बिरसा मुंडा ने हिला दिया था अंग्रेजों का सिंहासन

Birsa Munda shook the throne of the British

डॉ. वन्दना सेन

देश को गुलामी से मुक्त कराने के लिए ऐसे कई वीरों की गाथाएं हमें सुनने को नहीं मिलती, जो देश और समाज की रक्षा के लिए हमेशा अग्रसर रहे। देश के इतिहास में भी उनका जिक्र या तो बिलकुल नहीं है, या फिर जितना होना चाहिए उतना स्थान नहीं दिया गया। भारत का इतिहास लिखने वाले वे कौन से लोग थे, जिन्होंने आजादी के लिए किए गए संघर्ष में उन क्रांतिकारियों को भुला दिया, जो इसके वास्तविक हकदार थे। यह बात सही है कि अंगे्रजों के विरोध में देश के हर हिस्से में देश को आजाद कराने के लिए लड़ाई लड़ी गई। उनमें से कई लड़ाइयों का वर्णन भी इतिहास के पन्नों में देखने और पढ़ने को नहीं मिलता। वीर देश भक्तों के साथ ऐसा क्यों किया गया, इसका कारण यही था कि स्वतंत्रता के बाद भारत के शासकों ने प्रेरणा देने वाले नायकों के साथ पक्षपात करके उनका नाम सामने नहीं आने दिया। इसके पीछे यह भी बड़ा कारण हो सकता है कि अगर ऐसे नायकों को सामने लाते तो स्वाभाविक रूप से समाज उनके साथ जुड़ता, क्योंकि वे समाज से एक रूप हो चुके थे। इसलिए भावी पीढ़ी भी उनके बारे में जानने के लिए उत्सुक रहती और इसी उत्सुकता के चलते देश के करोड़ों मनों में राष्ट्रीयता का प्रवाह पैदा होता। लेकिन राजनीतिक द्वेष के चलते राष्ट्रीयता को नीचा दिखाने का प्रयास किया जाता रहा। जिसका परिणाम यह रहा कि भारत का समाज पश्चिम के विचार से प्रभावित हुआ। इसी कारण भारतीय भाव का विलोपन भी होता गया। लेकिन अब इतिहास के पन्ने कुरेदे जा रहे हैं। भारत का असली इतिहास खंगालने के प्रयास भी होने लगे हैं। देश को प्रेरणा देने वाले नायक भी सामने आने लगे हैं।

ऐसे ही एक आदर्श नायक बिरसा मुंडा हैं, जिन्होंने अपने स्वत्व की चिंता नहीं की, केवल राष्ट्र और समाज के हित के लिए कार्य किया, ऐसे नायक निश्चित रूप से समाज के लिए वंदनीय और पूजनीय हैं। समाज के हितों के लिए संघर्ष करने वाले बिरसा मुंडा ने भारत पर राज करने वाली ब्रिटिश सत्ता के विरोध में ऐसा जन आंदोलन खड़ा किया, जिसने जनजातीय समाज को एकत्रित कर जागरुक कर दिया और अंग्रेजों को भारत की भूमि छोड़कर जाना पड़ा। उनके द्वारा किए गए संघर्ष के कारण अंग्रेजों को सत्ता जाने का भय सताने लगा था। स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो बिरसा मुंडा ने अंगे्रजों का सिंहासन हिलाकर रख दिया।
वर्तमान समय में इस बात पर गंभीर चिंतन और मनन करने की आवश्यकता है कि हमारे आदर्श कैसे होना चाहिए। बिरसा मुंडा का सम्पूर्ण जीवन ऐसा ही आदर्श है, जिससे राष्ट्रीय भाव का प्रस्फुटन होता है। जहां से समाज का नायक बनने का आदर्श दिशाबोध है। बिरसा मुंडा भारतीय समाज के ऐसे आदर्श रहे हैं, जिसे हम सर ऊंचा करके गौरव के साथ याद करते हैं। देश के लिए उनके द्वारा किए गए अप्रतिम योगदान के कारण ही उनका चित्र भारतीय संसद के संग्रहालय में लगा है। ऐसा सम्मान विरले नायकों को ही मिलता है। जनजातीय समाज की बात करें तो इस समाज से यह सम्मान अभी तक केवल बिरसा मुंडा को ही मिल सका है।

बिरसा मुंडा का जन्म झारखंड के खूंटी जिले में हुआ था। उनके मन में बचपन से ही राष्ट्र भाव की उमंग दिखाई देती थी। उनके मन में अंग्रेजी सत्ता के प्रति नफरत हो गई थी। इसके पीछे का कारण भारतीय समाज, विशेषकर जनजातीय समाज के प्रति उनके मन में अपनेपन की पराकाष्ठा ही थी। अंग्रेज प्रारंभ से ही भारतीय समाज और उसकी संस्कृति की आलोचना करते थे, यह बात देश से अनन्य प्रेम करने वाले बिरसा मुंडा को अंदर तक चुभती थी। यही वजह थी कि मिशनरी स्कूल में पढ़ने के बाद भी वे अपने आदिवासी तौर तरीकों की ओर लौट आए, लेकिन इन सबके बीच के उनके जीवन में एक अहम मोड़ आया, जब 1894 में आदिवासियों की जमीन और वन संबंधी अधिकारों की मांग को लेकर वे आंदोलन में शामिल हुए। एक छोटी सी आवाज को नारा बनने में देर नहीं लगती, बस उस आवाज को उठाने वाले में दम होना चाहिए और इसकी जीती जागती मिसाल थे बिरसा मुंडा। बिरसा मुंडा ने बिहार और झारखंड के विकास और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अहम रोल निभाया। उन्होंने ब्रिटिश सत्ता के अस्तित्व को अस्वीकार करते हुए अपने अनुयायियों को सरकार को लगान न देने का आदेश दिया था।
1894 में आए अकाल के दौरान बिरसा मुंडा ने अपने समुदाय और अन्य लोगों के लिए अंग्रेजों से लगान माफी की मांग के लिए आंदोलन किया। 1895 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी, यही कारण रहा कि अपने जीवन काल में ही उन्हें एक महापुरुष का दर्जा मिला। बिरसा मुंडा ने 9 जून 1900 को रांची कारागार में अंतिम सांस ली।
(लेखिका पीजीवी महाविद्यालय में विभागाध्यक्ष हैं)