रावेल पुष्प
स्त्री होना
विषैले सांपों की संगत को
तनी हुई रस्सी समझ कर चलना होता है
एक स्त्री मन के भावों, अनुभवों को अपनी कविताओं में अभिव्यक्त किया है कवियत्री गीता दुबे ने और उनका ताजा कविता संग्रह अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है- मधुपुर आबाद रहे!
इस संग्रह में उनकी कुल जमा 53 कविताएं हैं, जिनमें वे अधिकतर नारी मन की व्यथा का इज़हार करती हैं, मसलन-
वे ढेरों सपने देखती हैं
खूब पेंगें भरती हैं
कभी-कभी तो छू लेती हैं आकाश की ऊंचाइयां
जब धरती पर जगह पड़ जाती है कम
या जब वे ही थक जाती हैं झूलते- झूलते
हांफ़ने लगती हैं पेंगें भरते- भरते
उसी क्षण वो डोरी को फंदा बना झूल जाती हैें
उड़ जाती हैं अनंत आकाश में
छोड़ जाती हैं प्रश्न
आखिर क्यों
चिड़िया ही हो सकती हैं लड़कियां
इंसान नहीं…
स्त्री की सीमा और उसकी मुक्ति के लिए छटपटाते हुए वे कहती हैं –
सीमाएं मेरी निर्धारित रहीं चौखट तक
लांघने पर उन्हें मेरी बिसात क्या
सीता भी नहीं बख़्शी गई
अग्नि परीक्षा से पल-पल गुजरते हुए
देती रही प्रमाण मैं अपने सतीत्व का
और घर के बाहर सार्थक करते रहे
तुम पुरुषार्थ अपना-
आज भले ही स्थितियां काफी कुछ बदल चुकी हैं,जिसे स्वीकार करते हुए वे कहती हैं –
लेकिन युद्ध अब भी
निरंतर है जारी
मुक्ति कहां है अभी
पूरी समग्रता में
कथाकार सुरेंद्र वर्मा ने कभी अंधेरे से मुक्ति के लिए उपन्यास रचा था- मुझे चांद चाहिए, लेकिन कवियित्री गीता दुबे रूमानियत के प्रतीक चांद की चाहत नहीं करतीं,बल्कि तपते हुए सूरज को मांगती हैं-
मुझे चांद नहीं चाहिए
मैं सूरज को अपनी हथेली पर
उतार लाना चाहती हूं
चांद तो प्रतीक है
कोमलता, रूमानियत और रेशमी एहसासों का
जिन एहसासों के शिकंजे में कैद करके
हजारों वर्षों से छला जाता रहा है मुझे
मैं चाहती हूं सूरज की तेज रोशनी में
तप कर निखर जाना
मुझे ग़म नहीं है
अपनी त्वचा की कोमलता के नष्ट होने का
मुझे पता है नया कुछ पाने को
बहुत जरूरी है कुछ खोना
वे हरी भरी धरती से कटते जंगल, बढ़ते प्रदूषण और नगरों में फैलते कंक्रीट के जंगल से मायूस होती हैं और गौरैया जैसे निहायत कोमल पक्षी के विलुप्त होने जैसी स्थितियों पर बेहद चिंतित हो जाती हैं-
आज बेहद उदास है गौरेया
खिड़की पर बैठकर
निहारती है टुकुर- टुकुर
खोजती है कोई कोना
मोका या आला
जहां जमा सके वह
अपना छोटा सा खोता
नन्हा सा झरोखा
कहीं कोई जगह नहीं मिलती उसे
कहां बनाएगी नन्ही गौरेया
अपना नन्हा- सा घोंसला
…………………….
बंद हो रही हैं उसकी सांसे
घुटता है दम
अब कोई नहीं रखता कटोरी में पानी
दाने नहीं बिखेरता कोई छत पर
तो क्या सिर्फ किताबों के पन्नों में
बची रहेगी गोरैया
या महज़ कविताओं में चहकेगी गौरेया!
उत्तर प्रदेश के एक गांव में जन्मी कवियित्री गीता दुबे कोलकाता में ही पढ़ी-लिखी, रची- बसी हैं और संप्रति स्कॉटिश चर्च महाविद्यालय के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर तथा विभागाध्यक्ष हैं। उनकी कई कविताएं, आलेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं और कई ऑनलाइन ऑफलाइन परिचर्चाओं में नियमित शामिल होती रहती हैं।
कविता उनके लिए एक आत्मीय सखि की तरह है और वे कहती हैं –
हृदय की गहराई से उपजा प्रेम का स्वर, जीवन के लिए ही नहीं कविता के लिए भी जरूरी बन जाता है और उसकी परिधि में समूचे संसार की व्यापकता समाहित हो जाती है।
जीवन में काफी कुछ न होने के बावजूद वे निराश नहीं हैं।
कई संत कवियों ने एक ऐसे मधुपुर की कल्पना की थी जहां कोई दुख दर्द, क्लेष नहीं, सिर्फ है तो प्रकृति का उन्मुक्त दीदार और शांति ही शांति! ऐसी जगह की कल्पना में याद आता है किशोर कुमार का गाया हुआ वो फिल्मी गीत भी –
आ चल के तुझे, मैं लेके चलूं
इक ऐसे गगन के तले
जहां ग़म भी ना हो
बस प्यार ही प्यार पले
इक ऐसे गगन के तले !
और आज झारखंड का मधुपुर जो कभी प्रकृति के उन्मुक्त सौन्दर्य के लिए जाना जाता था और खासतौर से वहां बंगाल के संभ्रांत बाबूमोशाय अपनी कोठियां बनाकर छुट्टियां बिताया करते थे, इसीलिए कभी इसे कोठियों का शहर भी कहा जाता था। कवियित्री गीता दुबे भी चाहती हैं कि मधुपुर आबाद रहे और कहती हैं-
मधुपुर ऐसे ही रहना आबाद
अपने अंतर में समेटे
प्रेम का शाश्वत जीवन राग!
नारी मन के भावों को अभिव्यक्ति देता,गीता दुबे का ये कविता संग्रह साहित्य जगत में अपनी एक पहचान बनायेगा,ऐसी आशा है।
न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन,नई दिल्ली द्वारा पेपर बैक में प्रकाशित इस कविता संग्रह का मूल्य 175 रूपये है।