
संजय सक्सेना
बिहार की राजनीति में मुस्लिम वोट बैंक हमेशा से एक निर्णायक शक्ति रहा है, लेकिन 2025 के विधानसभा चुनाव में यह वोट बैंक पहली बार तीन गहरे और परस्पर विरोधी विमर्शों के बीच फंसा हुआ है ईमान, इस्लाम, और इंतकाम। यह न सिर्फ चुनावी रणनीतियों को जटिल बना रहा है, बल्कि मुस्लिम मतदाताओं को भी गहरे अंतर्द्वंद्व में डाल रहा है।राज्य में लगभग 1.8 करोड़ मुस्लिम मतदाता हैं, जो कुल मतदाताओं का करीब 17.8% हिस्सा हैं। सीमांचल, मिथिलांचल, कोसी, सारण और पटना जिलों की करीब 47 विधानसभा सीटों पर ये वोट निर्णायक हैं। ऐसे में हर दल इस वर्ग को अपने पाले में लाने की होड़ में है लेकिन इस बार वह होड़ विचारधारात्मक स्तर तक जा पहुंची है।
राजद नेता तेजस्वी यादव मुस्लिम मतदाताओं को साधने के लिए दो प्रमुख आयामों पर काम कर रहे हैं पहला, धार्मिक पहचान की रक्षा और दूसरा, केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ आक्रोश को संगठित करना। वक्फ अधिनियम में बदलाव, एनआरसी, एनपीआर और वोटर लिस्ट से मुस्लिम नामों को हटाने जैसे मुद्दों को उन्होंने चुनावी मंचों पर बार-बार उठाया है। इससे वे मुस्लिम मतदाताओं को यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि महागठबंधन ही उनकी धार्मिक और सामाजिक सुरक्षा की गारंटी है।हालांकि, 2020 के विधानसभा चुनाव में AIMIM के जीते पांच में से चार विधायकों को तोड़कर राजद में शामिल कर लेना तेजस्वी के “मुस्लिम हितैषी” दावे को कमजोर भी करता है। असदुद्दीन ओवैसी इसे “सियासी धोखा” बताते हैं। तेजस्वी यादव के लिए सीमांचल की सीटें अभी भी एक परीक्षा की घड़ी हैं, जहां मुस्लिम मतदाता न केवल पहचान के आधार पर, बल्कि अब प्रतिनिधित्व और आत्मसम्मान के आधार पर भी सोचने लगे हैं।
AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी इस बार राजद से दूरी बनाते हुए बिहार में एक तीसरे मोर्चे की भूमिका में आना चाहते हैं। उनका तर्क है कि जब 2020 में सीमांचल की जनता ने उन्हें चुना, तब महागठबंधन ने उनके विधायकों को तोड़कर राजनीतिक विश्वासघात किया। इसी “इंतकाम” की भावना को वे इस बार चुनावी मुद्दा बना रहे हैं।ओवैसी ने महागठबंधन में शामिल होने का प्रस्ताव भी रखा था, लेकिन जब कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला तो उन्होंने 50 से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी शुरू कर दी। AIMIM अब सीमांचल से बाहर दरभंगा, पटना, भागलपुर और किशनगंज जैसे इलाकों में भी अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश कर रही है। इससे महागठबंधन को नुकसान तय है, क्योंकि मुस्लिम वोटों में बिखराव होगा, जो अंततः बीजेपी-एनडीए के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है।
