- लेखक डाँ राम गोपाल भारतीय,मेरठ
- प्रकाशक −हिंदी साहित्य निकेतन बिजनौर
- समीक्षक – अशोक मधुप
डा रामगोपाल भारतीय जी से बिजनौर के एक कार्यक्रम में लंबे अंतराल के बाद मिलने और उन्हें सुनने का अवसर मिला। उस कार्यक्रम में पढ़ी उनकी गजल का एक शेर, मैं आज तक नही भूला−
सोच समझ कर कहना सीधी बाते भीं, /उल्टे−सीधे अर्थ निकाले जांएगे।
इसके बाद उन्हें पढ़ने की बहुत इच्छा रही।एक दिन डाक से उनका गजल संग्रह,, प्रतिनिधि गजलें,, मिला। एक सीटिंग में मैं इस संग्रह की 118 गजलें पढ़ गया।उसके बाद कई दिन तक उनका पढ़ने मनन करने में लगा रहा।दुष्यंत की परंपरा के कवि डाँ राम गोपाल भारतीय जी का एक−एक शेर लाजवाब है।उसे बार बार गुनगुनाने को मन करता है। एक −एक गजल खूबसूरत होने के साथ ही एक से एक बढ़कर है। एक को दूसरी से कमतर नही कहा जा सकता। सारे शेर बड़े चुटीलें हैं और सीधे समाज और व्यवस्था पर चोट करते हैं−
जाति ,संप्रदाय, मजहब आस्था पर चोट तक।/सबके सब मुद्दे सिमटकर रह गए हैं वोट तक।/ढूंढते हैं रोटियां कुछ गंदगी के ढेर में,/डस्टविन में कुछ अमीरों के पड़े अखरोट तक।
डाँ राम गोपाल भारतीय ने क्या लिखा,वे खुद अपनी एक गजल में बताते हैं−
हर तरफ खतरे− ही खतरे जिंदगी के वास्ते।
अब जरूरी हैं दुआएं आदमी के वास्ते।
दोस्तों की चाहतों का दिल से करना शुक्रिया,
प्यार की नेमत नही है, हर किसी के वास्ते।
खेलते बच्चे मुझे भगवान जैसे लग रहे,
नाव कागज की बनाते हैं नदी के वास्ते।
कुछ नही खाने को घर में कौन सा जादू मगर,
कुछ न कुछ रखती है मां, फिर भी सभी के वास्ते।
गीत , गजलों में हमारा अपना तो कुछ भी नही,
हमने जो कुछ भी लिखा है आपही के वास्ते।
वे अपनी पुस्तक में कहते हैं कि नजीबाबाद में बैंक की सेवा शुरू करने के दौरान मेरी रूचि देख आकाशवाणी नजीबाबाद के केंद्र उप निदेशक श्री हरि नारायन नवरंग ने कहा कि आप गजल क्यों नही लिखते। विज्ञान का छात्र रहने के बावजूद अब मैंने साहित्य पढ़ना शुरू किया।इस दौरान दुष्यंत कुमार की पुस्तक,, साए में धूप,, पढ़ने को मिली। उसने मुझे पूरी तरह से झकझोर दिया।मुझे लगा कि कवि ने मेरे गांव ,मेरे मुहल्ले,मेरे अपने लोगों के बीच के दुख,दर्द और तकलीफों को शब्द दे दिए। इसका असर ये हुआ कि मैं अपने भाव गजल की शक्ल में कागजों पर उतारने लगा।मेरे लिखे को मित्रों ने सराहा। तारीफ की। इससे होंसला बढ़ता गया। और इस प्रकार मेरा यह सफ़र जारी रहा। आज भी अगर कुछ मन होता है तो अपने भाव, अपने विचार, अपनी प्रतिक्रिया, ग़ज़ल के माध्यम से व्यक्त करना ही अच्छा लगता है और अपने भाव लिखने के लिए या कहने के लिए मैं ग़ज़ल को ही चुनता हूँ। मैं यह भी निःसंकोच कह सकता हूँ कि मैंने कोई ग़ज़ल की व्याकरण नहीं पढ़ी है और न ही किसी से सीखी। हाँ इतना जरूर है कि जब उस्ताद जनाब निश्तर खानक़ाही साहब के पास भी मैं अपनी रचनाएँ लेकर जाता था तो उनका केवल एक ही कहना था कि बेटा ग़ज़ल के व्याकरण के शास्त्रीय फ़ेलुन फ़लाईतुन आदि के चक्कर में मत पड़ना। अपने लिखे हुए को कई बार गाकर दोहराना तो तुम्हें उसकी लय में अगर कहीं टूटन होगी तो स्वयं ही समझ आ जाएगी, क्योंकि अपनी रचना से यदि आप संतुष्ट हैं तो उससे दूसरे भी संतुष्ट होंगे और यदि आपकी बात, आपके भाव पाठकों और श्रोताओं तक पहुँचने में सफल हो जाते हैं तो आपका लेखन, आपका सृजन सफल है।
