ललित गर्ग
बांग्लादेश एक बार फिर इतिहास के ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहाँ लोकतंत्र, सत्ता और कट्टरपंथ के बीच की रेखाएँ धुंधली होती जा रही हैं। 17 वर्षों के स्वनिर्वासन के बाद बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया के पुत्र और बांग्लादेश राष्ट्रवादी पार्टी (बीएनपी) के कार्यवाहक अध्यक्ष तारिक रहमान की स्वदेश वापसी केवल एक राजनीतिक घटना नहीं, बल्कि उस अस्थिरता का प्रतीक है, जो शेख हसीना के सत्ता से हटने के बाद देश की राजनीति में लगातार गहराती चली गई है। यह वापसी ऐसे समय में हुई है जब अंतरिम सरकार के मुखिया मोहम्मद यूनुस स्वयं कई मोर्चों पर घिरते नजर आ रहे हैं और जिन ताकतों को उन्होंने व्यवस्था परिवर्तन की उम्मीद में अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष रूप से स्थान दिया, वही आज शांति, सौहार्द और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए गंभीर चुनौती बन चुकी हैं। शेख हसीना की अवामी लीग सरकार के पतन के बाद जिस छात्र आंदोलन को ‘जुलाई क्रांति’ के रूप में प्रस्तुत किया गया था, उससे देश में यह उम्मीद जगी थी कि एक नई, पारदर्शी और समावेशी व्यवस्था की नींव रखी जाएगी। इसी उम्मीद के साथ छात्र नेताओं और नागरिक समाज के एक बड़े वर्ग ने मोहम्मद यूनुस को अंतरिम सरकार की कमान सौंपी। लेकिन कुछ ही महीनों में यह भ्रम टूटने लगा कि यह संघर्ष व्यवस्था परिवर्तन का है। चुनाव को लेकर बढ़ती खींचतान, स्पष्ट रोडमैप का अभाव और सत्ता के इर्द-गिर्द सिमटती निर्णय प्रक्रिया ने यह संकेत दे दिया कि अब लड़ाई लोकतंत्र को मजबूत करने की नहीं, बल्कि सत्ता पर कब्जे की है।
इस संदर्भ में कट्टरपंथी विचारधारा से जुड़े युवा नेता शरीफ उस्मान हादी की हत्या ने स्थिति को और विस्फोटक बना दिया है। हादी जुलाई आंदोलन से उभरे उन चेहरों में थे, जिनका प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था। उनकी हत्या के बाद उनके भाई द्वारा लगाए गए आरोप कि यह हत्या अंतरिम सरकार से जुड़े तत्वों की साजिश है ताकि चुनाव टाले जा सकें, मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार की नैतिकता और निष्पक्षता पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। यदि यह आरोप सही हैं, तो इसका अर्थ यह होगा कि सत्ता में शामिल कुछ शक्तियां जानबूझकर देश को अस्थिरता एवं घोर अशांति की ओर धकेल रही हैं, ताकि चुनावी प्रक्रिया को अपने अनुकूल मोड़ा जा सके। कट्टरपंथी संगठनों की भूमिका इस पूरे परिदृश्य में सबसे चिंताजनक है। जमात-ए-इस्लामी जैसी ताकतों का अंतरिम सरकार पर बढ़ता दबाव, सड़कों पर बढ़ती हिंसा और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाए जाने की घटनाएं यह दर्शाती हैं कि कानून-व्यवस्था तेजी से कमजोर हुई है। विडंबना यह है कि जिन कट्टरपंथी तत्वों को शेख हसीना सरकार के विरोध में ‘लोकतांत्रिक सहयोगी’ के रूप में देखा गया, वही आज बांग्लादेश की सामाजिक संरचना को भीतर से खोखला कर रहे हैं। यह वही ऐतिहासिक भूल है, जो दक्षिण एशिया के कई देशों में पहले भी की जा चुकी है-जहां अल्पकालिक राजनीतिक लाभ के लिए कट्टरपंथ को जगह दी गई और परिणाम दीर्घकालिक अस्थिरता के रूप में सामने आया।
तारिक रहमान की वापसी को इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। ब्रिटेन में 17 वर्षों से अधिक समय बिताने के बाद उनका लौटना केवल व्यक्तिगत निर्वासन की समाप्ति नहीं है, बल्कि बांग्लादेश की राजनीति में एक नए शक्ति-संतुलन का संकेत है। यह तथ्य भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि जिन मुकदमों के कारण वे देश से बाहर थे, उनमें अंतरिम सरकार के दौरान राहत मिली और उनकी वापसी का रास्ता साफ हुआ। जिस दिन तारिक रहमान ढाका लौटे, उसी दिन यह संकेत भी सामने आया कि शेख हसीना की अवामी लीग को आगामी चुनावों से बाहर रखा जा सकता है। यह संयोग कम और रणनीति अधिक प्रतीत होता है। बीएनपी इस समय चुनावी गणित के लिहाज से सबसे मजबूत स्थिति में है और तारिक रहमान को देश का अगला प्रधानमंत्री माने जाने की चर्चा तेज है। लेकिन बड़ा प्रश्न यह है कि क्या अवामी लीग के बिना होने वाला चुनाव बांग्लादेश की जनता की वास्तविक इच्छा को प्रतिबिंबित कर पाएगा? लोकतंत्र केवल सत्ता परिवर्तन का नाम नहीं, बल्कि सभी प्रमुख राजनीतिक धाराओं को समान अवसर देने की प्रक्रिया है। यदि किसी एक बड़े दल को सुनियोजित ढंग से बाहर रखा