आज भी बुनियादी जरूरतों से वंचित हैं अरबों लोग

योगेश कुमार गोयल

मानवाधिकारों की विस्तृत व्याख्या के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने सर्वप्रथम 27 जनवरी 1947 को एक आयोग गठित किया गया था, जिसकी सिफारिशों के सार्वभौमिक घोषणा पत्र को संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्यों ने 1948 में सर्वसम्मति से स्वीकार किया था। मनुष्य के जीवनयापन और विकसित होने के मूलभूत (सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक) अधिकारों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘मानवाधिकार’ के रूप में स्वीकार किया गया। वर्ष 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना ही इस उद्देश्य से की गई थी कि भविष्य में द्वितीय विश्वयुद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न न होने पाए और संयुक्त राष्ट्र ने अपनी स्थापना के कुछ ही समय बाद मानवाधिकारों का संरक्षण किए जाने की ओर ध्यान देना शुरू किया लेकिन विड़म्बना है कि मानवाधिकारों की घोषणा के 74 वर्ष बाद भी दुनियाभर में अरबों लोग संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित मानवाधिकारों से वंचित हैं। अरबों लोग रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरतों से महरूम हैं। एक अरब से भी ज्यादा लोग कम अथवा ज्यादा कुपोषण के शिकार हैं। कुपोषण की वजह से प्रतिदिन हजारों बच्चे काल के ग्रास बन रहे हैं। दुनियाभर में करोड़ों बच्चे बाल मजदूरी का दंश झेल रहे हैं। भारत में करोड़ों बच्चे अपने मासूम बचपन को बाल मजदूरी की तपती भट्ठी में झोंकने को विवश हैं, जो स्कूली शिक्षा से भी वंचित हैं।

औद्योगिकीकरण की अंधी दौड़ में देश में मजदूर महिलाओं और छोटे-छोटे मासूम बच्चों का शारीरिक व मानसिक शोषण किसी से छिपा नहीं है। विश्वभर में अरबों लोग आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं से वंचित हैं। एक अरब से अधिक लोगों को पीने के लिए स्वच्छ एवं शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं हैं। मानवाधिकारों की दृष्टि से यदि हम इसका विवेचन करें तो क्या ये सभी उचित स्तर पर जीवन यापन के अधिकार, शिक्षा के अधिकार, जीवन के प्रति सुरक्षा के अधिकार, शोषण से मुक्ति के अधिकार तथा अन्य सामाजिक अधिकारों से पूर्णतया वंचित नहीं हैं? क्या यह सरासर मानवाधिकारों के उल्लंघन का मामला नहीं है? क्या यह मानवाधिकार आयोगों का दायित्व नहीं है कि वे इन विसंगतियों को दूर करने के लिए सार्थक एवं प्रभावी कदम उठाएं? आधुनिक भारत में करोड़ों लोग आज भी भूखे-नंगे अपनी जिंदगी के दिन जैसे-तैसे उद्देश्यहीन पूरे कर रहे हैं। क्या ऐसे लोगों के लिए मानवाधिकारों का कोई महत्व हो सकता है? ऐसे में क्या ‘मानवाधिकार’ शब्द महज एक जुमला प्रतीत नहीं होता है?

संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग के अलावा लगभग प्रत्येक राष्ट्र में मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सक्रिय हैं लेकिन आज भी जिस गति से मानवाधिकारों का हनन हो रहा है, उससे मानवाधिकार आयोगों के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगता है। दुनियाभर में दो प्रमुख मानवाधिकार संगठनों ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल’ व ‘ह्यूमन राइट वाच’ का खासतौर से उल्लेख किया जा सकता है, जो दुनियाभर की स्थिति पर नजर रखते हैं और प्रतिवर्ष इस पर अपनी रिपोर्ट देते हैं। मानवाधिकार हनन के मामले में हर देश की क्रमानुसार स्थिति दर्शायी जाती है और इस रिपोर्ट के आधार पर जिस देश में मानवाधिकार की स्थिति दयनीय होती है, उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर न केवल आलोचना का शिकार होना पड़ता है बल्कि अमेरिका जैसे विकसित देश उस पर आर्थिक प्रतिबंध भी लाद देते हैं लेकिन वास्तविकता यही है कि पिछले कुछ समय से इन संगठनों की रिपोर्टों को भी पूरी तरह निष्पक्ष नहीं माना जाता। इन रिपोर्टों के पीछे अमेरिका इत्यादि विकसित देशों के अपने निजी हित या स्वार्थ भी छिपे होते हैं।
भारत में मानवाधिकार संगठनों की सक्रियता खासतौर से पंजाब के आतंकवाद के भयावह दौर से देखी जा रही है, जब इन संगठनों को पुलिस तथा सेना के जवानों की हर छोटी-बड़ी कार्रवाई तो नजर आती थी लेकिन आतंकवादियों की करतूतों के विरूद्ध इनकी जुबान पर सदैव लगाम कसी रही। इस बारे में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ए.एस. आनंद ने एक बार कठोर टिप्पणी करते हुए कहा था कि ये संगठन सुरक्षा बलों के अत्याचारों पर तो उंगली उठाते हैं पर आतंकवादी संगठन कश्मीर में जो कुछ कर रहे हैं, उस पर चुप रहते हैं। वास्तविकता भी यही है कि यदि कोई आतंकवादी अथवा शरारती तत्व पुलिस अथवा सेना के हाथों मारे जाएं तो मानवाधिकारवादी संगठन खूब हो-हल्ला मचाते हैं लेकिन यदि यही सिरफिरे लोग निर्दोषों के लहू से होली खेलें, अबलाओं की इज्जत के सरेआम चिथड़े उड़ाएं, उन्हें गैंगरेप जैसी पाशविक घटनाओं को अंजाम देकर जिंदा जला डालें तो ऐसी हैवानियत मानवाधिकार के ठेकेदारों को नजर नहीं आती बल्कि ऐसे मामलों में इन संगठनों की भूमिका पर सवाल उठाने वालों के समक्ष तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि आतंकवादी संगठन किसी स्थापित कानून के तहत काम करने वाली कोई सरकारी संस्था नहीं हैं और वैसे भी आतंकवादी संगठनों की कार्रवाई चूंकि कानून की नजर में अपराध है, अतः यदि कोई आतंकवादी या अराजक तत्व पकड़ा भी जाए, तब उसके खिलाफ कानून के मुताबिक ही कार्रवाई होनी चाहिए।

हालांकि ऐसा नहीं है कि मानवाधिकार संगठनों की भूमिका हर मामले में संदेहास्पद रही हो बल्कि कुछ मामलों में इन संगठनों ने सही मायनों में पीड़ित मानवता के हित में सार्थक पहल की है पर यह भी सच है कि दुनियाभर में आज भी अरबों लोग मानवाधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा के 74 वर्षों बाद भी अपने अधिकारों से वंचित हैं। मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए 1961 में स्थापित अंतर्राष्ट्रीय संगठन ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल’ की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि दुनियाभर में करीब 120 देशों में मानवाधिकारों का बड़े पैमाने पर हनन हो रहा है।

भारत में सितम्बर 1993 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया था, जिसका उद्देश्य मानवाधिकारों का संरक्षण व उनको प्रोत्साहन देना ही था। आयोग के गठन के कुछ ही समय बाद आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि देश की सभी जटिलताओं को दृष्टिगत रखते हुए आयोग मानता है कि जो लोग सर्वाधिक दुर्बल हैं, उनके रक्षण का आयोग पर एक विशेष और अपरिहार्य दायित्व है लेकिन आयोग अपने गठन के बाद के इन 29 वर्षों में भी अपने दायित्वों को निभाने में कितना सफल रहा है, इसकी पड़ताल किए जाने की आवश्यकता है। विड़म्बना है कि देश की सुरक्षा के नाम पर सुरक्षातंत्र को मजबूत करने व सैन्य शक्ति बढ़ाने के लिए अत्याधुनिक हथियारों व उपकरणों की खरीद-फरोख्त के लिए तो हमारी सरकारें विभिन्न माध्यमों से चंद दिनों में ही अरबों रुपये जुटा सकती है लेकिन जब बात आती है राष्ट्र को निर्धनता, कुपोषण और भुखमरी के घोर अभिशाप से मुिक्त दिलाने की तो सारे सरकारी खजाने खाली हो जाते हैं। यदि इस दिशा में कभी कुछ करने का प्रयास किया भी जाता है तो ऐसी योजनाओं को अमलीजामा पहनाने से पहले ही उनका बहुत बड़ा हिस्सा हमारे कर्णधार और नौकरशाह डकार जाते हैं। ऐसे में केवल मानवाधिकारों के संरक्षण एवं प्रोत्साहन का ढ़ोल पीटने रहने से ही आखिर हासिल क्या हो रहा है?
(लेखक 32 वर्षों से पत्रकारिता में निरन्तर सक्रिय वरिष्ठ पत्रकार हैं)