तमिलनाडु में भाजपा परचम फहराने को तत्पर

BJP is ready to hoist its flag in Tamil Nadu

ललित गर्ग

आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में परंपरागत रूप से भारतीय जनता पार्टी कमज़ोर रही है, लेकिन अब भाजपा दक्षिण में अपनी जड़ों को न केवल मजबूत करना चाहती है बल्कि दक्षिण के राज्यों में सत्ता पर काबिज भी होना चाहती है। तमिलनाडु में अगले वर्ष अप्रैल-2026 में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक सरगर्मी तेज हो गई है। भाजपा और ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) ने 2026 के विधानसभा चुनाव मिलकर लड़ने की घोषणा कर दी है। शुक्रवार को अपनी महत्वपूर्ण चैन्नई यात्रा के दौरान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इस अहम राजनीतिक गठबंधन का ऐलान करते हुए स्पष्ट किया कि राज्य में एनडीए एडप्पादी के. पलानीस्वामी के नेतृत्व में चुनाव लड़ेगा, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही गठबंधन का चेहरा होंगे। तमिलनाडु की भाजपा में भी एक बड़ा बदलाव सामने आया है और भाजपा की तमिलनाडु इकाई की कमान नैनार नागेंद्रन को मिल गई है। भाजपा की राजनीतिक यात्रा में 2026 का तमिलनाडु चुनाव मील का पत्थर साबित होगा, वर्षों की प्यास को बुझायेगा, कमल खिलायेगा।

यह बात तो जगजाहिर है कि दक्षिण में हिन्दू मन्दिरों एवं संस्कृति का वर्चस्व होते हुए भी भाजपा अब तक अपनी जमीन मजबूत नहीं कर पाई है, जबकि केरल हो, कर्नाटक हो, आंध्र प्रदेश या तमिलनाडु हो, भाजपा अपनी जड़ों को सुदृढ़ करने की जद्दोजहद करती रही है। भाजपा के प्रयास दक्षिण में बेअसर ही रहे हो, ऐसी बात भी नहीं है, समय-समय पर उसके प्रयास रंग लाते रहे हैं। दक्षिण के चार में से तीन राज्यों में भाजपा अपना प्रभाव और प्रभुत्व दिखा चुकी है। कर्नाटक में कई बार भाजपा सत्ता आसीन हो चुकी है, आंध्र प्रदेश में इस समय सत्ता की भागीदार है, तेलंगाना में भी भाजपा मजबूत पकड़ बना चुकी है, केवल तमिलनाडु ही है जहां भाजपा कई दशकों से उपस्थिति दर्ज कराने के बावजूद सत्ता तक नहीं पहुंच पायी है। मोदी के प्रभाव और भाजपा के विशाल संसाधनों के बावजूद तमिलनाडू जीतना उसके लिए मुश्किल रहा है। पिछले 78 सालों में यहां कभी भी भाजपा-संघ की राष्ट्रवादी विचारधारा या हिंदुत्व के उनके संस्करण को स्वीकार नहीं किया है। यह सिर्फ भाजपा के लिए ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति के लिए भी एक बड़ी वैचारिक लड़ाई है। लेकिन इस बार भाजपा की रणनीति एवं तैयारियों एवं मोदी-शाह के संकल्पों एवं इरादों में दम है, तमिलनाडु में आमूल-चूल परिवर्तन होता हुआ दिख रहा है। तमिलनाडु में भाजपा की राजनीतिक रणनीति में किये गये बदलाव एवं रणनीतियां एक बड़ा मोड़ है, एक नया उजाला है। राजनीति के चाणक्य अमित शाह का यह भरोसा कि आने वाले विधानसभा चुनाव में एनडीए भारी बहुमत से जीत दर्ज करेगा और राज्य में सरकार बनाएगा, कोरी हवा में उछाली गयी बात नहीं है।

एआईडीएमके और भाजपा के बीच गठबंधन 1998 से बनते-बिगड़ते रहे हैं। 1998 की अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनाने और फिर 13 महीने बाद उसे गिराने का श्रेय भी एआईडीएमके को जाता है। जे. जयललिता का जब तक जीवनकाल रहा तब तक भाजपा नेतृत्व के साथ एआईडीएमके की नजदीकियां बनी रही। जब 1999 में जयललिता ने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लिया तो करुणानिधि ने डीएमके को भाजपा के साथ जोड़ लिया और 2004 तक सत्ता का सुख लेते रहे। 2004 के आम चुनाव में फिर से एआईडीएमके भाजपा के साथ आई लेकिन तमिलनाडु में लोकसभा की सीटें नहीं जीत सकी। लेकिन मोदी-शाह की नजरें हमेशा इस राज्य पर लगी रही। क्योंकि सामरिक रूप से तमिलनाडु एक संवेदनशील राज्य है, श्रीलंका के साथ उसका सीधा जुड़ाव है। चीन श्रीलंका के माध्यम से भारत में पैठ बनाना चाहता है, ऐसे में तमिलनाडु में केंद्र की आंख बंद कर विरोध करने वाली पार्टी का सत्तासीन रहना देश हित के लिए गंभीर सवाल पैदा करता है, अनेक संकटों का कारण बन सकता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समक्ष अपने तीसरे कार्यकाल की बड़ी चुनौतियों में बंगाल, तमिलनाडु, केरल को जीतना है। वैसे इन राज्यों में भाजपा की जीत एक करिश्मा ही होगा, लेकिन मोदी-शाह ऐसे आश्चर्यकारी करिश्में घटित करते रहे हैं। सर्वविदित है कि भाजपा के लिए तमिलनाडु केवल राजनीतिक संघर्ष का मैदान नहीं है, वैचारिक लड़ाई भी लड़ी जानी है। स्टालिन सरकार द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति को विवादित करने और त्रिभाषा सिद्धांत को हिंदी थोपने की कोशिश के रूप में प्रचारित करने से केंद्र आहत है, इसीलिये भाजपा अपने राजनीतिक सिद्धांतों, योजनाओं, कार्यक्रमों एवं नीतियों को गंभीर चुनौती दे रहे इन नेताओं और दलों को वैचारिक धरातल पर परास्त करने का रास्ता भी खोज रही है। प्रधानमंत्री मोदी अपनी यात्राओं एवं अन्य चर्चाओं में यह बताते रहे हैं कि पूरे तमिलनाडु की जनता एवं राज्य उनके दिल में हैं, वे उसके कल्याण एवं विकास के लिये तत्पर है। तमिल लोगों के दिलों को जीतने का काम अकेले भाजपा के द्वारा संभव नहीं है, इसीलिये एआईडीएमके की बैशाखियां उसके लिये जरूरी है।

