ललित गर्ग
धार्मिक व साम्प्रदायिक भावना को धार देकर देश में भय, अशांति एवं अराजकता पैदा कर, वर्ग विशेष की सहिष्णुता को युगों से दबे रहने ही संज्ञा देकर, एक को दूसरे सम्प्रदाय के आमने-सामने कर देने का कुचक्र एक बार फिर फन उठा रहा है। यह साम्प्रदायिकता के आधार पर बंटवारे का प्रयास है और मकसद, वही सत्ता प्राप्त करना या सत्ताधारियों को कमजोर करना है। एक उत्सवी माहौल को खौफ और तनाव की स्थिति में तब्दील कर देने की सीख तो कोई धर्म दे ही नहीं सकता, लेकिन साम्प्रदायिक उन्माद को बढ़ाने में राजनीतिक पोषित असामाजिक तत्वों का तो हाथ रहता ही है, जोधपुर में कुछ सिरफिरे लोगों की खुराफात ने अधिसंख्य को ईद, अक्षय तृतीया और परशुराम जयंती की खुशियों से वंचित कर दिया। यकीनन, इसमें प्रशासनिक लापरवाही की बड़ी भूमिका है और राजस्थान सरकार इस अपयश से बच नहीं सकती। साम्प्रदायिकता फैलाने वाले ये लोग कांच के महल में बैठकर कैसे सुरक्षित रह सकते हैं? खुद भी अशांत एवं असुरक्षित एवं दूसरों के जीवन में भी डर एवं भय का निर्माण करते हैं। कब तक देश इन हालातो से झुलसता रहेगा।
देश के अन्य भागों और राजस्थान का ही करौली शहर एक माह पहले सांप्रदायिक दंगे की चपेट में था। फिर रामनवमी शोभायात्रा के दौरान कुछ जगहों से दो समुदायों की आपसी झड़प की खबरें आई थीं, और अब कल की जोधपुर की वारदात बताती है कि राज्य प्रशासन पर्याप्त चौकस नहीं था। वह भी तब, जब राज्य सरकार इस तथ्य से बखूबी वाकिफ है कि अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर धार्मिक धु्रवीकरण में ऐसी वारदातें खाद-पानी का काम करेंगी। क्या राजस्थान में सत्ताधारी पार्टी इस तरह के धार्मिक धु्रवीकरण और हिंसा-अशांति को सत्ता तक दुबारा पहुंच का माध्यम मानने की भूल तो नहीं कर रही है? क्या सरकार की नाकामी की वजह से ऐसी घटनाएं हो रही हैं?
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अगर प्रांत का सर्वोच्च शासक एवं कानून-व्यवस्था सख्त हो, तो किसी भी तरह का उपद्रव फैलाना आसान नहीं होता। मगर पिछले कुछ दिनों में हुई घटनाओं को देखते हुए यही लगता है कि कुछ उपद्रवी तत्त्व बाकायदा रणनीति बना कर ऐसी घटनाओं को अंजाम देते हैं। कुछ मामलों में उनकी पहचान भी हो चुकी है। सरकार की मंशा होती तो वह इन घटनाओं को रोक सकती थी। राजस्थान सरकार धार्मिक मामलों के प्रबंधन में उत्तर प्रदेश से सीख सकती है। पिछले कुछ महीनों में प्रशासनिक सख्ती और सामुदायिक सामंजस्य का जैसा उदाहरण इस प्रांत ने पेश किया है, वह अन्य राज्यों के लिए अनुकरणीय होना चाहिए। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रशासनिक अधिकारियों को सख्त आदेश दिया था कि ट्रैफिक रोककर कहीं कोई आयोजन न हो, और इसके लिए बाकायदा सभी धर्मों के धर्मगुरुओं से संपर्क करके व्यवस्था सुनिश्चित की जाए। यदि प्रशासन निष्पक्ष हो, पारदर्शी तो किसी समुदाय के पास शिकायत की गुंजाइश भी नहीं बचती। उत्तर प्रदेश सरकार ने लाउडस्पीकरों के इस्तेमाल को लेकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को जिस तरह से लागू कराया है, वह तो नजीर है। एक लाख से भी अधिक अनधिकृत लाउडस्पीकर व ध्वनि-विस्तारक यंत्र मंदिरों और मस्जिदों से इनके प्रबंधनों ने स्वतः एवं स्वैच्छा से उतारकर एक मिसाल पेश की है। यह शासक एवं प्रशासक की जागरूकता एवं प्रयासों से ही संभव हुआ है। मगर जिस तरह कुछ राज्य सरकारें और राजनीतिक शीर्ष नेतृत्व ऐसे उपद्रवी तत्त्वों को प्रोत्साहित करते या फिर उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने के बजाय चुप्पी साधे देखे गए, उससे ऐसे लोगों का मनोबल बढ़ता ही है और वहां साम्प्रदायिक द्वेष, नफरत एवं हिंसा का वातावरण उग्र होता ही है।
