मॉरीशस में भोजपुरी भाषा और आर्य समाज

Bhojpuri language and Arya Samaj in Mauritius

डॉ.संतोष पटेल

मॉरीशस में एक प्रचलित गीत है:
” अंगाजे रहल भईया, अंगाजे रहल भइया
एक महिनवा में पांच गो रुपइया हो
खाये के मोटका चाउर रहल खूबे लाल
कोको के तेल आउर खेसारी के दाल।”


मजदूर के दुखवा के जब सुनलन हाल हो
मॉरिशस में अइसन दोकतेर मनी लाल हो
अउर गुलामी के जंजीर तूरके गइलन हो
अंगाजे रहल भईया, अंगाजे रहल भइया।”

इस गीत में डॉक्टर मणिलाल का नाम उद्धृत है। दरअसल यही मणिलाल हैं जिन्हें महात्मा गांधी ने मॉरीशस भेजा था। सन 1960 में महात्मा गांधी जी ने डॉ. मणिलाल को मॉरीशस इस लिए भेजा था ताकि वे गिरमिटिया मजदूरों के दु:ख दर्द को जानें। उनकी तकलीफों को दूर करने के लिए कोई रास्ता भी निकालें इस की भी जिम्मेदारी उनके कंधे पर दी गई। यह गीत समकालीन हो सकता है जब 1909 में हिंदी दैनिक ‘ हिंदुस्तानी’ के प्रकाशन का काम मणिलाल ने शुरू किया। अब जब हम इसके आगे चलते हैं तो उसके पहले, थोड़ी पीछे के घटनाक्रम पर एक नज़र डालना भी आवश्यक हो जाता है।

मॉरीशस में हिंदी के विद्वान प्रहलाद राम सुरून की बातों को माने तो हम पाते हैं कि मैसेज में जब मॉरीशस फ्रांसीसी आधिपत्य से अंग्रेजी शासकों के हाथ में सौंपा गया तो एक शर्त रखा गया। प्रह्लाद कहते हैं कि “200 साल पहले अंग्रेजों ने जब मॉरीशस को जीता तो फ्रांसीसियों के साथ संधि में यह प्रावधान किया गया कि फ्रांसीसी लोग अपनी भाषा संस्कृति को बनाए रख सकेंगे। यह ब्रिटिशर्स की एक बड़ी भूल थी उसके बाद फ्रेंच की जड़े दिनोंदिन गहरी होती गई। आज मॉरीशस फ्रेंच का मजबूत गढ़ है।”

हमलोगों को एक बात जानना आवश्यक है कि फ्रेंच भाषी अपने भाषा के प्रति प्रेम के लिए दुनिया में जाने जाते हैं इसके प्रचार प्रसार के लिए किसी तरह की कुर्बानी देने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं।

मॉरीशस में 1920 में पंडित आत्माराम विश्वनाथ की पुस्तक प्रकाशित हुई” मॉरीशस का इतिहास ” और 1930 में प्रह्लाद रामसुरून पास एक पुस्तक आई नाम था ‘ मॉरीशस आर्य समाज शुद्धि आंदोलन’।

इस पुस्तक में लिखा हुआ है कि मॉरीशस में आने के बाद आर्य समाज द्वारा भारतीय मजदूरों को शुद्ध करने का कार्य हो रहा है यानी शुद्ध करके मॉरीशस के तमाम गिरमिटिया मजदूरों को एक धर्म हिंदू में बदल दिया जाता था जहां भाषा के तौर पर फ्रेंच, अंग्रेजी, हिंदी गुजराती और तमिल भाषाएं स्वीकार थी परंतु भोजपुरी भाषा स्वीकार नहीं थी। इस बारे में डॉ.ओंकारनाथ उपाध्याय जो लखनऊ विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक हैं उनका एक आलेख है Academia में प्रकाशित है “ट्रांसलेटिंग लैंग्वेज पॉलिटिक्स एंड डिकॉलोनाइजिंग द स्टेज देव विरह स्वामिस तऊफ़ान”(TRANSLATING LANGUAGE POLITICS AND DECOLONISING THE STAGE IN DEV VIRAHSAWMY’S TOUFANN) में लिखते हैं – भोजपुरी मॉरीशस के कॉलेज में जैसे वासुदेव विष्णु दयाल कॉलेज में और महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट (एमजीआई)में पढ़ाया जा रहा है लेकिन अपनी मॉरीशस यात्रा में यह जान कर मैं हैरान हुआ कि वहां लोग भोजपुरी जो जानते हैं वह अपने घर में इसका प्रयोग करते हैं बाहर में क्रियोल बोलते हैं। जब मैं वहां के लोगों से बातचीत करके उनसे समझने की कोशिश की तो जान सका कि 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में और 20वीं सदी के पूर्वाद्ध में गिरमिटिया मजदूरों के बच्चे विद्यालय में पढ़ने गए तो उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया। इस आलेख को लैंग्वेज पॉलिटिक्स इन मॉरीशस, वॉल्यूम वन, इशू 3 अगस्त 2013 में देखा जा सकता है।