भाजपा के राजनीतिक समीकरणों की सार्थक निष्पत्ति का एक हिस्सा है एआईडीएमके और भाजपा के ताजा गठबंधन की घोषणा। इस गठबंधन को सहज बनाने और पार्टी के अनुरूप इसका स्वरूप देने का श्रेय गृहमंत्री अमित शाह को जाता है, क्योंकि इस बार यह काम उतना आसान नहीं था। शाह एक कद्दावर नेता होने के साथ राजनीतिक गणित को समझने में माहिर है। अमित शाह जमीनी हकीकत से हमेशा वाकिफ रहते हैं। उनके पास तमिलनाडु को लेकर साफ तस्वीरें हैं, सुस्पष्ट एजेंडा है। वह एआईडीएमके के साथ अभी से उदार एवं लचीली सोच से चलना चाहते हैं लेकिन उन्हें अपना लक्ष्य पता है। डीएमके एवं स्टालिन का अहंकार ही उनका मुख्य हथियार होगा। विकास के लिये सत्ता परिवर्तन जनता के लिए यदि जरूरी है तो उसे हासिल करने का तरीका भला अमित शाह से ज्यादा कौन जानता होगा।

तमिल में भाजपा के पांव जमते हुए दिख रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है भाजपा की सोच में बदलाव आना, तमिलों की बारीकियों एवं भावनाओं को समझते हुए राजनीतिक दांव चलना। भाजपा के पास द्रविड़ समाज को आकार देने का भले ही संस्थागत इतिहास नहीं है, लेकिन राज्य के विकास में उसने गहरे़ संसाधन लगाये हैं। वह एक नया वोट-आधार तैयार कर रही है। लोकसभा चुनाव से पहले मोदी ने काशी और तमिलनाडु के बीच विभेद को खत्म करने की कोशिश की। धार्मिक राजत्व का तमिल प्रतीक सेंगोल संसद में स्थापित किया गया। ऐसे अनेक सकारात्मक प्रयास भाजपा के द्वारा लगातार किये जा रहे हैं। त्रिभाषा फार्मूला भी तमिल लोगों को भाषा के नाम पर जोड़े रखने का एक उपक्रम है। मोदी और शाह दोनों ने तमिल भाषा के प्रति पार्टी के सम्मान को परिभाषित किया। पिछले दशक का एक बड़ा राष्ट्रीय घटनाक्रम यह रहा है कि भाजपा ने चुपचाप अपने नारे हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान में सुधार किया है। अब वे ‘हिंदी और सभी क्षेत्रीय भाषाओं’ की बात करते हैं। इन सबके चलते यदि तमिल के जातीय-मतदाता भाजपा को उसके मौजूदा स्वरूप में स्वीकार करेंगे, तब यह भारतीय सेकुलर राजनीति की एक क्रांतिकारी घटना होगी।

शाह की रणनीति सही दिशा में काम कर रही है। बावजूद यह डगर चुनौतीपूर्ण है। क्योंकि डीएमके दुबारा सत्ता में आने के लिए जो नुस्खा तैयार कर रही है उसमें तमिल स्वाभिमान और भाषा विवाद का घोल मिलाया जा रहा है। स्टालिन और उनका पूरा परिवार इस समय घोर भ्रष्टाचार और गैर कानूनी कामों में लिप्त है लेकिन उन्होंने हिंदी विरोध, दक्षिण के साथ केन्द्र का कथित सौतेला व्यवहार और मनमाने परिसीमन जैसे मुद्दों को आगामी चुनाव का एजेंडा बनाया है। इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तमिलनाडु यात्रा में जानबूझ कर मुख्यमंत्री स्टालिन गायब हो गए, जबकि यह एक सामान्य शिष्टाचार होता है कि प्रधानमंत्री प्रांत में आये तो मुख्यमंत्री उनका स्वागत करें। लेकिन ऐसा न करके स्टालिन ने यह जताया कि डीएमके भाजपा विरोध के साथ-साथ केंद्र से टकराव की राजनीति पर है।