जन सुराज के संस्थापक प्रशांत किशोर इस चुनाव में एक अलग तरह का नैरेटिव लेकर आए हैं। वे मुस्लिम समुदाय की गरीबी और पिछड़ेपन को उसकी ‘राजनीतिक चूक’ का नतीजा बताते हैं। उनका साफ कहना है कि “मुसलमानों ने दशकों तक सिर्फ डर के आधार पर वोट डाले हैं, खासकर राजद को, लेकिन बदले में उन्हें सिर्फ प्रतिनिधित्व की बजाय प्रतीकात्मकता मिली है। प्रशांत किशोर का आह्वान है कि मुस्लिम मतदाता अब ‘ईमान’ यानी नैतिक दृष्टिकोण से वोट करें और ऐसे प्रतिनिधि चुनें जो सिर्फ धार्मिक भावनाओं की राजनीति न करें बल्कि समाज के आर्थिक और शैक्षणिक उत्थान की बात करें। उनकी योजना है कि वे 75 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारें और इन्हें नए नेतृत्व के रूप में पेश करें। हालांकि, उनकी पार्टी की संगठनात्मक उपस्थिति अभी कमजोर है और उन्हें जमीन पर पकड़ बनाने के लिए अधिक मेहनत करनी होगी।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और जेडीयू इस बार एनडीए के भीतर एक सॉफ्ट सेकुलर छवि पेश करने की कोशिश में लगे हैं। वे मुस्लिम मतदाताओं को यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि जेडीयू ने पिछले दो दशकों में अल्पसंख्यकों के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं जैसे छात्रवृत्ति, मदरसा आधुनिकीकरण, अल्पसंख्यक आवास योजना आदि। इसके अलावा, बीजेपी और जेडीयू की रणनीति पसमांदा मुसलमानों यानी अजलाफ और अरजाल वर्गों को साधने की है। बीजेपी ने ‘पसमांदा मुस्लिम सम्मेलन’ कर संकेत दिया है कि वह अब अल्पसंख्यक समाज के उस वर्ग को साथ जोड़ना चाहती है, जो अभी तक मुख्यधारा से बाहर रहा है।लेकिन वक्फ अधिनियम में बदलाव और NRC पर नीतीश कुमार की चुप्पी मुस्लिम समाज के एक बड़े वर्ग को असहज कर रही है। खासकर वह तबका जो खुद को सामाजिक न्याय के दायरे में देखता है, वह इस चुप्पी को ‘राजनीतिक सहमति’ मानता है।
इस बार सबसे बड़ा सवाल यही है कि मुस्लिम वोट बैंक बिखरेगा या किसी एक राजनीतिक ध्रुव के इर्द-गिर्द संगठित हो जाएगा? 2020 में महागठबंधन को 76% मुस्लिम वोट मिले थे, AIMIM को 11% और एनडीए को 10% से भी कम। लेकिन 2025 में AIMIM के विस्तार, PK के हस्तक्षेप और NDA की रणनीति के चलते यह समीकरण पूरी तरह से बदल सकता है।यदि तेजस्वी, ओवैसी और प्रशांत किशोर आपस में कोई सामंजस्य नहीं बनाते, तो मुस्लिम वोट कम से कम तीन हिस्सों में बंट सकता है। इसका सीधा फायदा बीजेपी और जेडीयू को मिल सकता है, खासकर उन सीटों पर जहां बहुमत थोड़ा-बहुत फर्क कर सकता है दूसरी ओर, यदि AIMIM सीमांचल में अपनी सीटें बरकरार रखती है, PK पसमांदा मुस्लिमों को कुछ हद तक प्रभावित करते हैं और राजद पारंपरिक MY समीकरण को बचा पाती है, तो मुस्लिम वोटरों की भूमिका सत्ता के संतुलन को पूरी तरह से बदल सकती है।
बिहार में मुस्लिम वोट बैंक अब केवल धार्मिक पहचान का मामला नहीं रहा। यह अब प्रतिनिधित्व, आर्थिक विकास, सामाजिक न्याय और राजनीतिक आत्मसम्मान का मुद्दा बन चुका है। ईमान (सही प्रतिनिधित्व), इस्लाम (धार्मिक सुरक्षा) और इंतकाम (सियासी बदला) इन तीनों आयामों के बीच मुस्लिम मतदाता अब विचार कर रहा है।अगले कुछ महीनों में यह तय होगा कि मुस्लिम वोटर पारंपरिक ध्रुवीकरण से ऊपर उठकर नए विकल्पों की ओर जाते हैं या फिर एक बार फिर पुराने समीकरणों को ही दोहराते हैं। लेकिन इतना तय है कि इस बार उनका वोट सिर्फ संख्या नहीं, बल्कि सत्ता का संतुलन भी तय करेगा।