बीजेपी का ‘कमल’ या केजरीवाल का विजय रथ दिल्ली में कौन होगा जीत का हकदार

BJP's 'lotus' or Kejriwal's victory chariot, who will be entitled to victory in Delhi

अजय कुमार

दिल्ली का सियासी दंगल सज गया है। बस चुनाव की तारीख की घोषणा होना बाकी रह गया है।इस बार भी इंडिया गठबंधन का हिस्सा होने के बाद भी कांग्रेस और आम आदमी पार्टी अलग-अलग चुनाव लड़ रहे हैं।वहीं बीजेपी भी पूरे दमखम से मैदान में डटी है तो पीछे यूपी में मजबूत पकड़ रखने वाली समाजवादी पार्टी और बसपा भी नहीं हैं।दिल्ली विधानसभा चुनाव में जहां आम आदमी पार्टी के सामने अपनी 11 साल पुरानी सरकार को बचाये रखने की चुनौती है तो बीजेपी कम बैक करना चाहती है। मगर वह बिना सेनापति यानी मुख्यमंत्री के चेहरे के मैदान में ताल ठोक रही है,इसका उसे कितना फायदा या नुकसान होगा यह नतीजे आने के बाद पता चलेगा। वहीं कभी दिल्ली पर दबदबा बनाने रखने वाली कांग्रेस चुनाव के मैदान में तो हैं लेकिन सत्ता में उसकी वापसी हो,इसके लिये उसके पास शीला दीक्षित जैसा कोई चेहरा नजर नहीं नजर आ रहा हैं।

गौरतलब हो ,केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली में विधानसभा बहाल होने के बाद 1993 में पहली बार विधानसभा चुनाव हुए थे. उसके बाद से राजधानी में सात बार विधानसभा चुनाव हुए हैं। बीजेपी महज एक बार साल 1993 में ही जीत दर्ज करने में कामयाब रही थी। 1998 में उसके हाथों से सत्ता गई तो फिर वापसी नहीं हुई। ऐसे में सवाल उठता है कि दिल्ली का दिल बीजेपी क्यों नहीं जीत पाती है और 2025 में क्या सियासी ग्रहण को दूर कर पाएगी। बीजेपी पिछले 26 साल से दिल्ली में सत्ता का वनवास झेल रही है. 15 साल तक शीला दीक्षित की अगुवाई में कांग्रेस के सामने खड़ी नहीं हो सकी. थी तो उसके बाद अरविंद केजरीवाल की चुनौती से बीजेपी कभी पार नहीं पा पाई। शीला दीक्षित के बाद से 11 साल से आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल के आगे बीजेपी लीडरशिप पस्त नजर आई है।

अब नव वर्ष के आगाज के साथ ही फिर से दिल्ली विधानसभा चुनाव की सियासी तपिश बढ़ गई है। बीजेपी 2025 में होने वाले विधानसभा में हर हाल में दिल्ली में कमल खिलाना चाहती है, जिसके लिए पूरी ताकत झोंक रखी है. इसके बाद भी बीजेपी के लिए दिल्ली के सत्ता की राह आसान नहीं है. मोदी-शाह की जोड़ी 2014 लोकसभा चुनाव के बाद से बीजेपी के लिए जीत हासिल करने की गांरटी बन गई थी. ऐसे में देखते ही देखते देश के एक के बाद एक राज्यों में बीजेपी अपनी जीत का परचम फहराती रही. उत्तर से दक्षिण और पश्चिम से पूर्वोत्तर राज्यों तक बीजेपी की जीत का डंका बजने लगा. बीजेपी की जीत का श्रेय नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी को दिया गया लेकिन केंद्र सरकार के नाक के नीचे दिल्ली में 2015 और 2020 में दो बार चुनाव हुए. इन दोनों ही चुनावों में मोदी-शाह की जोड़ी केजरीवाल के सामने अपना असर नहीं दिखा सकी. इसके पीछे सबसे बड़ी वजह क्या है, जिसके चलते बीजेपी दिल्ली की जंग फतह नहीं पा रही?

