आदमी हो या ब्रजभूषण

सुरेश सौरभ

कलफदार गालियों, लोकोक्तियों, मुहावरों, मिथकों, किवदंतियों का प्राचीन काल से, आज तक एक लंबा इतिहास-भूगोल रहा है और आगे भी रहेगा। इन दिनों एक नया मुहावरा, नयी लोकोक्ति, नयी चिढ़, लोगों की जुबानों पर चर्चा-ए-आम होती जा रही है, वह यह है, जो बार-बार अपनी काली कारतूतों पर, अपने किये-धरे पर पानी पर पानी डाल रहा हो, धो रहा हो, जो सच्चाई से तनिक भी आंख मिलाना न चाह रहा हो, जो शेखचिल्ली की तरह, फेंकू की तरह लंबी-लंबी फालतू की बराबर रोज फेंक रहा हो, जिसे अपने पद, अपने रसूख की जमीन से, आसमान तक उड़ने की झूठी अकड़ हो, जिसने अपनी चालबाजियों से, अपने राजनैतिक आकाओ के साथ, बहुत गहरी पैठ और पकड़ बना रखी हो, जिसने चौबीस के चुनाव में ज्यादा से ज्यादा सीटें निकलवाने के भ्रमों की माला अपने हाईकमान के गले में पहना रखी हो, जो आशाराम, राम रहीम के पदचिह्नों पर चल चुका हो, जो सरेआम किसी खिलाड़ी को थप्पड़ मार सकता हो, जो मीडिया कर्मियों को भगाते हुए ये कह सकता हो ,चलो अपनी दुकान बढ़ाओ, भागो से, फिर कभी दुबारा अपनी शक्ल यहां न दिखाना, जो अपनी मरियल, धूर्तता की दाहड़ को, सिंह की दहाड़ से मिथ्या तुलना करता हो, जो ये कहे क्या मैं शिलाजीत की रोटियां खाता हूं, जो पेड न्यूज की तरह दिहाड़ी पर पेड समर्थक खड़े करने का कुशल कौशल जानता हो, जो यह बार-बार खुले मंच से, हंसते हुए बेशर्मी से, ये कहे, यौन शोषण कब हुआ? कहां हुआ? कैस-कैसेे हुआ? ये बताएं। उसका आडियो, वीडियो दिखाएं, सुनाएं ..जब हुआ तब क्यों नहीं कहा? और जिनके पेड समर्थक ये कहें कि काहे की पहलवानी जब शोषण खुद का कराते रहे? तब उनके बड़बोल कहां थे?.. जो ये कहे पहलवानों का धरना-प्रदर्शन शाहीन बाग की तरह देश विरोधी है। टुकड़े-टुकड़े गैंग है। किसानों के आन्दोलन की तरह खालिस्तानी-पाकिस्तानी है, जो ये कहे ओलंपिक मेडल पन्द्रह-पन्द्रह रुपये के हैं। गंगा में मेडल डालने गईं थीं डाला क्यों नहीं? जो महिला खिलाडियों का मजाक उड़ाते हुए उन्हें मंथरा तक कह जाए, जो बिकाऊ साधु-संतों को खरीद कर अपने समर्थन में खड़ा करने का मद्दा रखता हो, जिसने अपने चेहरे पर कई-कई मुखौटे पहन रखें हो, जो यौन शोषित बेटियों के विरोध प्रर्दशन को, उनके मासूम आंसुओं को विपक्षियों द्वारा प्रयोजित बता रहा हो। ऐसे निर्लल्ज के लिए लोग यही लोकोक्ति गढ़ रहे हैं-आदमी हो या ब्रजभूषण।