जावेद अनीस
हिन्दुत्व को केंद्र में रखकर राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी अब पसमांदा मुसलमानों को अपने साथ जोड़ना चाहती है. भाजपा की छवि हमेशा से ही मुस्लिम विरोधी रही है. वो पिछले आठ सालों से सत्ता में है, इस दौरान उसपर यह आरोप और गहरा होता गया है.इन आरोपों के पीछे ठोस वजूहात भी हैं जिनकी जड़ें उसके हिन्दुतत्व की मूल विचारधारा में निहित है. पिछले आठ सालों के भाजपा के शासन काल के दौरान मुसलमान लगातार हाशिये पर गए हैं और उनके खिलाफ डर व असुरक्षा का माहौल बना है. आज की तारीख में मोदी सरकार में कोई मंत्री मुस्लिम नहीं है और सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद उसका कोई सांसद या विधायक मुस्लिम नहीं है. ऐसे में पसमांदा मुसलमानों को लेकर भाजपा में उभरे इस स्नेह के पीछे क्या कारण हो सकते हैं?
जाति भारतीय उपमहादीप की एक पुरानी बीमारी है. इलाकाई और सांस्कृतिक विभिन्नताओं के बावजूद जाति व्यवस्था इस क्षेत्र में लगभग सारे धार्मिक समूहों में पायी जाती है. हालाँकि इस्लाम में जाति की कोई व्यवस्था नहीं है लेकिन भारतीय मुसलमान भी जातीय विषमता के शिकार हैं. 2007 में आयी न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट में स्वीकार किया गया था कि भारत में जाति व्यवस्था ने मुसलमानों सहित सभी धार्मिक समुदायों को प्रभावित किया है. यह विडंबना ही है कि भारत में नीची माने जाने वाली जातियों के कई लोगों ने जातिप्रथा के उत्पीड़न से बचने के लिए इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाया लेकिन इसके बाद भी वे जाति व्यवस्था के मजबूत जकड़ से अपना पीछा नहीं छुड़ा सके. भारतीय नवशास्त्रीय सर्वेक्षण के प्रोजेक्ट पीपुल्स आफ सीरिज के तहत के.एस सिंह के सम्पादन में प्रकाशित “इंडियाज कम्युनिटीज” के अनुसार भारत में कुल 584 मुस्लिम जातियाँ और पेशागत समुदाय हैं. मंडल कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर पिछड़े वर्गों को जो 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है उसमें 79 मुस्लिम जातियां शामिल हैं जिनमें से अधिकतर पसमांदा हैं.
ऐसा माना जाता है कि भारत के मुस्लिम समाज का 85 फीसदी हिस्सा पसमांदा है. “पसमांदा” का अर्थ है ‘पीछे छूटे हुए’ या ‘दबाए गये लोग’. दरअसल पसमांदा शब्द का उपयोग मुसलमानों के बीच दलित और पिछड़े मुस्लिम समूहों के संबोधन के लिए किया जाता है.ऐसा माना जाता है कि ज्यादातर पसमांदा मुसलमान हिन्दू धर्म से कन्वर्ट होकर मुसलमान बने हैं लेकिन वे अपनी जाति से पीछा नहीं छुड़ा सके हैं. इनमें से अधिकतर की सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति हिन्दू दलितों एवं आदिवासियों के सामान या उनसे भी बदतर है. संख्या में अधिक होने के बावजूद पसमांदा मुसलमानों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी काफी कम है. पहली से लेकर चौदहवीं लोकसभा तक चुने गए कुल 400 मुस्लिम सांसदों में केवल 60 पसमांदा सांसद शामिल हैं.
इसी गैरबराबरी को ध्यान में रखते हुये पसमांदा मुस्लिम लंबे समय से अपनी सामाजिक-आर्थिक बेहतरी के लिए संघर्ष भी कर रहे हैं, आजादी से पहले अब्दुल कय्यूम अंसारी और मौलाना अली हुसैन असीम बिहारी जैसे लोगों द्वारा इसकी शुरुआत की गयी. मौजुदा दौर में पूर्व राज्यसभा सांसद अली अनवर जैसे नेता इस मुहिम की अगुवाई कर रहे हैं जिन्होंने “अखिल भारतीय पसमांदा मुस्लिम महाज़” की स्थापना की है और “मसावात की जंग” जैसी किताब लिख चुके हैं. इस सिलसिले में मसूद आलम फलाही की किताब “हिंदुस्तान में जात-पात और मुसलमान” भी काबिले जिक्र है जो मुस्लिम समाज के अन्दर व्याप्त जातिगत ऊंच-नीच और भेदभाव का बहुत प्रभावी तरीके से खुलासा करती है.
