“कृषि-बजट 2025 और एसडीजी-30 के लक्ष्य”
डॉ. राजाराम त्रिपाठी
अब जब कि देश का केंद्रीय बजट इसी हफ्ते आने वाला है, यह जरूरी हो जाता है कि कृषि बजट तय करने वाले नीतिनिर्माता वर्तमान विश्व, भारतीय खेती के ताने-बाने, और वैश्विक परिवेश को गहराई से समझें। कृषि न केवल हमारे देश की रीढ़ है, बल्कि यह उस किसान का भी जीवन आधार है, जो खुद भूखा रहकर दूसरों का पेट भरता है। इसी तारतम्य में, हम वैश्विक और भारतीय कृषि परिदृश्य की जमीनी हकीकत को प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि नीति निर्धारण करते समय इन तथ्यों को अनदेखा न किया जाए।
कृषि, जो कभी हमारी सभ्यता का गौरव हुआ करती थी, अब खुद अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। कहते हैं, “किसान अन्नदाता है,” लेकिन आज उसी अन्नदाता को अपने हक के लिए सड़कों पर उतरना पड़ रहा है। एक ओर यह क्षेत्र 27% आबादी को आजीविका और 4% वैश्विक GDP में योगदान देता है, तो दूसरी ओर, इसके सामने जलवायु परिवर्तन, जल संकट और बर्बादी जैसी चुनौतियां पहाड़ बनकर खड़ी हैं।
संयुक्त राष्ट्र ने 2030 तक दुनिया से भूख मिटाने का सपना देखा था, लेकिन 735 मिलियन लोग अभी भी भूख से तड़प रहे हैं। आप सोच रहे होंगे कि यह आंकड़ा सिर्फ अफ्रीका का है, लेकिन नहीं, इसमें भारत का भी बड़ा हिस्सा शामिल है। जहां एक तरफ हमारे नेता “डिजिटल इंडिया” के गीत गा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर 50% भारतीय किसान इस डिजिटल क्रांति से कोसों दूर हैं।
अब जरा इस पर विचार कीजिए— हमें 2050 तक 50% अधिक खाद्य उत्पादन की जरूरत होगी, लेकिन हर साल 30% खाद्य पदार्थ बर्बाद हो रहे हैं। यानी जो खेत में उगता है, वह या तो गोदाम में सड़ता है या बाजार तक पहुंचने से पहले ही खत्म हो जाता है। इसे अगर “विकास का मॉडल” कहें, तो किसान के लिए यह मॉडल मजाक बनकर रह गया है।
जल संकट पर बात करें तो, कृषि 70% मीठे पानी का उपयोग करती है, और फिर भी 40% आबादी पानी के लिए तरस रही है। यह वही देश है जहां हर चुनाव में नहरें और तालाब खोदने के वादे किए जाते हैं। ‘हर हाथ को काम, हर खेत को पानी’ देने का वादा दुहराया जाता है। लेकिन चुनाव खत्म होते ही ये वादे और इरादे “गधों के सींग” की तरह गायब हो जाते हैं। 12 महीने सुनिश्चित सिंचाई,आज भी अधिकांश किसानों का दिवा स्वप्न बना हुआ है।
अब आते हैं जलवायु परिवर्तन पर। कृषि क्षेत्र 23% ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है। फिर भी, किसान को कहा जाता है कि वह पराली जलाना बंद करे। पराली जलाना गलत है, लेकिन समाधान क्या है? किसान को कर्ज में डुबोकर, उसे पर्यावरण सुधारने का जिम्मा सौंप देना कहां का न्याय है?
तकनीक की बात करें, तो AI, IoT और ड्रोन का कृषि में इस्तेमाल बढ़ रहा है। यह सुनने में जितना हाई-फाई लगता है, असलियत में छोटे किसानों के लिए यह सपना ही है। 11.2% की CAGR दर से ये तकनीकें बढ़ रही हैं, लेकिन क्या कोई किसान को यह बताएगा कि यह तकनीक खरीदने के लिए पैसा कहां से आएगा?
महिलाओं की स्थिति और भी गंभीर है। कृषि क्षेत्र में 50% छोटे किसान महिलाएं हैं, लेकिन उनकी भूमिका सीमित संसाधनों और परंपरागत भेदभाव में उलझी हुई है। लगता है, महिलाओं का “सशक्तिकरण” सिर्फ चुनावी भाषणों तक ही सीमित है।
अब थोड़ा नवाचार पर हंसते हैं। कहते हैं, पौध-आधारित प्रोटीन का बाजार 2025 तक $23 बिलियन तक पहुंच जाएगा। लेकिन इस सपने को साकार करने के लिए किसानों को समर्थन कहां है? हम सिर्फ रिपोर्ट बना रहे हैं और कागज पर “सस्टेनेबल एग्रीकल्चर” के नाम पर लाखों रुपए फूंक रहे हैं।
सच्चाई यह है कि सतत विकास लक्ष्य (SDG) और किसान के बीच एक बड़ी खाई है। $14 बिलियन सालाना अतिरिक्त निवेश की जरूरत है, लेकिन पैसा कहां से आएगा? शायद वही लोग तय करेंगे, जो किसान को “सब्सिडी का भिखारी” मानते हैं।
कहते हैं, “जहां चाह, वहां राह।” लेकिन कृषि के मामले में यह राह सिर्फ उन बड़े खिलाड़ियों के लिए बन रही है, जो सरकार की नीतियों का लाभ उठाकर अपने मुनाफे को आसमान तक पहुंचा रहे हैं। छोटे किसान, जो 80% खाद्य उत्पादन करते हैं, उन्हें उनकी मेहनत का सही मूल्य तक नहीं मिलता।
आखिर समाधान क्या है?
पर्याप्त नियोजित निवेश, जलवायु के उतार चढ़ाव को सहने में सक्षम फसलों की किस्मों का जल्द से जल्द विकास, और खाद्य बर्बादी में 50% की कटौती । लेकिन सबसे जरूरी है, किसान को सिर्फ वोट बैंक समझना बंद करना। “मानवता का पेट भरेगा, जब किसान का पेट भरेगा।” यह कोई कविताई नहीं, बल्कि कृषि की सच्चाई है।
कृषि केवल फसल उगाने का माध्यम नहीं है; यह एक संस्कृति है, एक सभ्यता है। इसे बचाने के लिए हमें केवल नीतियां नहीं, बल्कि नीयत भी सुधारनी होगी। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो 2030 तो क्या, 2050 तक भी सतत विकास लक्ष्य हमारे भाषणों से बाहर नहीं आएंगे।
(लेखक: डॉ. राजाराम त्रिपाठी : ग्रामीण अर्थशास्त्र एवं कृषि मामलों के विशेषज्ञ तथा राष्ट्रीय-संयोजक, अखिल भारतीय किसान महासंघ ‘आईफा’)