अत्र तत्र सर्वत्र (सेल्फी)

शिशिर शुक्ला

एक जमाना था जब छायाचित्रकार (फोटोग्राफर) महोदय एक बेहद महत्वपूर्ण व्यक्ति हुआ करते थे। यूं तो आज भी उनका महत्व पर्याप्त है, किंतु अब यह केवल शादी, पार्टी व समारोहों तक ही सीमित होकर रह गया है। पुराने जमाने में जनमानस का दृष्टिकोण उनके प्रति कुछ अलग ही था। सवाल यह उठता है कि उनका महत्व आखिर किसने घटाया? हालांकि आरोप किसी व्यक्ति पर न लगकर, तकनीकी के ऊपर लग जाता है। तकनीकी ने जब से हम सबको मोबाइल फोन भेंट किया है और हम जब से स्वयं को मोबाइल फोन के संचालन में पारंगत समझने लगे हैं, तब से हमने इस पर विभिन्न प्रयोग व शोध भी अपने स्तर से करने प्रारंभ कर दिए हैं। इसी मोबाइल फोन ने हमें फोटोग्राफी की एक नवीन व विचित्र विधा से भी परिचित करवाया है जिसका नाम है- सेल्फी। सेल्फी अर्थात खुद का ही चित्र खुद के द्वारा खींचा जाना। अब जब हम खुद ही खुद का चित्र खींचने में सक्षम हैं, तो फिर फोटोग्राफर महोदय की क्या आवश्यकता। खैर फोटोग्राफर को छोड़ते हैं और बात करते हैं सेल्फी की। सेल्फी इस हद तक अपना रंग जमाएगी, कि 3 वर्ष के बच्चे से लेकर 80 वर्ष के वृद्ध भी इसके दीवाने हो जाएंगे, संभवतः ऐसी कल्पना तो सेल्फी के आविष्कारक ने भी नहीं की होगी। बहरहाल आज सेल्फी, दौर पर अपना प्रभुत्व पूर्णतया जमा चुकी है। एक गीत याद आता है -“जो मेरी रूह को चैन दे प्यार दे…”, आज सेल्फी की भी कुछ ऐसी ही स्थिति है। जहां आज का टीनएजर अपने क्रश के साथ सेल्फी लेता हुआ नजर आता है, वहीं अधेड़ अपने परिवार के साथ, और वयोवृद्ध को कोई मिला तो ठीक, नहीं तो बेचारा अकेला ही लगा पड़ा है। इनमें भी कुछ लोगों पर तो सेल्फी का भूत इस कदर चढ़ा रहता है कि वह किसी स्थान पर किसी परिस्थिति में सेल्फी लेने से नहीं चूकते। सड़क, बाजार, पहाड़, नदी, पुल, पड़ोसी, रिश्तेदार, अजनबी, नेता, जानवर, वगैरह-वगैरह.. कैसा भी दृश्य हो अथवा कैसे भी लोग हों, बस सेल्फी आनी चाहिए।

सेल्फी भी कुछ ऐसी चीज है, जिसके भी कुछ अपने ही नखरे हैं, ठीक उसी तरह जैसे तथाकथित गर्लफ्रैंड के होते हैं। सेल्फी कभी भी आसानी से शिकंजे में आती ही नहीं। यद्यपि कुछ महान लोग इस पर निरंतर शोध कार्य में लिप्त रहते हैं, जिस कारण वे सेल्फी की नस नस पहचानते हैं। ऐसे व्यक्ति जब सेल्फी खींचते हैं, तो बेचारी सेल्फी सारे नखरे छोड़कर उनकी इच्छानुरूप कैमरे में कैद हो जाती है। रही बात अनाड़ियों की, तो वह बेचारे सेल्फी लेने में लगे रहते हैं लेकिन सेल्फी उन्हें कोई लाइन न देकर बस खेल खिलाती रहती है। किंतु वे भी ठहरे बड़े वीर, जो हार ना मानकर, जैसी सेल्फी प्राप्त हुई, वैसी ही अपने स्टेटस पर लगाकर पेल देते हैं। कुछ दयनीय प्राणी ऐसी श्रेणी में भी आते हैं, जो बेचारे अथक प्रयास कर डालते हैं परंतु उनसे सेल्फी ली ही नहीं जाती। कारण यह कि, ऐन वक्त पर जब क्लिक हो रहा होता है, तो उनके शरीर में न जाने कहां से कंपन उत्पन्न हो जाता है और सेल्फी बिदक जाती है। नतीजतन सामने आती है- एक धुंधली सी इमेज, जो किसी काम की नहीं होती। इस दुर्घटना से बेचारों के आत्मविश्वास का स्तर और गिर जाता है। ऐसे लोगों को यदि समूह में सेल्फी लेने हेतु कह भी दिया जाए, तो वह तुरंत ही सतर्क होकर यह कार्य किसी दूसरे पर डाल देते हैं। कुल मिलाकर सेल्फी आज जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है। माना यह आत्मप्रेम व्यक्त करने का एक माध्यम है, किंतु अधिक क्या कहूं, आज की स्थिति देखकर एक गीत भी याद आ जाता है- “जादू है नशा है, मदहोशियां हैं, तुझको भुला के अब जाऊं कहाँ…”