अजय कुमार
जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटने के बाद हुए पहले राज्यसभा चुनावों ने राजनीतिक समीकरणों को हिला दिया है। चार सीटों पर हुए इन चुनावों में जहां नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) ने तीन सीटें हासिल कर अपना वर्चस्व बरकरार रखा, वहीं चौथी सीट पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने अप्रत्याशित जीत दर्ज की। भाजपा के उम्मीदवार और प्रदेश अध्यक्ष सत शर्मा ने एनसी प्रवक्ता इमरान नबी दार को 10 वोटों से हराकर अपना स्थान ऊपरी सदन में सुनिश्चित किया। यह जीत मात्र एक सीट की नहीं, बल्कि आगामी जम्मू-कश्मीर राजनीति में भाजपा की रणनीतिक पैठ का संकेत है। इस चुनाव परिणाम का सबसे रोचक पहलू यह रहा कि विधानसभा समीकरण भाजपा के पक्ष में नहीं थे। भाजपा के पास खुद के 28 विधायक हैं, जबकि एनसी, कांग्रेस, पीडीपी और वाम दल सहित ‘इंडिया गठबंधन’ के पास लगभग 52 वोटों का आंकड़ा था। इसके बावजूद भाजपा उम्मीदवार सत शर्मा को 32 मत मिले, यानी चार अतिरिक्त वोट हासिल हुए। यह चार वोट ही भाजपा के लिए निर्णायक साबित हुए। राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि कुछ विपक्षी विधायकों ने क्रॉस वोटिंग की, या उन्होंने अपने मतपत्रों को अमान्य बनाकर अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा की मदद कर दी।
मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इस नतीजे पर कड़ी प्रतिक्रिया दी और आरोप लगाया कि एनसी समर्थक गठबंधन के चार विधायकों ने जानबूझकर गलत प्राथमिकता संख्या लिखकर वोट अमान्य किए। उन्होंने सोशल मीडिया पर सवाल उठाया कि क्या इन विधायकों में इतना साहस है कि वे स्वीकार करें कि उन्होंने भाजपा को जीतने के लिए अपने वोटों को बेकार किया? वहीं, पीपुल्स कॉन्फ्रेंस प्रमुख सज्जाद लोन ने इस मुकाबले को फिक्स मैच बताते हुए आरोप लगाया कि यह नतीजा एनसी और भाजपा की मिलीभगत से तय हुआ था। हालांकि सज्जाद लोन का खुद वोटिंग से दूर रहना भी राजनीतिक रूप से ध्यान खींचने वाला कदम रहा। उनके अनुसार एनसी ने जानबूझकर कांग्रेस को कमजोर कर चौथी सीट पर भाजपा को बढ़त दी। इस पूरे घटनाक्रम ने न केवल विपक्षी एकता में दरार उजागर की, बल्कि यह भी दिखाया कि जम्मू-कश्मीर की राजनीति में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं अब भी साझा राजनीतिक उद्देश्य से ज्यादा मजबूत हैं।
यह परिणाम ऐतिहासिक इसलिए भी है क्योंकि यह अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण के बाद का पहला बड़ा संसदीय चुनाव था। भाजपा के लिए सत शर्मा की जीत राष्ट्रीय एकीकरण की नीति के समर्थन का प्रतीकात्मक संदेश बनकर आई है। कश्मीर घाटी में पहली बार ऐसा हुआ कि एक राष्ट्रीय पार्टी ने गठबंधन बहुमत के बावजूद विपक्षी दलों में सेंध लगाकर राज्यसभा सीट हासिल की। भाजपा समर्थकों ने इस जीत का जश्न मनाते हुए मोदी-मोदी के नारे लगाए, जिसे पार्टी ने केंद्र की नीतियों पर जनता की मुहर बताया। राजनीतिक दृष्टि से देखा जाए तो यह जीत भाजपा के लिए मनोवैज्ञानिक और रणनीतिक दोनों अर्थों में अहम है। इससे जहां पार्टी ने अपने विरोधियों को यह दिखाया कि वह विरोधी सरकारों में भी अप्रत्याशित जीत हासिल करने का सामर्थ्य रखती है, वहीं भाजपा के संगठनात्मक तंत्र और स्थानीय नेटवर्क की सक्रियता भी सामने आई है। जम्मू क्षेत्र में भाजपा की मजबूत पकड़ पहले से जानी जाती थी, लेकिन इस बार पार्टी ने कश्मीर के विधायकों में भी प्रभाव डालने का परिचय दिया है।
दूसरी ओर, एनसी के लिए यह झटका है। तीन सीटों की जीत के बावजूद पार्टी चौथी सीट गंवाने से आंतरिक समीक्षा के दौर में है। उमर अब्दुल्ला और अन्य नेताओं के बयान यह दर्शाते हैं कि गठबंधन में विश्वास का संकट गहरा गया है। कांग्रेस और पीडीपी, दोनों दल यह मान रहे हैं कि एनसी ने चौथी सीट पर अपने उम्मीदवार को आगे रखकर रणनीतिक गलती की, जिससे भाजपा की अप्रत्याशित चढ़ाई हुई। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यह नतीजा जम्मू-कश्मीर की आने वाली विधानसभा राजनीति पर गहरा असर डालेगा। भाजपा अब यह नैरेटिव बनाने में सफल होगी कि वह घाटी की राजनीति में भी अपनी जगह बना रही है, जबकि एनसी और कांग्रेस को अपने सहयोग तंत्र को लेकर पुनर्विचार करना होगा। केंद्र और राज्य के बीच संवाद की राजनीति को लेकर भी यह चुनाव संकेत देता है कि भाजपा अब घाटी में स्थायी राजनीतिक शक्ति बनने के अपने लक्ष्य की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ चुकी है।
भाजपा अब इस जीत को सांकेतिक न कहकर संरचनात्मक राजनीतिक पुनरुत्थान के रूप में प्रस्तुत करेगी। वहीं एनसी के लिए यह संदेश है कि केवल क्षेत्रीय पहचान और गठबंधन राजनीति से अब जम्मू-कश्मीर का राजनीतिक संतुलन नियंत्रित नहीं रह सकता। भाजपा ने दिखाया है कि वह समर्थन से नहीं, रणनीति से जीत सकती है। इसीलिए इस एक सीट की जीत का असर आगामी पंचायत, विधानसभा और संसदीय चुनावों तक पड़ सकता है, जहां भाजपा अपने इस उदाहरण को कश्मीर में नया राजनीतिक समीकरण बताकर एक सशक्त अभियान की नींव रखेगी। इस प्रकार, जम्मू-कश्मीर की राज्यसभा की चार सीटों का यह चुनाव केवल विधायी घटनाक्रम नहीं बल्कि एक नया राजनीतिक अध्याय है। जिससे यह सिद्ध हो गया है कि गठबंधन की संख्याएं हमेशा अंतिम नहीं होती, समीकरणों के बीच कभी-कभी रणनीति भी सत्ता के समीकरण बदल देती है। भाजपा की यह सफलता आने वाले महीनों में न केवल विपक्षी शिविरों में वैचारिक संशय को गहरी करेगी बल्कि शायद घाटी की राजनीति में भी नए समीकरणों की शुरुआत का प्रतीक बनेगी।





