बिहार चुनाव के चुनावी पूर्वानुमानों में राजग को स्पष्ट बहुमत

Bihar election forecasts project NDA to have clear majority

प्रमोद भार्गव

बिहार विधानसभा चुनाव में हुए ऐतिहासिक मतदान के बाद आए पूर्वानुमानों ने राजग गठबंधन को स्पष्ट बहुमत से जीत दिला दी है। सभी अनुमान बता रहे हैं कि राजग को आसानी से 122 के जरूरी बहुमत के आंकड़े को पार करते हुए 140 से 150 सीटें मिल सकती हैं। वहीं महागठबंधन 84 सीटों पर सिमटता दिख रहा है। भाजपा को सबसे ज्यादा 75 सीटें मिलने का दावा है। जबकि वोट चोरी के आरोप को मुद्दा बनाने में लगे रहे राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस को 22 सीटों पर सिमटता दिखाया जा रहा है। प्रषांत किषोर जो बड़ी उम्मीद के साथ बिहार में नई पार्टी जनसुराज का निर्माण कर दो साल से जोर-षोर से प्रचार करते हुए बिहार की बुनियादी समस्याओं को उभार रहे थे, उन्हें चुनावी सर्वेक्षणों ने मात्र 1 से 3 सीटें मिलते दिखाया है। यानी बिहार का मतदाता फिलहाल बुनियादी मुद्दों के निदान के पक्ष में दिखाई नहीं दे रहा है। बिहार में आजादी के बाद जो ऐतिहासिक मतदान हुआ है, वह सभी परंपराओं को नकारते हुए जदयू-भाजपा को एक बार फिर सत्ता के सिंहासन पर आरूढ़ करने जा रहा है। बिहार में पहले चरण में 65 प्रतिषत और दूसरे चरण में 68 प्रतिषत से ज्यादा मतदान हुआ है। हालांकि कभी भी एग्जिट पोल वास्तविक परिणामों पर खरे नहीं उतरे हैं। इसलिए जिन दलों के विरुद्ध अनुमान गए हैं, उन्हें 14 नवंबर को वास्तविक परिणाम नहीं आने तक निराश होने की जरूरत नहीं है।

चुनाव पूर्व जनमत सर्वेक्षण एक नया विषय है। यह ’सेफोलॉजी’ मसलन जनमत सर्वेक्षण विज्ञान के अंतर्गत आता है। भारत के गिने-चुने विश्वविद्यालयों में राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम के तहत सेफोलॉजी को पढ़ाने की शुरुआत हुई है। जाहिर है, विषय और इसके विशेषज्ञ अभी अपरिपक्व अवस्था में हैं। परिपक्व चुनाव विश्लेषक के रुप में अब तक योगेन्द्र यादव और फिर प्रषांत किषोर को माना जाता रहा है। इस नजरिए से यादव और किषोर का सम्मान और विश्वसनीयता भी जनता में बरकरार थे, लेकिन बाद में राजनीति से सीधे जुड़ने के बाद वे सर्वे के अनुमानों से बाहर हैं।

सर्वेक्षणों पर शक की सुई इसलिए भी जा ठहरती है कि पिछले कुछ सालों में निर्वाचन-पूर्व सर्वेक्षणों की बाढ़ सी आई हुई है। इनमें तमाम कंपनियां ऐसी हैं, जो धन लेकर सर्वे करती हैं। गोया, छोटे पर्दे पर नतीजे इकतरफा नहीं आने के क्रम में कांग्रेस प्रवक्ता सुष्मिता देव ने एजेंसियों के सर्वेक्षण पर तंज कसते हुए कहा था कि इन्हें अभी और सीखने की जरूरत है, जिससे परिणाम परिपक्व दिखें। चूंकि कई बार अनुमान सटीक नहीं बैठे,बावजूद एजेंसियों ने कभी दलों और मतदाताओं से विनम्रता के साथ माफी नहीं मांगी। बेवाकी के लिए मशहूर दिग्विजय सिंह ने तो यहां तक दावा किया था कि ’धन देकर पार्टियां अपने अनुकूल सर्वे करा लेती हैं।’ इसे नकारने की बजाय, गंभीरता से लेने की जरुरत है। दिग्विजय सिंह की यह बात भरोसा करने वाली है कि सर्वे संस्थान धन लेकर जनमत सर्वेक्षण करने में लगे हैं। वैसे भी किसी भी प्रदेश के करोड़ों मतदाताओं की मंशा का आकलन महज कुछ हजार मतदाताओं की राय लेकर सटीक नहीं जानी जा सकती है। कभी-कभी ये अटकलें खरी उतर जाती हैं।