देश की तकरीबन सभी राजनीतिक पार्टियों द्वारा पसमांदा मुसलमानों की अपेक्षा की गयी है लेकिन अब भाजपा जैसी हिंदुत्ववादी पार्टी ने इन्हें अपने साथ जोड़ने का इरादा जताया है. जुलाई 2022 में हैदराबाद में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा मुस्लिम समुदाय के कमजोर और वंचित तबकों को भाजपा से जोड़ने की सलाह दी गयी थी. दरअसल भाजपा हिन्दू एकता के अपने विराट प्रोजेक्ट के तहत पहले ही ओबीसी के ग़ैर-यादव जातियों और ग़ैर जाटव दलितों के बीच अपना पैठ बना चुकी है, अब पसमांदा मुसलमानों को अपनी तरफ आकर्षित करके अपने सोशल इंजीनियरिंग को अभेद बना देना चाहती है. इसकी कवायद लम्बे समय से चल रही है, 2014 में सत्ता में आने के बाद भाजपा द्वारा पहली बार एक पसमांदा मुस्लिम अब्दुल रशीद अंसारी को पार्टी के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक मोर्चा का अध्यक्ष बनाया गया. इससे पहले भाजपा अधिकतर शियाओं और कुछ हद तक बरेलवी मुसलामानों पर ही ज्यादा ध्यान देती थी. इसी प्रकार से उत्तर प्रदेश में दूसरी बार सत्ता हासिल करने के बाद इकलौते मुस्लिम मंत्री के रूप में दानिश अंसारी को जगह दी गयी जो एक पसमांदा मुसलमान हैं.
गौरतलब है कि देश के पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, झारखंड और असम में मुस्लिम आबादी 19.26 प्रतिशत से 34.22 प्रतिशत के बीच है, जाहिर हैं इनमें से अधिकतर पसमांदा मुस्लिम हैं. इन पाँचों राज्यों में 190 से ज्यादा लोकसभा की सीटें आती हैं, इसके साथ ही दक्षिण भारत के राज्यों में भी पसमांदा मुस्लिमों की अच्छी तादाद है. इसी को ध्यान में रखते हुये भाजपा पसमांदा मुसलमानों को साधना चाहती है. इसके लिए भाजपा ने अपनी रणनीति पर अमल करना शुरू भी कर दिया है. पिछले दिनों संपन्न हुये मध्यप्रदेश नगरीय निकाय चुनाव में भाजपा ने कुल 6671 पार्षद सीटों में से 380 सीटों पर मुस्लिमों को टिकट दिया था जिनमें से अधिकतर पसमांदा मुसलमान थे. इनमें से भाजपा के 92 मुस्लिम उम्मीदवार अपनी जीत दर्ज कराने में कामयाब भी रहे हैं. अब भाजपा पूरे देश में पसमांदा मुसलमानों की बस्तियों में स्नेह यात्रा निकालने की योजना पर काम कर रही है.
लेकिन भाजपा की यह रणनीति क्या केवल पसमांदा मुसलामानों के वोट हासिल करने की रणनीति है या इससे कुछ अधिक है. गौरतलब है भाजपा एक विचारधारा आधारित पार्टी है जिसका वैचारिक आधार आरएसएस के हिन्दुतत्व की विचारधारा पर निर्भर है. इसीलिए एक पार्टी के तौर पर वो लम्बे समय की की योजना बनाकर काम करती है और इसके केंद्र में हिन्दुतत्व की विचारधारा निहित होती है.
इसीलिए भाजपा पसमांदा मुसलमानों तक अपनी पहुँच बनाकर एक तीर से कई निशाने लगाना चाहती है. सबसे पहला और बाहरी तौर पर दिखाई पड़ने वाला निशाना तो उनका वोट हासिल करना है, साथ ही मुस्लिम समुदाय के एक हिस्से के भाजपा से जुड़ने के और भी फायदे हैं इससे मुस्लिम वोटों का बिखराव होगा और समुदाय का एक हिस्सा चुनावों में जातिगत आधारों पर बंट कर वोट कर सकता है. मुस्लिम वोटों का बिखराव का सबसे बड़ा फायदा भाजपा को ही पहुंचाएगा और मुस्लिम समुदाय के एक हिस्से के जुड़ने से उसकी छवि भी सुधरेगी खास करके अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर.
