संजय सक्सेना
बिहार का विधानसभा चुनाव इस बार सिर्फ एक राज्य की सत्ता का सवाल नहीं है, बल्कि यह पूरे उत्तर प्रदेश की राजनीति का सेमीफाइनल माना जा रहा है। बिहार में हो रही राजनीतिक हलचल की गूंज अब यूपी की सियासत तक पहुंच चुकी है। दिलचस्प बात यह है कि समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने बिहार में एक भी उम्मीदवार नहीं उतारा, लेकिन अपनी पूरी राजनीतिक टीम के साथ चुनाव प्रचार में उतर पड़े। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी पिछले दस दिनों में बिहार की जमीन पर तीस से अधिक जनसभाएं और एक रोड शो करके अपनी ताकत का पूरा प्रदर्शन किया। उनके साथ डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य और यूपी के कई मंत्री व विधायक भी लगातार बिहार में डेरा डाले रहे। यह साफ संकेत है कि बिहार का चुनाव परिणाम 2027 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की दिशा तय करने वाला साबित होगा।
बिहार में पहले चरण के मतदान के दौरान 18 जिलों की 121 सीटों पर औसतन 65.08 प्रतिशत वोटिंग दर्ज हुई। यह आंकड़ा 2020 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले लगभग 7.79 प्रतिशत ज्यादा है, जब मतदान 57.29 प्रतिशत हुआ था। दूसरे चरण में 20 जिलों की 122 सीटों पर करीब 3.70 करोड़ मतदाता मतदान करेंगे। बिहार की कुल 243 सीटों में से लगभग 34 सीटें उत्तर प्रदेश की सीमा से सटी हैं। ये सीटें बिहार के पश्चिमी इलाके जैसे सारण, सीवान, गोपालगंज, भोजपुर, बक्सर, कैमूर, पश्चिमी चंपारण और रोहतास जिलों में आती हैं, जिनकी सीमाएं यूपी के महाराजगंज, कुशीनगर, देवरिया, बलिया, गाजीपुर, चंदौली और सोनभद्र से लगती हैं। इन इलाकों का रहन-सहन, बोली, खानपान और जातीय समीकरण लगभग एक जैसे हैं। इसलिए बिहार के नतीजों का सीधा असर यूपी की राजनीति पर पड़ना तय माना जा रहा है।
2024 के लोकसभा चुनाव में यूपी में भाजपा को समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन से बड़ा झटका लगा था। भाजपा का ओबीसी और दलित वोट बैंक बिखर गया था। यही कारण है कि योगी आदित्यनाथ ने बिहार में एनडीए के सभी घटक दलों जेडीयू, एलजेपी (रामविलास), हम और आरएलएम के 43 उम्मीदवारों के लिए प्रचार किया। उनका फोकस बिहार के वोटरों को यूपी के बुलडोजर मॉडल की सफलता दिखाने पर रहा। योगी ने हर सभा में कहा कि उत्तर प्रदेश में अपराधी और माफिया खत्म हुए हैं, कानून का राज स्थापित हुआ है और अब बिहार को भी उसी दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। उनका संदेश साफ था कि यूपी का विकास मॉडल बिहार में भी अपनाया जाए। इस प्रचार के पीछे उनकी रणनीति यह थी कि बिहार में एनडीए की जीत से यूपी में भाजपा के लिए सत्ता की हैट्रिक का माहौल बनाया जा सके।
वहीं अखिलेश यादव ने बिहार में बिना प्रत्याशी उतारे प्रचार अभियान को पूरी मजबूती से चलाया। उन्होंने सात दिनों में 28 जनसभाएं कीं और आरजेडी, कांग्रेस, वामदलों और वीआईपी उम्मीदवारों के लिए वोट मांगे। अखिलेश अपने भाषणों में केंद्र सरकार और योगी सरकार दोनों पर हमला बोलते दिखे। उन्होंने कहा कि भाजपा की राजनीति झूठ और नफरत पर आधारित है, लेकिन जनता बदलाव चाहती है। उन्होंने दावा किया कि यूपी के अवध और अयोध्या में भाजपा को हराने के बाद अब बिहार के मगध में भी भाजपा को हराया जाएगा। बिहार में अखिलेश का यह अभियान सिर्फ महागठबंधन के समर्थन में नहीं था, बल्कि यह उत्तर प्रदेश में अपनी वापसी की पृष्ठभूमि तैयार करने की कोशिश भी थी।
