद्व में उलझ कर रह जाता है। आज आदमी को केवल विकास चाहिए, प्रकृति से उसे कोई खास सरोकार नज़र नहीं आता है। विकास की इस अंधी दौड़ में आज वृक्षों की अंधाधुंध कटाई की जा रही है, जबकि वृक्ष ही धरती के फेफड़े हैं। इनके कटने से वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा लगातार बढ़ रही है, जिसका सीधा असर वैश्विक तापमान और जलवायु परिवर्तन पर पड़ रहा है। मौसम और जलवायु का संतुलन आज बिगड़ चुका है-कहीं असमय बारिश, कहीं भीषण सूखा, तो कहीं विनाशकारी बाढ़ और चक्रवात सामान्य होते जा रहे हैं।इस तथाकथित विकास का सबसे दर्दनाक पहलू यह है कि इससे केवल प्रकृति ही नहीं, बल्कि असंख्य जीव-जंतुओं, वनस्पतियों तथा चरागाहों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ गया है। जंगल कटने से जानवरों के प्राकृतिक आवास(अधिवास) छिन रहे हैं, जिससे मानव-वन्यजीव संघर्ष बढ़ रहा है। कई प्रजातियाँ विलुप्ति के कगार पर पहुँच चुकी हैं, और जैव- विविधता को अपूरणीय क्षति हो रही है।अब यहां यक्ष प्रश्न यह उठता है कि क्या ऐसा विकास टिकाऊ है? क्या वह विकास, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए स्वच्छ हवा, शुद्ध जल और सुरक्षित पर्यावरण न छोड़ सके, सच में विकास कहलाएगा? वास्तव में, आज आवश्यकता इस बात की है कि हम विकास की परिभाषा पर पुनर्विचार करें। प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर, पर्यावरण-संरक्षण को केंद्र में रखकर ही सच्चा और स्थायी विकास संभव है।आज मनुष्य को यह समझना होगा कि प्रकृति का शोषण करके वह स्वयं अपने भविष्य को संकट में डाल रहा है। यदि अभी भी चेतना नहीं जागी, तो विकास की यह दौड़ अंततः विनाश की दिशा में ही ले जाएगी। यह बात ठीक है कि आज विकास बहुत जरूरी है, लेकिन अगर विकास के नाम पर प्रकृति को बेधड़क नुकसान पहुँचाया जाए, तो अंत में उसका फायदा किसी को नहीं होगा। जैसा कि इस आलेख में ऊपर भी चर्चा कर चुका हूं कि अरावली पर्वत श्रृंखला केवल पहाड़ नहीं है, बल्कि यह बड़े इलाके और लाखों लोगों के लिए ढाल की तरह काम करती है।मसलन, यह रेगिस्तान को रोकती है, पानी बचाती है(जल संरक्षण और जल पुनर्भरण) और हमारे पर्यावरण व पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित रखती है। इसलिए यहां सवाल यह उठता है कि ऐसी जीवन-रेखा को नुकसान पहुँचाने पर समाज को चुप रहना चाहिए या उसके संरक्षण के लिए खड़ा होना चाहिए ? पाठक जानते होंगे कि हाल ही में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने यह बात कही है कि अरावली पहाड़ी वही मानी जाएगी, जो आसपास की जमीन से कम से कम 100 मीटर ऊँची हो। इसका सीधा अर्थ यह निकाला जा रहा है कि इससे कम ऊँचाई वाले कई क्षेत्र कानूनी तौर पर अरावली के दायरे से बाहर हो सकते हैं। इसी वजह से यह चिंता और बहस तेज हो गई है कि कहीं इस परिभाषा के कारण अरावली के संरक्षण को कमजोर न कर दिया जाए। वास्तव में, अदालत की नई परिभाषा(अरावली) के बाद यह डर पैदा हो गया है कि अगर 100 मीटर से कम ऊँचाई वाली अरावली की पहाड़ियों में खनन, निर्माण और व्यावसायिक गतिविधियों की अनुमति मिलती है, तो इसका असर सिर्फ उन्हीं पहाड़ियों तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि पूरे अरावली क्षेत्र के पर्यावरण और यहां के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को भारी नुकसान हो सकता है। गौरतलब है कि अरावली को उत्तर भारत के पर्यावरण की प्राकृतिक ढाल माना जाता है, जो मरुस्थलीकरण, जल संकट और जलवायु असंतुलन को रोकती है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में