नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार उचित नहीं

दीपक कुमार त्यागी

जब से देश के राजनीतिक दलों को यह पता चला है कि देश के नव निर्मित संसद भवन का 28 मई को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथों उद्घाटन होगा, तब से संसद भवन के उद्घाटन के कार्यक्रम को लेकर के देश में जबरदस्त ढंग से राजनीति गरमाई हुई है, विपक्षी दलों का कहना है कि संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू के हाथों होना चाहिए, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा संसद भवन का उद्घाटन संवैधानिक रूप से उचित नहीं होगा। लेकिन क्या हर पल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरोध के लिए मौके की तलाश रहने वाले सभी राजनीतिक दलों को यह विचार नहीं करना चाहिए कि नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह का विरोध पूरी दुनिया में भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लगाने का कार्य करेगा, क्या मोदी विरोध के लिए संसद भवन के उद्घाटन के कार्यक्रम को एक बेहद ज्वलंत सवाल बनाकर उठाना, देश की दुनिया में छवि के हित में उचित है क्या, मोदी विरोध की आड़ में नए संसद भवन के एक एतिहासिक कार्यक्रम का ही बहिष्कार कर देना क्या एक बहुत बड़ी ग़लत परिपाटी नहीं है?

देश में राजनीतिक शह-मात की खातिर हमारे आदरणीय पूजनीय नेताजी अपने क्षणिक स्वार्थ पूर्ति की चलते कब किस बात पर छोटा या बड़ा विवाद खड़ा करके क्या गुल खिला दें, इस बारे में हम सभी गैर राजनीतिक लोगों का अनुमान लगाना बेहद मुश्किल है, उसी स्थिति के चलते पिछले कुछ दिनों से देश की आन-बान-शान नए संसद भवन की भव्य नव निर्मित बुलंद एतिहासिक महत्व की इमारत आजकल पक्ष विपक्ष के राजनेताओं के निशाने पर आ गयी है। क्योंकि सत्ता पक्ष को लगता है कि इस एतिहासिक भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ही हाथों से होना उचित है, वहीं कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, द्रविड मुन्नेत्र कड़गम (द्रमुक), जनता दल (यूनाइटेड), शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे), मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, झारखंड मुक्ति मोर्चा, नेशनल कांफ्रेंस, केरल कांग्रेस (मणि), रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी, विदुथलाई चिरुथिगल काट्ची (वीसीके), मारुमलार्ची द्रविड मुन्नेत्र कड़गम (एमडीएमके) और राष्ट्रीय लोकदल के कर्ताधर्ता राजनेताओं का यह मानना है कि लिए नव निर्मित संसद भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथों होना संवैधानिक रूप से उचित निर्णय नहीं है, इस भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू के हाथों होना चाहिए। अब ऐसी परिस्थिति में आम जनमानस के दिलोदिमाग में यह सवाल उठता है कि देश के नव निर्मित संसद भवन की भव्य इमारत को विवादों के घेरे में खड़ा करने की आखिरकार यह कौन सी राजनीति व राजनीतिक तुक है।

देश के 19 राजनीतिक दलों के द्वारा बुधवार को जब नव निर्मित संसद भवन के उद्घाटन समारोह के बहिष्कार की घोषणा की गयी है, तो इन सभी राजनीतिक दलों ने एकजुट होकर के अपने एक संयुक्त बयान में कहा है कि-

‘नए संसद भवन का उद्घाटन एक महत्वपूर्ण अवसर है, हमारे इस विश्वास के बावज़ूद कि सरकार लोकतंत्र को खतरे में डाल रही है और जिस निरंकुश तरीके से नई संसद का निर्माण किया गया था, उससे हमारी अस्वीकृति के बाद भी हम अपने मतभेदों को दूर करने और इस अवसर को चिह्नित करने के लिए तैयार थे।’

इन 19 राजनीतिक दलों ने अपने बयान में आरोप लगाया है कि- ‘राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू को पूरी तरह से दरकिनार करते हुए, नए संसद भवन का उद्घाटन करने का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का निर्णय न केवल राष्ट्रपति का घोर अपमान है, बल्कि हमारे लोकतंत्र पर सीधा हमला है, जो इसके अनुरूप प्रतिक्रिया की मांग करता है।’ इन सभी दलों के मुताबिक, भारत के संविधान के अनुच्छेद 79 में कहा गया है कि ‘संघ के लिए एक संसद होगी, जिसमें राष्ट्रपति और दो सदन होंगे जिन्हें क्रमशः राज्यों की परिषद और लोगों की सभा के रूप में जाना जाएगा।’

हालांकि नए संसद भवन के उद्घाटन के इस कार्यक्रम का बहिष्कार करने से देश में एकबार फिर से राजनीतिक सरगर्मी बढ़ गई है, उसके बाद केन्द्र सरकार भी हरकत में आई और केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करने के 19 राजनीतिक दलों के फैसले को ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ करार दिया और उनसे अपने रुख पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया है। लेकिन अब देखने वाली बात यह है कि देश व समाज हित पर लंबे चौड़े दावे करने वाले सत्ता पक्ष व विपक्ष अपने-अपने क्षणिक राजनीतिक स्वार्थों को तिलांजलि देकर के देश के मान सम्मान से खिलवाड़ करना बंद करके, ऐसे मसलों पर एकजुट होकर कब तक खड़ा होना सीख पाते हैं या फिर चंद राजनेता अपने क्षणिक स्वार्थों के लिए देश की गौरव को यूं ही दांव पर लगाते रहेंगे।