अखिलेश ने बिहार के हर हिस्से में अपने सांसदों और विधायकों को उतार दिया। अफजाल अंसारी, राजीव राय, इकरा हसन, अवधेश प्रसाद, सनातन पांडे, जय प्रकाश अंचल, ओम प्रकाश सिंह और आशु मलिक जैसे नेताओं ने बिहार के अलग-अलग इलाकों में प्रचार की कमान संभाली। अवधेश प्रसाद ने दलित वोटरों को साधने का जिम्मा लिया, जबकि इकरा हसन को सीमांचल की मुस्लिम बहुल सीटों पर भेजा गया। अफजाल अंसारी यूपी सीमा से सटी सीटों पर प्रचार करते रहे। इस रणनीति का मकसद था कि बिहार में मुस्लिम वोटों का बिखराव न हो और ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम का असर सीमित रहे। 2020 के चुनाव में ओवैसी ने सीमांचल में पांच सीटें जीतकर सभी को चौंकाया था। इस बार अखिलेश ने उसी इलाके में अपने मुस्लिम चेहरों को उतारकर यह संदेश देने की कोशिश की कि बिहार से उठने वाली मुस्लिम राजनीति यूपी में समाजवादी खेमे से बाहर न जाए। इकरा हसन ने कहा कि अगर वोट बंटे तो भाजपा सत्ता में लौट आएगी और इस बार मुख्यमंत्री की कुर्सी नीतीश कुमार को नहीं, बल्कि भाजपा को मिलेगी। अफजाल अंसारी ने भी ओवैसी पर निशाना साधते हुए कहा कि वे वही काम कर रहे हैं जो आरएसएस करती है, मुसलमानों को बांटने का।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बिहार के चुनाव परिणाम का असर यूपी की सियासत पर सीधा पड़ेगा। अगर एनडीए बिहार में जीत दर्ज करता है, तो भाजपा के लिए यूपी में 2027 के विधानसभा चुनाव की राह आसान होगी और उसका मनोबल बढ़ेगा। लेकिन अगर महागठबंधन बिहार में जीतता है, तो इसका लाभ समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को मिलेगा। इससे यूपी में विपक्षी एकजुटता और मजबूत होगी। साथ ही, यह अखिलेश यादव की राजनीति के लिए नया मोड़ साबित होगा क्योंकि वे खुद को अब यूपी के सीमित दायरे से निकालकर राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष का नेता साबित करना चाहते हैं।
बिहार में इस बार जनता का उत्साह अभूतपूर्व है। पहले चरण की 65.08 प्रतिशत वोटिंग अपने आप में एक संकेत है कि मतदाता इस बार बदलाव के मूड में हैं। सर्वेक्षणों के अनुसार बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार इस चुनाव के प्रमुख मुद्दे हैं। 2020 में राजद को 23.11 प्रतिशत वोट मिले थे और भाजपा को 19.46 प्रतिशत। इस बार किसी भी दल का वोट शेयर अभी तक 25 प्रतिशत के पार नहीं गया है, जिससे यह स्पष्ट है कि बिहार में सत्ता की लड़ाई बेहद कड़ी है। ऐसे में बिहार का परिणाम केवल पटना की सत्ता नहीं, बल्कि लखनऊ की राजनीति की दिशा भी तय करेगा।
बिहार और उत्तर प्रदेश के बीच की यह सियासी कड़ी अब पहले से कहीं ज्यादा मजबूत हो चुकी है। योगी आदित्यनाथ और अखिलेश यादव दोनों जानते हैं कि बिहार का यह रण सिर्फ सीटों का नहीं बल्कि भविष्य की सियासत का संदेश देने वाला है। अगर एनडीए की जीत होती है तो योगी का बुलडोजर मॉडल दोबारा यूपी की सियासत में गूंजेगा। लेकिन अगर महागठबंधन सत्ता में लौटता है तो अखिलेश यादव के नेतृत्व में यूपी की विपक्षी राजनीति को नया जोश मिलेगा। इस चुनाव ने साफ कर दिया है कि बिहार अब सिर्फ बिहार नहीं रहा, बल्कि यह उत्तर प्रदेश के अगले चुनाव की राजनीतिक प्रयोगशाला बन चुका है, जहां से आने वाले सालों की सत्ता की पटकथा लिखी जा रही है।