इस आलेख में स्पष्ट लिखा है कि मॉरीशस में फ्रैंकोफोन स्कूल ऑफ लैंग्वेज का प्रभुत्व है, जैसे कि अंग्रेजी के बजाय क्रियोल आधिकारिक भाषा है और भोजपुरी (मोतिया हिंदी), जो बहुसंख्यक गुलामों और गिरमिटिया मजदूरों (पीआईओ) की भाषा है। देव विरहस्वामी ने फ्रांसीसी उपनिवेशवादियों की क्रियोल भाषा का प्रयोग किया जो अधिकांश पीआईओ द्वारा बोली जाती थी क्योंकि इसे परिष्कृत और परिष्कृत वर्गों की भाषा माना जाता है।( Mauritius which is dominated by Francophone school of languages such as Creole instead of English being official language and Bhojopuri (Motia Hindi), the language of majority of slaves and indentured laborers (PIOs). Dev Virahswamy used Creole language of French colonizers which was spoken by the majority of PIOs because it is considered as the language of sophisticated and refined classes.)

मॉरीशस में आर्य समाज की नींव

सन 1834 ई से 1900 तक गिरमिटिया मजदूर की हालत बहुत दयनीय रही। उनकी पीड़ा की दारुण कथाओं को शब्दों में बांधना कठिन कार्य है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार अभिमन्यु अनत के अनुसार ‘इन भारतीय मजदूरों पर जब कोड़े और बांसों से प्रहार होते तो इनकी आहें भोजपुरी और हिंदी में होती थी। यातना शिविरों में वे एक दूसरे को अपनी-अपनी राम कहानी भोजपुरी और हिंदी में ही सुनाया करते, चाहे वह भारत के किसी भी प्रांत से रहे हो।’ इस बात को ‘मॉरीशस की हिंदी कविता में भारतीय संस्कृति’ नामक पुस्तक में कमल किशोर गोयनका ने उल्लेखित किया है। वैसे मेरा मानना है कि अनत जी ने हिंदी प्रेम के चलते ‘हिंदी’ जोड़ दिया है क्योंकि यातना में उपजने वाली हर पीड़ा हमेशा मातृभाषा में निकलती है। अनत जी का भी यह हिंदी प्रेम आर्य समाज की देन है जिसका आधारशीला 1857 ईस्वी में मॉरीशस में रखी गई जब एक भारतीय सूबेदार भोलानाथ तिवारी सन 1897 ई. में ‘सत्यार्थ प्रकाश’ जिसकी रचना दयानंद सरस्वती ने को है, लेकर मॉरीशस गए।

भोलानाथ तिवारी अंग्रेजी फौज के बंगाल फर्स्ट रेजीमेंट में सूबेदार थे 1903 तक उनकी पोस्टिंग मॉरीशस में रही। जब वे 1903 में भारत लौटने लगे तब वे इस किताब को पंडित तोतालाल को दे दिया। फिर सत्यार्थ प्रकाश की प्रति खेमा लाल के पास भेजा गया। इस तरह से धीरे धीरे मॉरीशस में आर्य समाज की स्थापना हुई और देखते ही देखते 500 गांवों में से 450 गांवो में आर्य समाज की शाखाएं खुल गई ।

इंद्रधनुष के संपादक प्रहलाद रामसुरुन ने भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं।
आर्य समाज मॉरीशस में क्या प्रचार करती थी देखें :

“हिंदी जाति की इससे शक्ति और संगठन के लिए हिंदी भाषा की आवश्यकता है।”
इसलिए एक कवि मॉरीशस के भारतीय आर्यों को कहता है :

“हिंदी पढ़ो हिंदी पढ़ो
हिंदी पढ़ो हे आर्यों “

लेकिन सच्चाई खुद इंद्रधनुष के संपादक प्रहलाद सुरून स्वीकार करते हैं कि अपने आप्रवासन काल के दौरान भारतीयों द्वारा ले गए सारे ग्रंथ कैथी लिपि में हैं।

“मॉरीशस में हिंदी गद्य साहित्य का उद्भव और विकास” में रामसुरून का यह भी कहना है सत्यार्थ प्रकाश के आगमन से ही मॉरीशस में देवनागरी लिपि और शुद्ध खड़ी हिंदी बोली का विधिवत प्रचलन हुआ।

भोजपुरी की हत्या पर विश्व कवि टैगोर बहुत दुखी थे। उन्होंने अपने आलेख “हिंदुस्तानी और भविष्य” जो इंद्रधनुष में 1988 में प्रकाशित हुआ था। जैसा कि रंजीत पांचाल ने 6 जुलाई, 2015 में प्रहलाद रामसुरून का एक साक्षात्कार किया था जिसमें वे बताते हैं कि विश्वकवि टैगोर ने कहा “अगर भारतीयों ने अपनी मातृभाषा खो दी, तो एक परंपरा समाप्त हो जाएगी, क्योंकि इस भाषा के पीछे 5000 वर्षों के निरंतर विकास का इतिहास जुड़ा हुआ है।”