जाता है, तो चुनाव की वैधता पर संदेह स्वाभाविक है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मोहम्मद यूनुस की सरकार पर दबाव बढ़ रहा है। अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले और कानून-व्यवस्था की बदहाली को लेकर मानवाधिकार संगठनों की चिंताएं लगातार सामने आ रही हैं। इसके बावजूद यह आश्चर्यजनक है कि भारत जैसे पड़ोसी देश से, जहाँ बांग्लादेश के घटनाक्रम का सीधा प्रभाव पड़ता है, अपेक्षित स्तर की कूटनीतिक और नैतिक प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा खालिदा जिया के स्वास्थ्य पर चिंता जताते हुए भारत की ओर से सहयोग की पेशकश करना एक सकारात्मक संकेत है, और बीएनपी द्वारा उसका स्वीकार किया जाना दोनों देशों के बीच नए समीकरणों की ओर इशारा करता है। लेकिन यह भी सच है कि यह निकटता स्वार्थों की राजनीति से पूरी तरह मुक्त नहीं है। बांग्लादेश में हिंदू समुदाय पर लगातार हो रहे हमले अब केवल आंतरिक कानून-व्यवस्था का प्रश्न नहीं रह गए हैं, बल्कि यह भारत की सुरक्षा, कूटनीतिक जिम्मेदारी और नैतिक सरोकार से सीधे जुड़ा गंभीर विषय बन चुका है। हाल ही में अमृत मंडल नामक एक हिंदू नागरिक की पीट-पीटकर हत्या की घटना इस बात का प्रमाण है कि अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने की प्रवृत्ति थमने के बजाय और अधिक निर्भीक होती जा रही है। धार्मिक पहचान के आधार पर हिंसा, मंदिरों पर हमले, जबरन पलायन और भय का वातावरण बांग्लादेश की लोकतांत्रिक साख को गहरा आघात पहुँचा रहे हैं। भारत सरकार के लिए अब यह अनदेखा करने का विषय नहीं रह गया है; आवश्यकता है कि वह कूटनीतिक स्तर पर सख्त संदेश दे, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस मुद्दे को उठाए और यह स्पष्ट करे कि अल्पसंख्यकों की सुरक्षा किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था की अनिवार्य शर्त है।
आगामी चुनावों के संदर्भ में इस तरह की सांप्रदायिक हिंसा को एक केंद्रीय मुद्दा बनाया जाना चाहिए, क्योंकि भय और असुरक्षा के वातावरण में निष्पक्ष चुनाव की कल्पना ही बेमानी है। बांग्लादेश में यदि वास्तव में लोकतंत्र की बहाली का दावा किया जा रहा है, तो वहां ऐसी सरकार का गठन आवश्यक है जो अल्पसंख्यकों के अधिकारों और सम्मान की गारंटी दे सके। हिंदुओं सहित सभी धार्मिक समुदायों की सुरक्षा सुनिश्चित किए बिना न तो राजनीतिक स्थिरता संभव है और न ही क्षेत्रीय शांति। भारत की भूमिका इस संदर्भ में केवल पड़ोसी देश की नहीं, बल्कि एक जिम्मेदार क्षेत्रीय शक्ति की है, जिसे मानवाधिकार और लोकतांत्रिक मूल्यों के संरक्षण के लिए आवश्यक कठोर कदम उठाने से पीछे नहीं हटना होगा।
बांग्लादेश आज जिस मुसीबत के भंवर में फँसा है, उसके पीछे आंतरिक कारकों के साथ-साथ बाहरी प्रभावों की भूमिका से भी इनकार नहीं किया जा सकता। पाकिस्तान की ऐतिहासिक भूमिका और कट्टरपंथी नेटवर्कों के साथ उसके संबंधों को देखते हुए यह आशंका निराधार नहीं कि बांग्लादेश की अस्थिरता में परोक्ष योगदान बाहरी शक्तियों का भी हो सकता है। ऐसे में मोहम्मद यूनुस की यह जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है कि वे अंतरिम सरकार को निष्पक्ष, पारदर्शी और लोकतांत्रिक दिशा में ले जाएँ। लेकिन अब तक के घटनाक्रम यह संकेत देते हैं कि वे हालात को संभालने में पूरी तरह सफल नहीं हो पाए हैं। फिर भी, इस निराशाजनक परिदृश्य के बीच तारिक रहमान के बयानों और राजनीतिक स्वरों में कुछ लोग समाधान की झलक देखते हैं। यह उम्मीद इस विश्वास पर टिकी है कि बीएनपी, चाहे उसका अतीत विवादास्पद रहा हो, सत्ता में आकर कट्टरपंथी दबावों को संतुलित कर सकेगी और लोकतांत्रिक संस्थाओं को पुनर्स्थापित करने का प्रयास करेगी। किंतु यह भी एक कड़वा सत्य है कि कट्टरपंथी ताकतों से लोकतंत्र बहाल होने की उम्मीद अपने आप में एक विरोधाभास है।
अंततः बांग्लादेश के सामने सबसे बड़ा प्रश्न यही है-क्या वह एक समावेशी, बहुदलीय और संवैधानिक लोकतंत्र की राह चुनेगा या फिर सत्ता-संघर्ष और कट्टरपंथ की दलदल में और गहराता जाएगा? इसका उत्तर केवल किसी एक नेता या दल के हाथ में नहीं, बल्कि उस राजनीतिक विवेक में है, जो आने वाले महीनों में देश की दिशा तय करेगा। यदि निष्पक्ष चुनाव, कानून का राज और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की गई, तो तारिक रहमान की वापसी भी इतिहास में एक और चूके हुए अवसर के रूप में दर्ज हो सकती है।





