संदीप ठाकुर
हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव हाे चुके हैं और गुजरात विधानसभा व
दिल्ली नगर निगम ( एमसीडी) के हाेने हैं। इन दो राज्यों और एमसीडी में
भाजपा कब्जा है, लंबे अरसे से। फिर भी पार्टी के पास काम के नाम पर
गिनाने काे कुछ नहीं है। ले देकर कुछ है ताे वह है प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी का नाम। इसलिए पार्टी के नेता से लेकर मोदी तक खुद के नाम पर वोट
देने की अपील कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो मोदी ने खुद काे
दांव पर लगा दिया है। ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने
को सिर्फ गुजरात में दांव पर लगाया है, जो उनका गृह प्रदेश है। बल्कि
उन्हाेंने अपने को हिमाचल जैसे छोटे से राज्य में भी दांव पर लगाया है और
भारतीय जनता पार्टी उनको दिल्ली नगर निगम में भी दांव पर लगाने से बाज
नहीं आ रही है। लाख टके का सवाल यह है कि पार्टी काे देश से लेकर राज्य
तक और निगम से लेकर पंचायत तक के चुनाव में प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा
दांव पर लगानी पड़ती है ?
शुरुआत सबसे छाेटे हिमाचल प्रदेश से करते हैं। प्रधानमंत्री ने 68
विधानसभा सीट वाले हिमाचल में किस तरह से अपने को दांव पर लगाया उसका
गवाह कई वीडियो हैं जो यूट्यूब पर देखे जा सकते हैं। प्रधानमंत्री ने
भाजपा से बागी होकर निर्दलीय नामांकन दाखिल करने वाले कृपाल परमार को
मनाने के लिए खुद फोन किया। हिमाचल प्रदेश में प्रधानमंत्री मोदी ने
राज्य सरकार के पांच साल के कामकाज पर वोट नहीं मांगा और न उम्मीदवारों
के नाम पर वोट मांगे गए। मोदी ने अपने नाम और अपने काम पर वोट मांगा।
उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि हिमाचल के लोगों को उम्मीदवार को देखने
की जरूरत नहीं है। वे मेरा यानी मोदी के चेहरे काे याद रख कमल फूल का
बटन दबाएं और सीधे मोदी को वोट दें। इतना ही नहीं उन्होंने हिमाचल में
चुनाव प्रचार के दौरान वोटरों से कई जगह बोला कि आप यह मत देखो कि आपके
क्षेत्र से कौन भाजपा प्रत्याशी है। आप मेरा चेहरा देख कर वाेट दाे।
उन्होंने अपनी सभाओं में कहा कि अगर गलती से भी कांग्रेस जीत गई तो वह
उनको हिमाचल प्रदेश का विकास करने से रोक देगी। इतना ही नहीं
प्रधानमंत्री ने प्रचार बंद हो जाने के बाद राज्य के लोगों के नाम एक
खुला पत्र लिखा, जिसे पार्टी नेताओं ने घर घर पहुंचाया। उसमें उन्होंने
लिखा कि वे उनका हाथ मजबूत करने के लिए भाजपा को वोट दें। यह आलम तब है
जबकि हिमाचल प्रदेश भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का गृह प्रदेश
है। लेकिन चुनाव उनके नाम पर नहीं हुआ। पार्टी ने उनके नाम पर वोट नहीं
मांगा। इस तरह से हिमाचल का पूरा चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर लड़ा
गया। लाख टके का सवाल है कि यदि नतीजे भाजपा के पक्ष में नहीं आए तो क्या
होगा? क्या पार्टी या फिर खुद मोदी इसे अपनी हार के तौर पर कबूल करेंगे ?
गुजरात …मोदी का गृह प्रदेश। वहां भी मोदी नाम केवलम। वहां के
मुख्यमंत्री ताे चुनाव मैदान से ही बाहर हैं। कहने काे कुछ भी कहा जाए कि
लेकिन असली कारण हार का डर है। गुजरात में भी चुनाव काम पर नहीं, मोदी के
नाम पर लड़ा जा रहा है। कारण,ऐसी काे बड़ी उपलब्धि है नहीं जिसे गिनाया
जा सके। वैसे भी इस बार गुजरात चुनाव का सीन बिल्कुल अलग है। असल में
गुजरात में इस बार चुनाव में बड़ा ध्रुवीकरण हुआ है। हर बार
हिंदू-मुस्लिम का ध्रुवीकरण होता रहा और इस बार हिंदुओं में पटेल और गैर
पटेल का ध्रुवीकरण हुआ है। पूरा समाज इस लाइन पर बंटा है। भाजपा ने दो
दशक में जिस तरह की राजनीति की उससे उलट इस बार पटेलों पर बड़ा दांव
लगाया है। भूपेंद्र पटेल राज्य के मुख्यमंत्री हैं तो भाजपा ने कांग्रेस
से तोड़ कर हार्दिक पटेल को अपनी पार्टी में लिया और उनको भी टिकट दी है।
इसी तरह पटेल समाज के बड़े संगठन खोडलधाम ट्रस्ट के प्रमुख नरेश पटेल को
भी कांग्रेस से दूर किया गया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी
मुलाकात कराई गई। उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल के राज्य में
दखल की खबरें भी आती रहती हैं। सो, पटेल बनाम गैर पटेल के विभाजन ने
चुनाव काे बेहद दिलचस्प बना दिया है। परिणाम क्या होगा निश्चित तौर पर
कोई कुछ नहीं कह सकता।
गुजरात चुनाव की घोषणा के तुरंत बाद पांच नवंबर को दिल्ली में नगर निगम
चुनाव की घोषणा कर दी गई। जो चुनाव पिछले छह महीने से टला हुआ था
आनन-फानन में उसकी सारी औपचारिकता पूरी की गई और घोषणा कर दी गई। इसका
मकसद आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल और उनकी पूरी टीम को गुजरात
से निकाल कर दिल्ली में उलझाना था। इसमें भाजपा को काफी हद तक कामयाबी
मिली है। लेकिन गुजरात में इस बार आप ने चुनावी मैदान में कूद कर भाजपा
की मेहनत काे कई गुना बढ़ा तो दिया है।