गोविन्द ठाकुर
कर्नाटक विधान सभा चुनाव से पहले कांग्रेस के लिए इस तरह के चुनावी मुददे मायने नहीं रख रहे थे । मगर इस चुनाव में कांग्रेस ने मजबूर होकर आप (केजरीवाल) के फार्मूले को अपनाया और वह आसानी से बीजेपी को पटखनी दे दी। तब से लेकर कांग्रेस सभी चुनावों में उस फार्मूले को अजमाना चाह रही है। मगर जो सवाल उठ रहा है कि अगर खजाने का मुंह वोट लुभावन मुददे में खर्च हो जायेगा फिर जनता के वेलफेयर का काम कैसे होगा। क्या यह ठीक है.. ? । मगर केजरीवाल के इस फार्मूले को सिर्फ कांग्रेस ही नहीं बल्की बीजेपी भी हाथों हाथ ले रही है।….जो चिंता की विषय है…।
कांग्रेस ने हैदराबाद में हुई अपनी कार्यसमिति की बैठक के तुरंत बाद तेलंगाना विधानसभा चुनाव के लिए अपने अभियान की औपचारिक शुरुआत कर दी। हाल की अपनी चुनावी रणनीति के तहत पार्टी ने तेलंगाना के मतदाताओं के सामने छह गारंटियों का वादा रखा। चूंकि ऐसा वादा कर्नाटक में कामयाब रहा था और पार्टी ने सत्ता में आते ही तुरंत उन पर अमल कर दिया, तो इस पड़ोसी राज्य में पार्टी के पास विश्वसनीयता का आधार भी मौजूद है। कांग्रेस नेताओं ने राज्य के लोगों से कहा है कि वे चाहें तो कर्नाटक में पार्टी ने जो किया, उस पर ध्यान दे लें। गारंटियों का सार मोटे तौर पर प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण है। यानी ऐसे लाभ जो सबको तुरंत नजर आते हैं। चुनाव जिताने के लिहाज से ऐसे वायदे कारगर साबित हुए हैं। अरविंद केजरीवाल से लेकर भाजपा तक ने इस मॉडल से सफलताएं हासिल की हैं। लेकिन अगर देश की जड़ों के मजबूत होने और भविष्य निर्माण के नजरिए से देखें, तो यह तरीका समस्याग्रस्त है। खुद कांग्रेस के डेटा एनालिसिस डिपार्टमेंट के प्रमुख प्रवीण चक्रवर्ती ने हाल में एक संवाद में कहा था कि ऐसे लाभ महज दर्द निवारक हैं।
यानी यह रोग का इलाज नहीं हैं। रोग ऐसी उत्पादक अर्थव्यवस्था का निर्माण है, जिसमें रोजगार के अवसर पैदा हों। सिर्फ तभी देश में सर्वांगीण विकास हो सकता है। इलाज के दौरान दर्द निवारकों की जरूरत पड़ती है। लेकिन यह असली इलाज की कीमत पर नहीं हो सकता। प्रश्न यह है कि प्रत्यक्ष लाभ देने के बाद क्या राजकोष में इतना धन बचेगा, जिसका निवेश मानव विकास के दूरगामी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए किया जा सके? आज की सियासी होड़ में ऐसे सवाल हाशिये पर धकेल दिए गए हैं। ऐसे सवाल ना उठाए जाएं, इसके लिए धर्म-जाति के नाम पर लगातार भावावेश भरा माहौल बनाए रखा जाता है। इस माहौल में सभी पार्टियां चुनावों के वक्त दर्द निवारकों के जरिए बैतरणी पार करने का दांव खेल रही हैं। चूंकि लोग पीड़ा में हैं, इसलिए उन्हें इन दवाओं से राहत भी महसूस होती है। लेकिन वास्तविक बीमारी लाइलाज बनी रहती है।