इस तरह मॉरीशस में भोजपुरी के गला घोंटने का पूरा प्रयास होता रहा।

जब 1982 में मॉरीशस भोजपुरी इंस्टीट्यूट की स्थापना हुई तब तक भाषा अस्मिता की एक लड़ाई ने जोर पकड़ लिया था।

मॉरीशस की आजादी और भोजपुरी की पुनर्स्थापना

मॉरीशस की आजादी 12 मार्च 1969 में मिली। 1982 में मॉरीशस भोजपुरी इंस्टीट्यूट की स्थापना हुई। 1983 के जनगणना में 332000 लोग मॉरीशस के घरों में भोजपुरी(लिंगुआ फ्रांका)बोलते थे ( बेकर एंड रामनाथ 1988, 45) जबकि तुलनात्मक अध्ययन देखें तो 1952 में 41.6 प्रतिशत, 1962 में 38.8 प्रतिशत, 1972 में 34.6 प्रतिशत 1983 में 33.8 प्रतिशत जबकि मॉरीशस में 1952 से 1983 के बीच आबादी दोगुनी हो गई और भोजपुरी बोलने वालों की संख्या 14 से अधिक हुई। 24% शहरी और 80% ग्रामीण भोजपुरी बोलते हैं।

दिम लाला मोहित भोजपुरी के जाने-माने नाम मार्च 1995 में मॉरीशस में भोजपुरी बहार आलेख में लिखते हैं की भोजपुरी बहार कार्यक्रम जब बी टीवी द्वारा आयोजित रहे उसमें 80 साल तक के प्रतिभागियों ने भाग लिया भोजपुरी बहार प्रोग्राम बहुत लोकप्रिय रहा हिंदू मुस्लिम चीनी और ईसाई सब इसे देखते थे इसमें 350 गायक प्रतिभागी रहे 150 लोगों का चुनाव हुआ।
मॉरीशस के इंडियन डिस्पोरा और वर्ल्ड भोजपुरी सेंटर के अध्यक्ष जगदीश गोवर्धन का एक स्वीकार करते हैं कि
“मॉरीशस में भोजपुरी लोगों के साथ बहुत अन्याय हुआ है क्योंकि उनकी मातृभाषा और पैतृक भाषा को मान्यता और सम्मान नहीं दिया गया। इसके बावजूद नीति निर्माता और बुद्धिजीवी जानते हैं कि भाषा निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण साधन है। यह न केवल विचारों और विचारों के संचार का एक साधन है, बल्कि यह दोस्ती, सांस्कृतिक संबंध और आर्थिक संबंध भी बनाता है।”
(In Mauritius many injustices have been inflicted to the bhojpurias as their mother as well as ancestral language was not recognized and respected as such. Despite the policy makers and the intellectuals know that language is obviously a vital tool. Not only it is a means of communicating thoughts and ideas, but it also forges friendships, cultural ties, and economic relationships.)
(From a sovanoir published in 2011 by indian Diaspora and world Bhojpuri Centre (Mauritius) in collaboration with Vishwa Bhojpuri Sammelan (U.P.)& Bhojpuri Foundation( India) page 40)
खैर भोजपुरी की राजनीति मॉरीशस में कम नहीं है तभी तो वहां से राष्ट्रपिता सर शिवसागर रामगुकाम ने कहा था
” “Do not touch religion, culture and language.”

विनेश वाई हुकूमसिंह ने इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि एक समय, क्रियोल के विरोध में भोजपुरी पूरे द्वीप में प्रमुख एकल भाषा थी। लेकिन फिर भोजपुरी की त्रासदी यह है कि उसे उसके जीवित माता-पिता ने ही अनाथ बना दिया। क्रियोल के प्रतिद्वंद्वी के रूप में भोजपुरी का पतन 20वीं सदी की शुरुआत में आर्य समाज के आगमन के साथ शुरू हुआ। सबसे पहले, उन्होंने ‘मोटीया’ के विपरीत प्रतिष्ठित भाषा के रूप में खड़ी बोली हिंदी के उपयोग की वकालत की। भोजपुरी जिसने कई भोजपुरी हिंदुओं को हिंदी के पक्ष में भोजपुरी को त्यागने के लिए प्रेरित किया।

At one point, Bhojpuri was the dominant single language throughout the island in opposition to Creole. But then the tragedy of Bhojpuri is that it was made an orphan by its own living parents. The decline of Bhojpuri as a rival to Creole began early in the 20th century with the arrival on the scene of the Arya Samaj. Firstly, they advocated the use of Khari Boli Hindi as the prestigious language as opposed to the ?Motiya? Bhojpuri that led many Bhojpuri Hindus to disown Bhojpuri in favor of Hindi. सारी चीजें साफ साफ दिख रहा है कि आर्य समाज ने भोजपुरी पर खड़ी बोली को थोपने में कोई कसर नहीं छोड़ा है। बहरहाल भोजपुरी स्पीकिंग यूनियन के स्थापना के साथ ही मॉरीशस में भोजपुरी भाषा के प्रति लोगों का रुझान बढ़ने लगा है।