दिल्ली के सियासी मिजाज को बीजेपी समझ नहीं पा रही है. देश के दूसरे राज्यों के फॉर्मूले पर दिल्ली के विधानसभा चुनाव नहीं जीता जा सकता है. दिल्ली जाति और धर्म की सियासत को कभी तवज्जो नहीं नहीं देती है. इसके अलावा दिल्ली के लोग नकारात्मक चुनाव प्रचार को अहमियत नहीं देते, क्योंकि दिल्ली में एक बड़ा तबका कारोबारियों का है. दिल्ली में तीन तरह के चुनाव होते हैं और तीनों में वोटिंग पैटर्न अलग-अलग हैं. लोकसभा चुनाव में दिल्ली की पसंद बीजेपी रही तो विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी. पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के दौर में भी ऐसा ही था, जब विधानसभा में कांग्रेस को कामयाबी मिली थी तो लोकसभा में बीजेपी को. एमसीडी चुनाव में पहले बीजेपी का कब्जा रहा, लेकिन अब आम आदमी पार्टी का है.

दिल्ली के चुनाव में पार्टी से ज्यादा नेता का व्यक्तित्व मायने रखता है. साल 1993 में बीजेपी ने मदन लाल खुरना को आगे कर सत्ता हासिल की थी, लेकिन सिर्फ पांच साल के दौरान बीजेपी को तीन बार सीएम बदलना पड़ा. नतीजा यह हुआ कि दिल्ली की जनता के बीच बीजेपी की तरफ से गलत राजनीतिक संदेश गया और इसका खामियाजा उसे 1998 के चुनाव में भुगतना पड़ा. इसके बाद से बीजेपी दिल्ली की सियासत में अपना कोई ऐसा नेता खड़ी नहीं कर सकी, जो शीला दीक्षित और अरविंद केजरीवाल के सामने चुनौती पेश कर सके.

1998 के चुनाव में कांग्रेस को जीत दिलाने वाली शीला दीक्षित 15 साल तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं. शीला दीक्षित ने खुद को कांग्रेस पार्टी के सामनांतर खड़ा किया था. दिल्ली में उन्होंने विकास का अपना एक मॉडल बनाया, जिसके दम पर वो 1998 से 2013 तक एकक्षत्र राज करती रहीं. बीजेपी इन 15 सालों तक कांग्रेस को चुनौती नहीं दे सकी और न ही कभी भी शीला के कद का कोई अन्य नेता उनके सामने खड़ा नहीं कर पाई. इसके बाद 2013 में अन्ना आंदोलन से निकले अरविंद केजरीवाल ने पहली बाजी जीतने के बाद ऐसा खूंटा गाड़ा कि उसे बीजेपी नहीं उखाड़ सकी. केजरीवाल के सामने बीजेपी ने कई प्रयोग किए, लेकिन चुनौती नहीं खड़ी कर सकी.

केंद्र की सत्ता पर काबिज रहने वाली पार्टी दिल्ली की सियासत को वैसे ही डील करती है. कांग्रेस और बीजेपी अपने किसी भी नेता को दिल्ली में बहुत ज्यादा स्पेस नहीं देती. दिल्ली में किसी खास नेता को स्पेस देने का मतलब है उसकी राजनीतिक हैसियत को बढ़ाना और कोई भी राष्ट्रीय पार्टी ऐसा करना नहीं चाहती. पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी खुद को पार्टी के अंदर स्थापित किया था. उन्हें पार्टी की तरफ से कोई बढ़ावा नहीं मिला. ठीक उसी तरह बीजेपी भी दिल्ली के नेताओं को बहुत ज्यादा अहमियत नहीं देती. यही वजह है कि वो केजरीवाल के सामने कोई मजबूत चेहरा नहीं उतार सकी.