अनु जैन रोहतगी
लगता है राजस्थान में बीजेपी दीया कुमारी को वसुंधरा राजे सिंधिया का
विकल्प बनाने की पूरी कोशिश कर रही हैं । जिस तरह से दीया को लगातार बढ़
चढ़कर आगे किया जा रहा उससे साफ लगता हैं कि एक तरफ बीजेपी उनका राजघराने
से संबंध को पूरी तरह से भूनाना चाहती है और दूसरा राजपूत वोटों को अपनी
तरफ लाना चाहती है। ये इसलिए भी लग रहा है कि इस बार पीएम मोदी ने यहां
चुनाव प्रचार के दौरान साफ कर दिया कि इस बार का चुनाव कमल पर ही लड़ा
जाएगा। मतलब साफ है कि वसुंधरा को मुख्यमंत्री पद की दौड़ से बाहर ही रखा
गया है। दीया कुमारी उनका तोड़ इसलिए भी हैं कि वो भी राजस्थान के प्रमुख
राजघराने मानसिंह के खानदान से हैं। दीया कुमारी 2013 में बीजेपी आई थी,
तब उन्होंने विधायक का चुनाव जीता , फिर 2019 में सांसद बनी और इस बार
उन्हें फिर से विधायक पद के लिए खड़ा करके वसुंधरा का तोड़ निकालने की
कोशिश जोरों पर हैं।
लेकिन बीजेपी आलाकमान के इस फैसले से राजस्थान बीजेपी में बड़ी बगावत
सामने आनी शुरू हो गई है। जिस तरह से पहली लिस्ट में वसुंधरा के
करीबियों के टिकट काटे गए हैं, वो पूरी तरह से बगावती मूड में ,
अनुशासनहीनता पर उतर आए हैं। खुलकर बोल रहे हैं अगर टिकट नहीं मिला तो वो
निर्दलीय लड़ेंगे या कांग्रेस में जाने से भी परहेज नहीं करेंगे। माना
जाता है की बीजेपी एक अनुशासन के तहत चलने वाली पार्टी है। जो एक बार
आलाकमान बोल देते हैं नीचे तक के कार्यकर्ता उस आदेश का पालन करते हैं।
पर राजस्थान में ऐसा कुछ हो नहीं रहा है। पर इन सब के बीच वसुंधरा अपना
मुंह नहीं खोल रही हैं शायद वो इंतजार कर रही हैं कि कुछ बदले। कम ही लोग
ये जानते होंगे कि वसुंधरा राजस्थान की पहली महिला मुख्यमंत्री बनी, 2003
में बीजेपी ने उन्हें यह जिम्मेदारी दी थी और वो अब तक पांच बार चुनाव
जीत चुकी हैं। राजपरिवार से संबंध होने के कारण उनका राजस्थान में अपना
दबदबा है और ऐसे में बीजेपी कतई नहीं चाहेगी कि वो वसुंधरा को नाराज
करे। वैसे यह भी कह जा रहा है कि वसुंधरा खुद भी बीजेपी से ज्यादा पंगा
नहीं लेना चाहती क्योंकि उन्हें अपने बेटे को भी सक्रिय राजनीति में लाना
है। वसुंधरा समझदार हैं और वो देख चुकी हैं कि पार्टी से बगावत के बाद
खुद का तो राजनीतिक करियर खत्म हो ही जाता है पर साथ में बच्चों को भी
राजनीति में कोई जगह नहीं मिल पाती। उनके सामने जसवंत सिंह ,यशवंत
सिन्हा और मनोहर पारिकर के बेटों के उदाहारण खड़े हैं। जसवंत सिंह के
सुर बदले और उनके बेटे ने उनकी मौत के बाद बगावत करके कांग्रेस ज्वाइन की
लेकिन आज वो राजनीति में कहीं दिखाई नहीं दे रहे। यही हाल यशवंत सिन्हा
के बेटे जयंत सिन्हा का भी हुआ। यशवंत ने बीजेपी से बगावत की , जयंत
सरकार में मंत्री थे लेकिन पिता की बगावत के बाद उन्हें सरकार में कोई भी
पद नहीं मिला। गोवा के लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे और केंद्र में भी
मंत्री रहे मनोहर पर्रिकर बीजेपी के वफादार थे लेकिन उनकी मौत के बाद
उनके बेटे ने वफादारी निभाने की जगह बगावत कर दी। उत्पल पारिकर ने
निर्दलीय चुनाव लड़ा और हार गए और इस हार के साथ उनका राजनीतिक सफर भी
खत्म ही हो गया।
वसुंधरा समझदार है और राजनीति की खेली खाली खिलाड़ी भी हैं और यही कारण
है कि वो खुलकर कुछ नहीं बोल रही । शायद वो सोच रही हों कि उन्हें ना
सही तो कम से कम उनके करीबियों और उनके बेटा का राजनीतिक सफर ठीक चले
इसलिए वो पार्टी से बिगाड़ कर नहीं चल रही। यह बात अलग है कि उनके करीबी
बहुत कुछ बोल रहे हैं पर वसुंधरा ने अभी तक कुछ नहीं बोला है। दूसरी तरफ
बीजेपी भी वसुंधरा से पंगा लेने के मूड में नहीं है, राजस्थान जीतना है
तो वसुंधरा का साथ चाहिए ये बीजेपी को पता है और यही कारण है कि बीजेपी
की ओर से रूठों को मनाने के लिए बाकायदा एक समिति का भी गठन किया गया है
जो बगावती उम्मीदवारों के घर तक जाकर उनसे बात कर रहे हैं, उन्हें मनाने
की कोशिश कर रहे हैं।