ओपिनियन पोल मतदाता को गुमराह कर निष्पक्ष चुनाव में बाधा बन रहे हैं। इसीलिए पूर्व महाधिवक्ता गुलाम ई वाहनवती ने केंद्र सरकार को निर्वाचन पूर्व सर्वेक्षणों पर रोक लगाने की सलाह दी थी। वैसे भी ये सर्वेक्षण वैज्ञानिक नहीं हैं, क्योंकि इनमें पारदर्शिता की कमी है और ये किसी नियम से बंधे नहीं हैं। साथ ही ये सर्वे कंपनियों को धन देकर कराए जा सकते हैं। बावजूद इन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बहाने ढोया जा रहा है। जबकि ये पेड न्यूज की तर्ज पर ’पेड ओपिनियन पोल’ में बदल गए हैं। इसीलिए इसके परिणाम भरोसे के तकाजे पर खरे नहीं उतरते। सर्वे कराने वाली एजेंसियां भी स्वायत्त होने के साथ जवाबदेही के बंधन से मुक्त हैं। गोया, इन पर भरोसा किस बिना पर किया जाए ?

दरअसल चुनाव आयोग ने 21 अक्टूबर 2013 को सभी राजनीतिक दलों को एक पत्र लिखकर, चुनाव सर्वेक्षणों पर राय मांगी थी। दलों ने जो जवाब दिए, उससे मत भिन्नता पेश आई। वैसे भी बहुदलीय लोकतंत्र में एकमत की उम्मीद बेमानी है। जाहिर है, कांग्रेस ने सर्वेक्षण निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले बताए थे। बसपा ने भी असहमति जताई थी। माकपा की राय थी कि निर्वाचन अधिसूचना जारी होने के बाद सर्वेक्षणों के प्रसारण और प्रकाशन पर प्रतिबंध जरूरी है। तृणमूल कांग्रेस ने आयोग के फैसले का सम्मान करने की बात कही थी। जबकि भाजपा ने इन सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध लगाना संविधान के विरुद्ध माना था। दरअसल ज्यादातर चुनाव सर्वेक्षण भाजपा के पक्ष में आते रहे हैं। भाजपा ने तथ्य दिया था कि सर्वेक्षणों में दर्ज मतदाता या व्यक्ति की राय वाक्, भाषण या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार क्षेत्र का ही मसला है। तय है, दलों की दलीलें अलग-अलग रुझान, भ्रम और गुमराह की मनस्थिति पैदा करने वाली थीं, इसलिए आयोग भी हाथ पर हाथ धरे बैठा रह गया।
राजनैतिक दलों और सर्वेक्षण कंपनियों के जो पैरोकार इन सर्वेक्षणों को अभिवयक्ति की स्वतंत्रता के बहाने जारी रखने की बात कह रहे हैं, उन्हें सोचने की जरुरत है कि संविधान के अनुच्छेद 19-1 में दर्ज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की आजादी के मौलिक अधिकारों के प्रावधानों का दुरुपयोग भी हुआ है। हर एक चुनाव में पेड न्यूज के जरिए दलों और उम्मीदवारों का प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मिडिया ने कितना आर्थिक दोहन किया, यह सक्रिय राजनीति और पत्रकारिता से जुड़ा हर व्यक्ति जानता है ?

दरअसल संविधान की मूल भावना, ’अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ की ओट में ही मीडिया का उम्मीद से ज्यादा व्यवसायीकरण हुआ है। मीडिया में मीडिया से इतर व्यवसाय वाली कंपनियों ने बड़ी पूंजी लगाकर प्रवेश किया और देखते-देखते मीडिया के अनेक निष्पक्ष स्वायत्त घरानों, मंचों, पत्रकार समितियों व संस्थानों पर कब्जा कर लिया। नतीजतन मीडिया पर स्वामित्व मुट्ठी भर लोगों का हो गया। इसी का परिणाम है कि भूमि, खनिज, शराब और चिटफंड कंपनियों का भारतीय मीडिया पर एकाधिकार हो गया है। संपादक जैसे सम्मानजनक पद पर आसीन लोग पद की गरिमा गिराकर कालाबाजारी में लिप्त हैं। जाहिर है, पेड न्यूज के सिलसिले में तो मीडिया पहले ही अपना विश्वास खो चुका है और अब पेड ओपीनियन और एग्जिट पोल खालिस मुनाफाखोरी की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।