चुनाव परिणामों के फायदे, सबक और संदेश

Benefits, lessons and messages of election results

  • संविधान, राष्ट्रवाद और जातीय संरचना दलों के जुगाली की वस्तु नहीं

मनोहर मनोज

चुनाव परिणामों के बाद हमारी सोशल मीडिया में एक पोस्ट बड़ी तेजी से वायरल हुआ जिसमे कहा गया कि अठारहवी लोकसभा चुनाव परिणामों से सभी दल खुश हैं। बीजेपी इस बात के लिए खुश हुई कि वह सबसे बड़ी विजेता दल के रूप में उभरी। कांग्रेस को इस बात के लिए खुशी मिली कि उसकी सीटें सीधे दोगुनी हो गईं। समाजवादी पार्टी को इस बात को लेकर खुशी मिली कि उसने युपी में बेहतरीन चुनावी प्रदर्शन किया। तेलगू देशम पार्टी को इस बात की खुशी है कि वह आंध्र प्रदेश में सरकार बनाने जा रही है और केन्द्र में गठित सरकार का हिस्सा बनी । तृणमूल कांग्रेस को इस बात की खुशी हुई कि उसने बंगाल में बीजेपी को बढने से रोक दिया। जनता दल युनाइटेड को इस बात की खुशी है कि वह केन्द्र सरकार का हिस्सा बनेगी।

राजनीतिक दलों के निशाने पर रहने वाली ईवीएम के बारे में इस पोस्ट में कहा गया कि इसे इस बात की राहत है कि इस बार कोई भी दल उसे कोस नहीं कर रहा और इसे लेकर प्रेस कान्फ्रेंस नहीं कर रहा। केजरीवाल को लेकर इस वायरल पोस्ट में कहा गया है कि वे वह अपने शूगर को अब अनियंत्रित नहीं बता पाएंगे।

मतदाताओं यानी पब्लिक को भी इस बात की खुशी है कि चुनावी परिणामों से धड़ाम से गिरे शेयर बाजार में उन्हें नये निवेश का मौका मिला है।

यानी यह एक ऐसा दूर्लभ चुनाव परिणाम आया है जिससे सभी को खुशी प्राप्त हुई है।

एक तरह से देखा जाए तो सोशल मीडिया के मैसेजों को जिन्हें ज्यादा गंभीरता से ना लेकर हम सुधी जन उन पर तंज कसा करते हैं, लेकिन उपरोक्त वायरल मैसेज ने दरअसल भारतीय समाज की पालीटिकल डायनेमिक्स की बड़ी ही सच्चाई से बयान कर गयी। इस परिणाम से यह झलका कि सत्तारूढ दल के खिलाफ देश के अलग अलग पाकेट में असंतोष तो है पर वह राष्ट्रव्यापी नहीं है बल्कि वह प्रादेशिक व स्थानीय स्तर के सामाजिक आर्थिक मु्द्दो व वहां विराजमान गतिशील सामाजिक समीकरणों के सापेक्ष है। ठीक इसी तरह इन परिणामों ने यह भी दर्शाया कि मतदाताओं का विपक्षी दलों के प्रति भी समर्थन का रूझान है पर वह इतना प्रबल नहीं कि समूचे देश में एक बराबर लहर का रूप ले। विपक्ष को मिला समर्थन भी प्रदेश सापेक्ष व सत्तारूढ दल के प्रति एंटी इन्कंबेंसी का प्रतिफल है। कुल मिलाकर इस केन्द्रीय लोकसभा चुनाव के परिणामोंं के जरिये देश में राजनीतिक संघवाद का एक नया दौर स्पष्ट रूप से परिणत होता दिखा। यानी 1989 के बाद भारत की लोकतांत्रिक राजनीतिक पारिस्थितिकी में जो राजनीतिक संघवाद का बीजारोपण हुआ वह 2014 के बाद के दस सालोंं तक अदृश्य रहकर अब पुन: दृश्यमान हो गया है।

इन चुनावी परिणामों को यदि हम चुनावी मुद्दों की चासनी से देखें तो अठारहवी लोकसभा चुनाव के परिणामों के जरिये कई मिथक टूटे। हालांकि भारतीय लोकतंत्र में पहचान की राजनीति की प्रबलता हमेशा ही मौजूद रही है। पर इस बार धर्म की राजनीति धड़ाम से नीचे गिरी है। जिस अधूरे राममंदिर के उद्घाटन के जरिये समूचे देश और खासकर उत्तर प्रदेश में हिंदूत्व की लहर भाजपा द्वारा पूरजोर तरीके से चुनाव में फैैलायी गयी उसे जनता ने खारिज कर दिया। उत्तर प्रदेश ने तो बेरोजगारी और महंगाई के मुद्दो के जरिये धर्म के भावनात्मक मुद्दे की हवा निकाल दी। भाजपा ना केवल अयोध्या में चुुनाव हारी बल्कि प्रधानमंत्री मोदी को वाराणसी सीट पर बेहद सामान्य जीत हासिल हुई। वाराणसी के आसपास पूवी यूपी के अधिकतर सीटों पर तथा पास में बिहार के शाहाबाद अंचल में बीजेपी की बुरी हार हुई।

