सुनील सक्सेना
राहुल श्रीवास्तव की पहली कहानी “चूहे” मैंने लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व पढ़ी थी, जो इस संग्रह में भी है । प्रतीकों के माध्यम से बात कहना, सड़क और सायकल का मानवीकरण कर, उनका वार्तालाप जो कहानी में है, अद्भुत है । कहानी में उन्होंने जो दृश्य संयोजन जिस सुगठित तरीके से किए हैं, कमाल के हैं । कहानी पढ़ते वक्त किसी फिल्म के सीन की तरह केरेक्टर सजीव होकर आंखों के सामने धड़कने लगते हैं । उनके लेखकीय परिचय से पता चला कि राहुल ने भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान पुणे से फिल्म सम्पादन का पोस्ट ग्रेजुएशन डिप्लोमा किया है । शायद यही वजह है कि कहानियों में चरित्रों की आपसी बातचीत बड़ी तीव्रता के साथ खट-खट धाराप्रवाह उन्मुक्त होकर चलती है । कुछ कहानियों को पढ़ते वक्त कई मर्तबा एहसास होता है कि हम किसी नाटक की स्क्रिप्ट पढ़ रहे हैं । प्रभावी वार्तालाप पूरे समय पाठक को बांधे रखता है ।
अमूमन लेखक किसी किरदार के संवाद बोलने से पहले या बाद में उस किरदार की मन:स्थिति भावभंगिमा को अपनी शैली में रचते हैं और कहानी को विस्तार देते हैं । यहां लेखक की मंशा सिर्फ इतनी होती है कि पाठक वातावरण और पात्रों के मूड को आसानी से समझ सके । लेकिन राहुल की कहानियों में ये देखने को नहीं मिलता है । वे अपनी बात सीधे बगैर किसी भूमिका के सरल शब्दों में रखते हैं, जो पाठक तक बिना अवरोध के पहुंच जाती है ।
इस संग्रह की एक कहानी है जिसका शीर्षक ही “कहानी” है, “समालोचन” पत्रिका में शाया हुई थी । इस कहानी में दो केरेक्टर हैं । महिला और पुरूष । अतीत के प्रेमी । जो अपनी मंजिले मकसूद तक पहुंचने में नाकामयाब रहे । होटल में मिलते हैं । पूरी कहानी गुजिश्ता दिनों की नीम-शहद स्मृतियों में डूबी हुई गिले-शिकवे के साथ आगे बढ़ती है । इस कहानी से गुजरने पर लगा कि राहुल कथा कहन के पारंपरिक ढांचे में अपनी लेखन की छैनी से नए झरोखे, रोशनदान बनाने की जद्दोजहद में हैं । धारा के विरूद्ध वे अपनी डोंगी लेकर निकल पड़े हैं । उनकी कहानियां तयशुदा पेटर्न पर नहीं चलती हैं । पानीदार बोलचाल की भाषा में उनकी संवेदनशीलता और वैचारिक सघनता, कहानी को रोचक बना देती है ।
“वनमाली” पत्रिका में उनकी कहानी आई थी “पुई” जो इस कहानी संग्रह का नाम है । पुई पारिवारिक परिवेश में बुनी-गठी कोमल भावनाओं से ओतप्रोत कहानी है । ये कहानी इस संग्रह की जान है । राहुल का लेखन यहां अपने चरम पर है । पुई का थोड़ा जिक्र करना तो बनता है । कहानी को नटशेल में अगर कहें तो तीन लोगों का छोटा-सा परिवार है । विधुर चंदन, चंदन की मां और उसकी नन्हीं बेटी पुई । नीमा पुई के स्कूल की टीचर है । नीमा अहम पात्र है, जिसके इर्दगिर्द कहानी घूमती है । चंदन की मां ज्योतिष, ग्रहों-नक्षत्रों में यकीन रखती हैं । अंधविश्वास इस हद तक कि किसी ने कहा चुम्बक के पानी से नहाने से कष्ट दूर हो जाएंगे खुशहाली आएगी तो चंदन चुम्बक के पानी से नहाने लगा । कहानी में नीमा जब प्रवेश करती है तो चंदन, मां, पुई सब अपनी-अपनी चाहत के मुताबिक नीमा में अक्स ढूंढने लगते हैं । चंदन को नीमा में जीवन संगनी, पुई को मां तो दादी को बहू नीमा में नजर आने लगती है । ख्वाबों की तामीर होने लगती है । जैसे ही क्लाइमेक्स में पता चलता है कि नीमा मुस्लिम है, सारे सपने ध्वस्त हो जाते हैं ।
