सफल होना काफी नहीं है जीवन की असली खोज सार्थकता की है

अभय कुमार शुक्ल

लहर ने समुंदर से उसकी उम्र पूंछी,
समुंदर मुस्करा दिया |
बूंद ने लहर से उसकी उम्र पूंछी,
लहर चिढ़ गयी, कुढ़ गयी और मर गयी |
बूंद मुस्कराकर समुंदर में समा गयी,
और उसकी उम्र बढ़ा गयी ||

लहर और बूंद, शायद ही समुद्र के जीवन में इनमें से किसी का महत्व कम हो | दोनों ने ही अपने सफल जीवन की पराकाष्ठा का परिचय हर वक्त दिया है | लहर , जिसने अनेक यात्रियों, शहरों और जहाजों को समय – समय पर अपने जीवन से परिचय करवाया है या यूं कहें वह लहर ही है जो शांत समुद्र में हलचल पैदा कर उसे जीवंत बना देती है | परंतु बूंद, न सिर्फ छोटी से उम्र को सम्पूर्ण करती है वरन उसी सलीनता और सहज भाव से समुद्र में मिसरी सी घुलकर उससे अपना परिचय करवाती है और उसकी उम्र बढ़ा जाती है | और यही वजह है कि समुद्र ने बूंद की सलीनता को अपना आदर्श बनाया न कि लहर के उफान को क्योंकि बूंद ने सफल जीवन के साथ – साथ सार्थक जीवन का भी निदर्शन दिया है | संभवतः यही वजह भी है कि मानव समाज ने अपनी जल से जुड़ी किवदंतियों में बूंद को आदर्श माना जैसे –‘बूंद – बूंद से सागर भरता है’ एवं मात्र एक बूंद से ही जल सम्पूर्ण ब्रह्मांड का परिचय बूंद के सार्थक जीवन का ही परिणाम है | निम्नलिखित पंक्तियाँ इसी सार्थक जीवन को ही चिन्हित करती हैं–

“कोई सौ बरस जीकर भी कुछ न कर सका|
कोई कुछ बरस जीकर भी सब कुछ कर गया ||”

भारतीय इतिहास में भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध ऐसे ही उदाहरण हैं, जिन्होने लोगों को जीवन की सार्थकता का महत्व समझाया | दोनों ही क्षत्रिय वंश के राजशाही परिवार में जन्मे थे | सफल जीवन जीने के लिए उनके पास हर इच्छित वस्तु विद्यमान थी परंतु उन्होने राजशाही परिवार में सफल जीवन के बावजूद एक एक सार्थक जीवन जीने का संकल्प लिया | उन्होने सफल जीवन की नयी परिभाषा गढ़ी जिसकी परिणति सार्थक जीवन में थी | और यही वजह है कि कई सदी बीत जाने के बाद भी भारत या यूं कहें सम्पूर्ण विश्व महात्मा बुद्ध एवं भगवान महावीर के बताए गए उन रास्तों पर चलकर अपने जीवन को सार्थक बनाने कि कोशिश करता रहा है | पंचमहाव्रत, आष्टांगिक मार्ग, स्याद्वाद का सिद्धान्त एवं क्षणभंगुर का सिद्धान्त ये सभी आज भी उतने ही प्रासंगिक जितने कि भगवान महावीर एवं महात्मा बुद्ध के समकालीन थे | किसी कवि ने इस संदर्भ में सही ही कहा है –

“कुछ लोग हैं जो वक्त के साँचे में ढल गए |
कुछ लोग हैं जो वक्त साँचे ही बदल गए ||”

वैसे प्रश्न यह भी उठता है कि सफल जीवन और सार्थक जीवन के मध्य अंतर को पहचाना कैसे जाये ? और क्या किसी जीवन को जीने के लिए उसकी सार्थकता आवश्यक है या फिर सफल होना ही हमारे जीवा को पूर्ण कर सकता है?