इस चुनाव परिणाम के जरिये कई स्पष्ट संदेश आए हैं जैसे कि पहचान की राजनीति में अब धर्म का इस्तेमाल ज्यादा लंबा नहीं खिंचेगा और इसका भी हस्र वही होगा जो विगत में जातिवादी राजनीति का हुआ। राजनीतिक दलों को अंतत: जनता के बुनियादी सामाजिक आर्थिक प्रशासनिक मुद्दों को ही दीर्घकालीन रूप से एड्रेस करना होगा । यही मुद्दे स्थायी हैं बाकी भावुकतावाद और पहचानवादी मुद्दें भारतीय मतदाताओं के लिए अब एक्सपायरी की वस्तु बन गयी हैं।

कहना होगा जिस तरह से बीते कालक्रम में भारतीय लोकतंत्र में धनसत्ता व बाहुबल सत्ता की प्रभुता लघुता में तब्दील होती गई। इसी तरह से तमाम राजनीतिक दलोंं में इधर लोकलुभावनवाद और ख्खजाना लुटावनवाद की परिपार्टी जो तेजी से पसरती जा रही थी उसे भी इस बार के लोकसभा चुनाव में तगड़ी चोट मिली है। मिसाल के तौर पर आंध प्रदेश में वाइएसआर कांगे्रस की राजशेखर रेड़ी की सरकार जनता को सीधे नकद भुगतान व मुफत राशन की करीब आधी दर्जन योजनाओं के जरिये खरबों रुपये बांट रही थी, पर इसके बावजूद इस बार वहां की जनता ने उसे पूरी तरह से नकार दिया और चंद्रबाबू नायडू की आधुनिक औद्योगीकृत आंध्र के नारे को समर्थन देने का फैसला किया। यदि मुफतखोरी को जनता सही में समर्थन करती तो वह कर्नाटक की जनता प्रदेश में सत्तारूढ क ांग्रेस सरकार की पांच गारंटी की पचास हजार करोड रुपये के लालच में आकर लोकसभा चुनाव में भी उसे फिर से ज्यादा सीटे जितवाती। मुफतखोरी की राजनीति की प्रतिस्पर्धा में जिस तरह से कांग्रेस द्वारा एक लाख रुपये प्रति वर्ष गरीब महिलाओं में खाते में देने की बात कही गई और मोदी के पांच किलो के बदले दस किलो अनाज देने की बात कही गई, उसे लेकर कांग्रेस को देशव्यापी समर्थन नहीं मिला। दूसरी तरफ भाजपा जिसने कोविड काल से पांच किलो प्रति व्यक्ति मुफत अनाज बांटने की नीति को अगले पांच साल जारी रखने की बात कर जो चार सौ सीटें जीतने का नारा दे रही थी उस धारणा को भी जनता ने नकार दिया।

कहना होगा कि कांग्रेस पार्टी ने इस बार के लोकसभा चुनाव में सतारूढ दल की तमाम राजनीतिक नैरेटिव का बड़ी मजबूती से मुकाबला किया और बेरोजगारी, महंगाई और मोदी द्वारा विपक्षी दलों के दमन के मुद़दे पर जनता का अच्छा समर्थन हासिल किया।

यानी कुल मिलाकर इस चुनाव परिणाम से देश में भारतीय लोकतंत्र के उन तमाम विकारों यानी मनी ,मसल, आइडेंटेटी, पापुलिज्म और हेट स्पीचेज का जिनका पुरजोर प्रचलन कायम था उसके खिलाफ जनता की तरफ से भारत के राजनीतिक दलों को एक बड़ा सबक दिया गया है। ये बात अलग है कि यह भारत के राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है कि वे इसे कितना समझ पाते है।

इन चुनाव परिणामों के जरिये भारत की जनता की तरफ से एक नया संदेश भी दिया है। ये संदेश हैं भारत की संवैधानिकता, राष्ट्रीयता और जातीयता को लेकर। जिस तरीके से इन मुद्दों को विपक्ष ने चुनाव में पुरजोर तरीके से उठाया और सत्ता पक्ष ने उस पर अपना पूरा स्पष्टीकरण भी दिया। लेकिन चुनाव परिणामों के जरिये संदेश ये मिला कि भारत की कांश्च्युशनलिज्म, नेशनलिज्म और एथनीसिटी ये दलीय मुद्दे नहीं हैं जो कोई राजनीतिक दल अपने अपने हिसाब से गलत तरीके से तोड मरोडकर जनता को दिगभ्रमित करने का प्रयास करेंं। भारत का संविधान, राष्ट्रीयता और जातीय संरचना किसी दल विशेष की जागीर नहीं हैं जिसे उठाकर वे जनता की भावनाओं को बेवजह अवशोषित करने का प्रयास करतेे फिरें। ये तीनों चीजें किसी भी राष्ट्र की स्थायी परिसंपत्ति हैं जो उसकी समूची संरचना की डीएनए की तरह हैंै, जो एक बार निर्धारित होकर उस राष्ट्र की समूची संरचना व उसकी अंतरनिहित अवधारणा का हिस्सा बनकर हमेशा अक्षुण्ण होती हैं । इन्हें चुनावी मुद्दा बनाना दलों का दुस्साहस है जो अंतत: उन्हें फजीहत का पात्र भी बनाता है। इस चुनाव परिणाम के जरिये यह संदेश बड़ी स्पष्ट रूप से परिलक्षित हुआ है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सम्पूर्ण सुधार कार्यकर्त्ता है