उन्होंने ग़ज़ल की बहर पर अधिक ज़ोर न देकर काफ़िया और रदीफ़ तथा ग़ज़ल में कहन को ही प्रमुख माना और उसी को दुरुस्त करने की सलाह भी दी। यही कारण है कि मैं अपनी ग़ज़लों में उर्दू के आम बोलचाल शब्द आने के बावजूद ग़ज़ल की शोधपूर्ण व्याकरण से परिचित नहीं हूँ और अपनी ग़ज़लों को उर्दू ग़ज़ल भी नहीं कहता। मैं मानता हूं कि वर्तमान में जितने भी लोग हिंदी में ग़ज़ल लिख रहे हैं, वह ग़ज़ल की संरचना और उसके व्याकरण को स्वाभाविक रूप से धारण करते हुए, हिंदी देवनागरी लिपि में अच्छी ग़ज़लें लिख रहे हैं। इसका हिंदी में ग़ज़ल की प्रेरणा का उदाहरण ग़ज़ल के जाने- माने हस्ताक्षर दुष्यंतकुमार से बड़ा और कोई नहीं हो सकता। मेरी प्रेरणा भी दुष्यंतकुमार ही हैं और उनके प्रति मेरा श्रद्धाभाव ही मुझे कुछ कहने की हिम्मत देता है।
तुमने किसी के जख्म को छूकर नही देखा।
एक फूल कैसे बन गया, पत्थर नही देखा।
आवाज न दे पाए तुम्हें हमने ये माना,
तुमने भी तो इकबार पलटकर नही देखा।
तुमको हमारे दर्द का एहसास हो कैसे?
तुमने हमारे कत्ल का मंजर नही देखा।
डूबा है जो इसमें कभी बाहर नही आया,
आखों से बड़ा कोई समंदर नही देखा।
दस्तक न जिसकी देहरी पर दुख ने दी कभी,
दुनिया में हमने ऐसा कोई धर नही देखा।
दुनिया को जीत खुदकशी करनी पड़ी उसे,
फिर उसके बाद कोई सिकंदर नही देखा।
एक और गजल−
ये खबर छपवाएंगे अखबार में ।
आदमी बिकने लगा बाजार में।
दलबदल कर रहनुमा कैसा सही,
शुद्ध हो जाता है शिष्टाचार में।
रो उठी तुलसी कबीरा की कलम,
देखकर कविता को इस व्यापार में।
इक अदद वोटर बनाने के लिए,
नाम ही काफी है बस आधार में ।
मंदिर ओ मस्जिद भरेंगे पेट अब,
भूख की बाते न कर बेकार में ।
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जिस यक़ीं से राम और रहमान का नाता रहा।
आ गई आड़े सियासत तो यक़ीं जाता रहा।
रोटियाँ बैठे थे लेकर भाई भूखे रह गए,
तीसरा भी था कोई जो रोटियाँ खाता रहा।
राम मेरा है, खुदा तेरा, कहाँ लिक्खा बता?
हम नहीं समझे, कबीरा लाख समझाता रहा।
वक़्त से जो बेखबर हैं खुद को पहचानेंगे क्या?
वक़्त लेकर आईना लोगों को दिखलाता रहा।
सत्य को समझा है जिसने वो कभी मरता नहीं,
ज़हर पीकर इसलिए सुकरात मुस्काता रहा।
जोड़ता था जो हमें इक, दर्द का अहसास था,
अब कहाँ रिश्ता रहा वो कहाँ नाता रहा?
आज तक समझा है किसने आदमी के दर्द को?
यूँ तो धरती पर खुदा आता रहा, जाता रहा।
डाँ राम गोपाल भारतीय न छंद के दायरे में बंधे, न भाषा के। जैसा सही लगा, वह लिख रहे हैं । उनका ये शब्द विन्यास ही पाठक को शुरू से आखीर तक बांधे रखता है।गजल के एक –एक शेर को गुनगुनाने को मजबूर कर देता है।