अरावली क्षेत्र में जिस तरह खनन गतिविधियां बढ़ीं हैं, उससे इसके दुष्परिणाम पहले ही दिखने लगे हैं। हालाँकि, सरकार कह रही है कि खनन केवल 0.19% क्षेत्र तक सीमित रहेगा, पर चिंता यह है कि एक बार खनन की अनुमति मिल गई तो भविष्य में इसका दायरा बढ़ने से कौन रोकेगा? यही इस पूरे कथन की मूल चिंता और संदेश है। बहरहाल, यदि हम यहां इसे सरल शब्दों में समझें तो अरावली पर्वत श्रृंखला को जो नुकसान हुआ है, उसके पीछे मानव स्वार्थ, अव्यवस्थित विकास और सरकारी प्राथमिकताओं की कमी जैसे कई कारण हैं। उपलब्ध जानकारी के अनुसार पिछले कुछ दशकों में अरावली क्षेत्र में खनन, निर्माण, सड़कें, कॉलोनियां और उद्योग तेजी से बढ़े हैं। लोगों ने अपनी सुविधा और तात्कालिक लाभ के लिए पहाड़ियों को काटा, जंगल साफ किए और बड़े पैमाने पर पत्थर व खनिज निकाले। कहना ग़लत नहीं होगा कि इससे अरावली की प्राकृतिक बनावट टूट गई। जब पहाड़ और जंगल खत्म होते हैं तो वे वर्षा जल को रोक नहीं पाते, न ही जमीन के भीतर पानी को जमा कर पाते हैं। शायद इसी का नतीजा है कि आज आसपास के शहरों में, यहां तक कि गांवों तथा ढ़ाणियों तक में भी भूजल स्तर तेजी से गिर रहा है, गर्मी बढ़ रही है और हवा की गुणवत्ता लगातार खराब होती चली जा रही है। अब यहां प्रश्न यह उठता है कि आखिर अरावली का संरक्षण क्या इसलिए महत्वपूर्ण नहीं दिखता है,क्योंकि इसके खनन और निर्माण से तुरंत राजस्व, रोजगार और विकास का भ्रम पैदा होता है। वास्तव में सच तो यह है कि दीर्घकालीन पर्यावरणीय नुकसान धीरे-धीरे सामने आता है, इसलिए उसे अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। इसके अलावा, अलग-अलग राज्यों की नीतियां, कानूनी उलझनें और शक्तिशाली कारोबारी हित भी संरक्षण के रास्ते में बाधा बनते हैं। अंत में यही कहूंगा कि अरावली सिर्फ पहाड़ों की एक श्रृंखला नहीं है। यह थार रेगिस्तान को फैलने से रोकती है, वर्षा जल को जमीन में उतारकर भूजल को रिचार्ज करती है, जंगलों और वन्यजीवों को आश्रय देती है और करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी और जीवन सुरक्षा से जुड़ी है। पर्यावरण विशेषज्ञों का यह मानना है कि अरावली को आर्थिक लाभ की नजर से नहीं, बल्कि पर्यावरण, जलवायु और भविष्य की पीढ़ियों की सुरक्षा के नजरिये से देखा जाना चाहिए। आज के इस आधुनिक दौर में दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण की बातें हो रही हैं, लेकिन जमीन पर विकास के नाम पर जो गतिविधियां चल रही हैं, वे कई बार प्रकृति के खिलाफ जाती हैं। वास्तव में,अरावली के मामले में जो भी फैसले या नीतियाँ बनें, उनमें तुरंत मिलने वाला आर्थिक या व्यावसायिक लाभ (जैसे खनन, निर्माण, रियल एस्टेट) को प्राथमिकता नहीं दी जानी चाहिए। वास्तव में होना तो यह चाहिए कि हम लंबे समय के पर्यावरणीय नुकसान-जैसे जल संकट, मरुस्थलीकरण, जैव-विविधता का नाश और जलवायु असंतुलन आदि को नजरअंदाज नहीं करके पर्यावरण संरक्षण पर समुचित ध्यान दें।यानी आज का छोटा लाभ भविष्य की बड़ी कीमत पर यदि हासिल किया जा रहा है, तो यह ठीक नहीं है। वास्तव में अरावली के क्रम में यदि समय रहते संतुलित और जिम्मेदार फैसले नहीं लिए गए, तो इसका असर सिर्फ अरावली तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि पूरे उत्तर-पश्चिम भारत की जलवायु और जीवन व्यवस्था पर पड़ेगा।इसलिए पर्यावरण और पारिस्थितिकी के प्रति संवेदनशील सोच, जिम्मेदार नीतियाँ और प्रकृति के प्रति गहरा सम्मान आज समय की मांग है।तभी वास्तव में यह धरती(यह नीला ग्रह) और मानव दोनों का अस्तित्व सुरक्षित रह पाएगा।