देखा जाये तो इस संदर्भ में कई लोगों में मतभेद हो सकते हैं | कुछ लोग जो अपने जीवन की खुशी को अपना सब कुछ मानते हैं और उसकी प्राप्ति के लिए वे कोई भी रास्ता आख्तियार करने को तैयार होते हैं और उन्हें जीवन की सफलता ही सम्पूर्ण लगती है |

पूंजीवादी और उपभोक्तावादी दौर में इसकी बढ़ोत्तरी देखि जा सकती है हालांकि इस पक्ष का परिचय भी कोई नया नहीं है |‘चार्वाक दर्शन’ संभवतः इसी जीवन की कामना करते हुये कहता है कि – “ऋणम कृत्वा घृतम पीत्वा” |

वर्तमान युग में इसी उपभोक्तावादी दौर का ही परिणाम है कि असीमित ऊर्जा से भरे लोग भी मात्र सफल जीवन के लिए अपनी सम्पूर्ण उम्र खर्च कर देते हैं और अंततः खुद को खाली हाथ ही पाते हैं | युवाओं के इसी भाव का प्रतिरूप का वर्णन एक कवि ने इस प्रकार किया है –

“जो लोग दुनिया बदलने का ख़्वाब देखते थे|
वो नौकरी के चलते शहर तक नहीं बदल पा रहे ||”

परंतु वे लोग भी हैं जो जीवन की खोज मात्र सफलता में ही नहीं वरन सार्थकता में भी देखते हैं | वे लोगों को भाषा, राष्ट्र, जाति, धर्म, नस्ल में बाँटकर नहीं बल्कि ‘वसुधैव कुटुंबकम’ पर अपने जीवन की गाड़ी चलाते हैं |

हालांकि देखा जाये तो जीवन की सार्थकता की खोज सिर्फ मनुष्यों में ही लागू नहीं होती अपितु प्रकृति में भी लागू होती है प्रकृति के सम्पूर्ण तत्त्व भी जीवन की सार्थकता की खोज में ही अपने जीवन को पूर्ण करते हैं और शास्त्रों में इसका वर्णन इस प्रकार है –

“परोपकाराय वहन्ति नद्य: , परोपकाराय दुहंति गावः |
परोपकाराय फलन्ति वृक्ष: , परोपकार्थम इदं शरीरम ||”

उपर्युक्त उदाहरण से सार्थक जीवन एवं मात्र सफल जीवन के मध्य अंतर भी स्पष्ट हो जाता है | सफल जीवन की परिणति उपभोग से भरी अंतहीन खुशी है | परंतु सार्थक जीवन में वह संतुष्टि एवं आनंद का भाव है जो आत्मा और परमात्मा के मिलन के फलस्वरूप प्राप्त होता है |

भारतीय दर्शन तो सार्थक जीवन जीने की अनेक कथाओं से भरा पड़ा है जैसे कि – महर्षि दधीचि, जिन्होने सम्पूर्ण जगत के लिए अपनी हड्डियाँ दान कर दीं | पश्चिमी दर्शन में सुकरात, अरस्तू, प्लेटो रसेल, ब्रूनों एवं कांट जैसे दार्शनिक भी जीवन की सार्थकता को ही अपना अंतिम पड़ाव मानते हैं |

ब्रूनों को सत्य की खोज थी और उन्होने खोजा कि पृथ्वी, सूर्य के चारों ओर चक्कर लगती है | यह सिद्धान्त ओल्ड टेस्टामेंट के विपरीत था, परंतु सत्य था | ब्रूनों ने अपने ज़िंदगीभर के परिश्रम एवं सत्य केए साथ दिया परिणामतः उन्हें जिंदा जला दिया गया | वे लोग जो उनके सफल जीवन का अंत कर गए उन्हें नहीं पता था कि ब्रूनों अपने जीवन को सार्थक कर गए थे और विज्ञान में क्रांति आ चुकी थी |

दार्शनिक कांट भी जीवन की सार्थकता को कर्तव्यों से तलाशतें है इसीलिए वे “Duty for theshakeofduty” का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हैं | गीता में इसी को “निष्काम कर्मभाव” कहा गया है |

निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि सार्थक जीवन तभी संभव है जब आपके घर के दरवाजे की खिड़कियाँ खुलीं हों और आप विभिन्न संस्कृतियों, मूल्यों, कर्तव्यों के बहाव को स्वीकार कर स्वयं के जीवन को उनके प्रति अर्पित कर दें | संभवतः महात्मा गांधी भी सर्वधर्म सद्भाव, वसुधैव कुटुंबकम, सर्वोदय, आदि भावनाओं एवं उनके क्रियान्वयन से अपने जीवन को सार्थक कर पाये थे |
जीवन की सफलता एवं सार्थक जीवन कोई द्वैध नहीं हैं अपितु एक – दूसरे के पूरक हैं| अगर सफल जीवन रास्ता है तो सार्थक जीवन उसकी खोज या फिर मंजिल |