भारतीय समाज विविधताओं से भरा है। यहां विभिन्न समुदाय अपनी आस्था और रुचि के अनुसार पूजा पद्धति, खानपान, पहनावा अपनाने को स्वतंत्र हैं। मगर इन दिनों इन्हीं को लेकर झगड़े अधिक देखे जा रहे हैं, कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि सत्ता से दूर होने या दूर रहने की बौखलाहट के कारण राजनेताओं ऐसे षड़यंत्र करते हैं। इस तरह सामाजिक समरसता भला कैसे सुरक्षित रहेगी? सरकारों का दायित्व है कि हर समुदाय की पहचान और उसके अधिकारों को सुरक्षित रखे। यह तभी हो सकता है, जब वे ऐसे उपद्रवी तत्त्वों को किसी भी तरह का ढुलमुल रवैया न अपनाएं, अपराधी तत्वों के खिलाफ सख्ती बरते। अगर इसी तरह समाज में उपद्रव, हिंसा और नफरत फैलाने वाली घटनाएं होती रहीं, तो यह किसी भी रूप में देश के लिए हितकर नहीं होगा।
लोकतंत्र की कामयाबी भी इसी में है कि लोक राज करे, और तंत्र सिर्फ सहायक की भूमिका में हो। लेकिन यह आदर्श स्थिति तभी पैदा हो सकती है, जब सत्तारूढ़ नेतृत्वों को लेकर सभी समुदायों में यह भरोसा हो कि वे किसी भी गैर-कानूनी, असामाजिक गतिविधि को बर्दाश्त करने वाले नहीं हैं। यह विडम्बना ही है या राजनीतिक दुराग्रह कि पिछले कुछ दशकों में हमारे समूचे राजनीतिक वर्ग ने इस मामले में ज्यादातर निराश ही किया है। देश में सांप्रदायिक हिंसा की बढ़ी घटनाएं इसी तथ्य की साक्षी बन रही हैं। ऐसे में, उत्तर प्रदेश यदि सांप्रदायिक सौहार्द की नई इबारत लिख सका, तो यह उसकी आर्थिक-सामाजिक तरक्की के साथ-साथ देश के लिए भी काफी सुखद होगा। राजस्थान सरकार को इससे प्रेरणा लेते हुए प्रांत में साम्प्रदायिक सौहार्द का वातावरण बनाना चाहिए।
मानव की विकास-यात्रा ही भौतिक विकास यात्रा हो सकती है। मानव की विकास यात्रा का अर्थ है दूसरे के दर्द में टीस पैदा होना एवं दूसरे के आनन्द में पुलक का जन्म होना। इसी से एक नया तत्व जुड़ जाता है संवेदनशीलता का। उसी से साम्प्रदायिक सौहार्द, वसुधैव कुटुम्बकम का भाव पनपता है। जिस वक्त देश के कुछ प्रांतों में सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने की कोशिश की जा रही है, ठीक उसी दौर में धार्मिक भाईचारे की पुलक पैदा करने वाली खबरें भी सुर्खियां बन रही हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते होंगे, जब बिहार में एक मुस्लिम परिवार द्वारा राम मंदिर के लिए करोड़ों की जमीन दान करने के समाचार ने सबका ध्यान खींचा था, और अभी चंद रोज पहले उत्तराखंड के काशीपुर में दो हिंदू बहनों ने चार बीघा जमीन ईदगाह को दान कर दी है। इसी ताने-बाने को सहेजने की दरकार है। भारत की छवि को दुनिया भर में धूमिल करने वाली घटनाओं को लेकर सरकारों को ही नहीं, समाज निर्माताओं को भी सावधान रहना होगा। आज इंसान से इंसान से जोड़ने वाले तत्व कम है, तोड़ने वाले अधिक है। इसी से आदमी आदमी से दूर हट गया है। उन्हें जोड़ने के लिये प्रेम चाहिए, करुणा चाहिए, भाईचारा चाहिए, एक दूसरे को समझने की वृत्ति चाहिए। ये सब मानवीय गुण आज राजनीतिक स्वार्थों एवं साम्प्रदायिक आग्रहों के कारण तिरोहित हो गये हैं और इसी के कारण आदमी आदमी के बीच चौड़ी खाई पैदा हो गयी है। भारतीय संस्कृति ने सारी वसुधा को अपना कुटुम्ब माना है, उसके इस सोच को कुंद करने वाली दूषित राजनीति एवं साम्प्रदायिक शक्तियों को निस्तेज करना होगा, उसके लिये व्यापक प्रेम की वृत्ति एवं हृदय की विशालता आवश्यक है। अब कोई भी अकेला सुखी नहीं रह सकता, उसे भारत रूपी विभिन्न जाति, धर्म, भाषा, वर्ग के परिवार की कल्पना और रचना को सुदृढ़ता देनी ही होगी, तभी अशांति दूर होती, तभी साम्प्रदायिक हिंसा की काली रात के बाद उजली भोर होगी।