पुस्तक समीक्षा : सामयिक मुद्दों पर संकलित दोहों का संग्रह “उगें हरे संवाद”

नृपेन्द्र अभिषेक नृप

साहित्य की प्रसिद्ध विधाओं में से एक दोहा आता है। हिंदी साहित्य ने काफ़ी सारे दोहा कवियों को जन्म दिया है जिन्होंने साहित्य को एक नया आयाम दिया है। इसी कड़ी में हिंदी नवगीत के चर्चित वरिष्ठ कवि योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’ जी का दोहा संग्रह “उगें हरे संवाद” आता है। श्री योगेन्द्र बर्मा ‘व्योम’ जी अपनी रचनाधर्मिता से ही विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं, मंचों, गोष्ठियों और सभाओं में अपना प्रतिष्ठित स्थान रखते हैं। उनकी लेखनी से दोहे भी नये अवतार में लोकप्रियता की ओर निरन्तर आगे बढ़ रहे हैं।

अपने दोहों के माध्यम से कवि समाज कल्याण के साथ – साथ सृजक की साधना में उसकी आराधना को दर्शातें प्रतीत हो रहें हैं। इस पुस्तक का दोहाकार मूल्यों के क्षरण से विचलित ऐसा संवेदनशील प्राणी है जो हर हाल में नैतिकता और अपनी सांस्कृतिक धरोहर को बचाने की मुहिम में लगा है। वे अपने जीवन – प्रसंगों से जुड़े कई कोणों पर भी नज़र डालते हुए अपनी काव्यात्मक टिप्पणी करते हैं। कवि जीवन में संघर्ष की महत्ता के पोषक हैं, जिसका प्रभाव ‘उगें हरे संवाद’ पुस्तक के दोहों में देख सकतें हैं।

इस पुस्तक के प्रारंभ में कवि माँ शारदे की वंदना करते हुए दोहे रचते हैं। माता से आग्रह करते हैं कि वे दुनिया से अज्ञान का अंधकार दूर करके ज्ञान से जग को प्रकाशित करें-
“हे माँ वीणावादिनी, करूँ नमन शत् बार ।
पूजन अर्चन में करो, शब्द पुष्प स्वीकार ।।”

कवि समाज में बराबरी का संदेश देने के लिए दूब, और पेड़ का उदाहरण देते हैं, जैसे पेड़, ज्यादातर हवा और धूप का उपभोग करते हैं, तथा दूब को थोड़े से संतोष करना पड़ता है। वैसे ही हमारे समाज में कुछ लोग ही ज्यादातर संसाधनों का उपभोग करते हैं जबकि बाकी लोग संसाधन-विहीन जीवन व्यतीत करने को बाध्य होते हैं।

एक अन्य दोहे में कवि स्वाभिमान को महत्वपूर्ण बताते हैं परन्तु उसके लिए मर्यादा को भी ध्यान में रखना आवश्यक है। कवि ने गरीबी का भयावह रूप दिखाने के लिए ठंड के मौसम का सहारा लिया है। ठंड इतनी है कि ठिठुरन को भी ठंड लग रही है और ऐसी स्थिति में लोग चीथड़ों में लिपटे हुए फुटपाथ पर सो रहे हैं। जैसे ही वसंत ऋतु आती है, कुहरे से सिमटे पेड़ों और परिंदों को खुशी मिलती है-
“ठिठुरन भी धरने लगी, नित्य भयावह रूप ।
जीवन में तहज़ीब-सी, दिखती कहीं न धूप ।।
तन पर चिथड़े देखकर, ‘रमुआ’ है भयभीत ।
फुटपाथों के भाग्य में,गए हाड़ कँपाती शीत ।।”

पुस्तक में कवि ने अपने दोहे के माध्यम से ही दोहा लेखन पर अपना विचार प्रकट करते हुए अन्य कवियों से कवि कहना चाहते हैं कि दोहा, सोरठा या अन्य किसी भी विधा के लिए आपस में क्यों लड़‌ना ? सबमें चरण, मात्रा और पंक्तियों की सजावट सुन्दर होती है। जिस भी विधा में आप अपनी बात कह पाएँ वही बेहतर है।

इस पुस्तक में महत्वपूर्ण सामयिक विषयों के साथ – साथ दोहा विधा की वर्तमान स्थिति पर भी दोहा के माध्यम से ही अपने विचारों को प्रस्तुत किया गया है। पाठकों के बीच यह कृति बहुत लोकप्रिय होगी, इसी आशा के साथ मैं कवि के उज्ज्वल भविष्य की सदकामना करता हूँ और उन्हें अशेष बधाइयां देता हूँ। वे भविष्य में ऐसी और कृतियों का लेखन कर साहित्य भंडार को समृद्ध करते रहें।

उपन्यास : उगें हरे संवाद
लेखिका : योगेन्द्र वर्मा ‘व्योम’
प्रकाशन: गुंजन प्रकाशन, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश
मूल्य: 200 रुपए
पृष्ठ- 104 पेज