ओम प्रकाश उनियाल
हर राज्य में लोकपर्व मनाए जाते हैं। जो कि उस राज्य की संस्कृति से परिचित कराते हैं। लोकपर्व भी अपने-अपने क्षेत्र के अलग-अलग होते हैं। स्थानीय बोली-भाषा की तरह ये भी कुछ दूरी पर बदल जाते हैं। उत्तराखंड राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों की भौगोलिक स्थिति ऐसी ही है कि जिसके चलते बोली-भाषा, रहन-सहन, खान-पान में विभिन्नता देखी जा सकती है। उसी प्रकार लोकपर्व भी मनाए जाते हैं। यहां प्रकृति, खेती और पशुपालन से जुड़े कई लोकपर्व मनाए जाते हैं। कुछ लोकपर्व तो अपनी ऐसी छाप छोड़े हुए हैं जिनमें शामिल होने के लिए हर कोई उत्सुक रहता है। ऐसे लोकपर्वों को मनाने की प्रक्रिया परंपरागत रूप से चली आ रही है। अब ऐसे लोकपर्वों में देश के अलावा विदेशी पर्यटक भी पूरे उत्साह एवं आनंद के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। उत्तराखंड के उत्तरकाशी जनपद के दयारा बुग्याल का “बटर फेस्टिवल” भी ऐसा ही अनूठा लोकपर्व है। यह बुग्याल लगभग ग्यारह हजार फीट की ऊंचाई पर रैथल गांव से कुछ दूरी पर है। यहां आसपास के गांवों की छानियां (जहां पशु रखे जाते हैं) होती हैं। गर्मियों से लेकर सर्दियां आने तक चरवाहे अपने पशुओं को लेकर बुग्यालों में रहते हैं। सर्दी शुरू होते ही चरवाहे अपने पशुओं को लेकर अपने घरों को लौट आते हैं। अत्यधिक ऊंचाई पर होने के कारण मौसम ठंडा होता है और सर्दियों में बर्फबारी भी बहुत होती है। बुग्यालों में पर्याप्त मात्रा में पशुओं के लिए तरह-तरह की प्राकृतिक व औषधीय पौधे व घास उगी होती है, जो कि काफी पौष्टिक होती है। सुनकर तो अचरज जरूर होगा। लेकिन इस पर्व को मनाने की परंपरा अलग ही है। दूध, मक्खन और छांछ से होली खेली जाती है। क्षेत्र व पशुओं की सुख, समृद्धि की मंगलकामना के साथ प्रकृति व भगवान कृष्ण के प्रति आभार व्यक्त किया जाता है। इससे पहले अपने लोक देवी-देवताओं को पूजा जाता है।
स्थानीय बोली में इस लोकपर्व को ‘अंढूड़ी’ कहा जाता है। भादो माह (अगस्त के मध्य) की संक्राति को यह उत्सव मनाया जाता है जिसका आयोजन समिति द्वारा किया जाता है।