इस कहानी को पढ़ते हुए चेखव की बंदूक के विषय में कही बात याद आने लगती है कि अगर कहानी, उपन्यास या नाटक में बंदूक का कहीं जिक्र है, उसे दर्शाया गया है तो उस बंदूक का उपयोग होना चाहिए । बंदूक महज कथानक के विस्तार का साधन बनकर न रह जाए , उसे इस्तेमाल किया जाए । चंदन के परिवार का अंधविश्वासी होना, ग्रह नक्षत्रों, कुण्डली पर यकीन, चुम्बक के पानी से नहाना, ये सब कहानी में गैर जरूरी नहीं है । ये केरेक्टर की मानसिकता बताते हैं । पूरी कहानी को पढ़ते समय लगता है कि सब कुछ अनुकूल चल रहा है चंदन नीमा एक हो सकते हैं । सबकी आकांक्षएं पूरी हो सकती हैं । लेकिन अंत में जब नीमा गैर धर्म की है ये बात उजागर होती है तो नीमा को त्यागने का निर्णय, पाठक को झटका नहीं देता है । पाठक के मन में परिवार की पृष्ठभूमि स्थान बना चुकी होती है । वो सहजता से इस रिजेक्शन को पचा लेता है । उसे पता होता है कि इस परिवार में पुर्नविचार या किसी लाभ-हानि पर विचार किए जाने की कोई गुंजाइश ही नहीं है ।
राहुल अपनी कहानी के पात्रों को कैसे गढ़ा जाए, किरदारों को कैसे खड़ा करना है, प्रसंगों को कहानी के विस्तार में कैसे उपयोगी बनाया जाए, बखूबी जानते हैं । कोई किस्सा या घटना वे कहानी में फिलर के तौर पर नहीं जोड़ते हैं, ये कहानी का महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं । राहुल उसे सही मौके पर यूज करके बेसाख्ता पाठक को चमत्कृत कर देते हैं । जैसे “चूहा” कहानी में बेटा अपने अत्याचारी बाप को चूहा मार दवा देकर जब मार देता है तो बरबस ही पाठक चौंक जाता है ।
शीर्षक चाहे कविता का हो, कहानी का हो या किसी लेख का, एक गहरी सोच मांगता है । कई बार किसी रचना का शीर्षक तय करना, रचना लिखने से ज्यादा दुष्कर हो जाता है । राहुल ने एक कहानी का शीर्षक रखा है “कद्दू” । कहानी का शुरूआती संवाद है – “कल ही तो बना था फिर आज ?” पहली लाइन पढ़ते ही पाठक समझ जाता है कि कद्दू बनने की बात हो रही है । ऐसे प्रयोग, लिखने का अंदाज ही लेखक को भीड़ से अलहदा रखता है ।
नौ कहानियों से सजे इस गुलदस्ते में किस्म-किस्म की खुशबू हैं । अलग-अलग स्वाद की कहानियां हैं । कुछ चटपटी हैं । तो कुछ खट्टी-मीठी, तीखी भी । अलग रंग और तेवर लिए हुए, अलक्षित विषयों पर राहुल ने कहानियां लिखी हैं । राहुल वर्तमान समय के सचेत और सतर्क कहानीकार हैं जो बिना भाषाई करतब बाजी, लफ्फाजी के अपनी बात कहते हैं । ये उनकी कहानी कहने का कौशल और श्रम का परिणाम है । मैं संग्रह की अन्य कहानियों का यहां उल्लेख नहीं कर रहा हूं ताकि पाठकों की पढ़ने की जिज्ञासा बनी रहे । लेकिन इतना जरूर कह सकता हूं कि “पुई” कहानी संग्रह पाठक को निराश नहीं करेगा ।
- पुस्तक – पुई
- (कहानी संग्रह)
- लेखक – राहुल श्रीवास्तव
- प्रकाशक – लोकभारती पेपरबैक्स
- मूल्य – रू 250/-