इस पहल के पीछे एक और छुपा मकसद हो सकता है जो संघ के लंबे समय की रणनीति का एक हिस्सा है. संघ प्रमुख मोहन भागवत लम्बे समय से यह दोहराते रहे हैं कि भारत में रहने वाले सभी लोग हिन्दू हैं भले ही उनकी पूजा और इबादत का तरीका अलग हो. यहाँ संघ द्वारा “हिन्दू” को रहन-सहन के तरीके और संस्कृति के तौर पर परिभाषित किया जाता है. आजकल संघ और भाजपा के लोग यह कहते हुये भी दिखलाई पड़ते हैं कि हिन्दुओं और मुसलमानों (खासकर पसमांदा मुसलामानों) के पूर्वज एक ही हैं. इस कड़ी को बीते अगस्त में भोपाल में आयोजित हुये विश्व हिंदू परिषद शिविर से समझा जा सकता है जिसके तहत संघ प्रमुख मोहन भागवत की मौजूदगी में विश्व हिंदू परिषद को मध्य प्रदेश के 9 जिलों में मुसलामानों और ईसाइयों के घर वापसी को लेकर अभियान चलाने की जिम्मेदारी दी गयी है. इस अभियान के लिए एक नारा भी तैयार किया गया है “शून्य प्रतिशत धर्मांतरण और शत प्रतिशत घर वापसी”.
पसमांदा आंदोलन का एक नारा है “हिंदू हो या मुसलमान पिछड़ा-पिछड़ा एक समान”. यह पसमांदा आन्दोलन की मूल आत्मा हैं. यह नारा धार्मिक पहचान की जगह सभी समुदायों के सामाजिक या जातीय रूप से संगठित करने की वकालत करता है. यह एक प्रगतिशील नारा है लेकिन भाजपा और संघ इसका अपनी तरह से फायदा उठाना चाहते हैं. हालांकि उनके लिए ऐसा करना आसान नहीं होगा क्योंकि पसमांदा आन्दोलन के नेता इस बात की आशंका जता रहे हैं कि कहीं अचानक पसमांदा समाज के लिए “स्नेह यात्रा” निकालने के पीछे मकसद मुसलमानों को आपस में लड़ा कर तोड़ने जैसी सियासत करना तो नहीं है? इस सम्बन्ध में ‘आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़’ के नेता अली अनवर द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक खत भी लिखा गया है जिसमें वे कहते हैं कि ‘हम पसमांदा हैं और अब पेशमांदा (आगे रहने वाला) होना चाहते हैं और पसमांदा मुसलमानों को ‘स्नेह’ नहीं सम्मान चाहिए.’
इसी कड़ी में पसमांदा संगठनों द्वारा मोदी सरकार से अपनी मांगों को दोहराया गया है जिसमें तीन प्रमुख मांगें है. पहली मांग है अनुच्छेद 341 के तहत दलित मुस्लिमों को भी आरक्षण मिले दूसरा बिहार में जिस तरह से कर्पूरी ठाकुर ने आरक्षण का फार्मूला लागू किया था उसे अपनाया जाये और तीसरी मांग है पसमांदा मुस्लिमों के लिए नौकरी के अवसर और सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) के लिए सहायता मिले.
भाजपा के लिए इन मांगों को पूरा करना आसान नहीं होगा और शायद वो इस तरफ कान भी ना धरे, दूसरी तरह उसे पसमांदा मुसलामानों का विश्वास जीतना भी आसान नहीं होगा. पिछले सालों में मॉब लिंचिंग और पूरे समुदाय के खिलाफ नफरत का जो माहौल बनाया गया है उससे जाहिर तौर पर पसमांदा मुस्लिम भी बड़े पैमाने पर प्रभावित रहे हैं. लेकिन इन सबके बावजूद अगर भाजपा पसमांदा मुसलमानों के लिए एक ठोस कार्यक्रम करती है तो इसके प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकता है. यह ना केवल भाजपा बल्कि भारत में अल्पसंख्यक समुदाय राजनीति में एक बड़ा बदलाव ला सकता है.