कॉलर ट्यून या कलेजे पर हथौड़ा: हर बार अमिताभ क्यों?

Caller tune or hammer on the heart: Why Amitabh every time?

प्रियंका सौरभ

सरकार को समझना चाहिए कि चेतावनी सिर्फ चेतना के लिए होती है, प्रताड़ना के लिए नहीं। एक बार, दो बार, चलिए तीन बार — पर हर कॉल पर वही ट्यून, वही स्क्रिप्ट, वही अंदाज़ — यह सिर्फ संचार व्यवस्था को बोझिल नहीं बना रही, बल्कि जनता का भरोसा भी खो रही है। आखिर हम कब तक तकनीक के इस बोझ को झेलती रहेंगी?

भाई साहब, बात एकदम सीधी और साफ है — मैं भी अमिताभ बच्चन की कला की उतनी ही बड़ी प्रशंसक हूँ जितना कोई और। कौन नहीं है? वे अभिनय के सम्राट हैं, आवाज़ में गरज है, आंखों में भाषा है, और संवाद अदायगी ऐसी कि शब्दों को भी पसीना आ जाए। लेकिन अब वक्त आ गया है कि हम भावुकता और वास्तविकता को अलग-अलग करके देखें। एक तरफ हम उस कलाकार का सम्मान करते हैं, तो दूसरी तरफ आज आम जनता जिस मानसिक थकावट और व्यवहारिक समस्या से जूझ रही है, उस पर सवाल उठाना भी जरूरी है। जी हाँ, मैं बात कर रही हूँ उस चेतावनी भरी कॉलर ट्यून की, जो अमिताभ बच्चन की आवाज़ में साल भर से हर मोबाइल कॉल पर हमारे कानों में हथौड़ा मार रही है।

अब सोचिए, जब भी आप किसी को कॉल करते हैं, आपको पहले 30 सेकंड तक अमिताभ बच्चन की कर्कश, बूमिंग आवाज़ में एक रटा-रटाया साइबर ठगी से बचने का उपदेश सुनना पड़ता है। न मर्जी पूछी जाती है, न विकल्प दिया जाता है। आप चाहे दिन में पहली बार कॉल कर रहे हों या पचासवीं बार, वही चेतावनी… वही लय, वही थर्राती चेतावनी। लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि ये कॉलर ट्यून अब जनता का मानसिक उत्पीड़न बन चुकी है। दिमाग की नसों में जो कंपकंपी फैलती है, उसे विज्ञान वाले ‘वाइब्रेशन’ कहें, पर आम जनता इसे ‘तंग आना’ कहती है। किसी से एक ज़रूरी बात करनी हो, और सामने से आवाज़ आती है — “आपका कॉल साइबर अपराध से सुरक्षा हेतु रोका गया है…” — आदमी खुद को अपराधी न मान बैठे, तो क्या करे?

अब मुद्दे की बात ये है कि आखिर ये कॉलर ट्यून क्यों अभी भी जारी है? यह कोई नया अभियान नहीं है। यह चेतावनी करीब एक साल से हर मोबाइल उपभोक्ता तक रोज़ाना, बार-बार पहुंचाई जा रही है। क्या इस देश में अब भी कोई ऐसा कोना बचा है जहाँ यह संदेश नहीं पहुंचा? क्या सचमुच सरकार को लगता है कि आम जनता इतनी जड़ है कि 365 दिन में भी वह यह नहीं समझ पाई कि उसे OTP किसी को नहीं बताना चाहिए? क्या सरकार ने कभी यह अध्ययन किया कि इस कॉलर ट्यून के शुरू होने के बाद साइबर ठगी के मामलों में कोई गिरावट आई भी है या नहीं?

सच तो यह है कि अगर इस चेतावनी से कोई फर्क पड़ता, तो अब तक तो साइबर अपराधी बोरिया-बिस्तर समेटकर दुबई या नाइजीरिया भाग चुके होते। लेकिन सच्चाई यह है कि ठगी भी वैसी की वैसी है, और जनता की झल्लाहट भी। क्योंकि असली समाधान यह नहीं है कि हर बार कान में चिल्ला-चिल्ला कर डराया जाए, बल्कि यह है कि तंत्र को मज़बूत किया जाए, डिजिटल साक्षरता बढ़ाई जाए, और साइबर अपराधियों पर त्वरित कार्यवाही हो।

लेकिन इस देश में समस्या का समाधान जनता पर मानसिक बोझ डालकर ढूंढा जाता है। कहने को यह ट्यून सिर्फ 30 सेकंड की है, लेकिन इसका असर कई गुना बड़ा है। किसी को दिल का दौरा पड़ गया, दुर्घटना हो गई, कोई बच्चा जलते हुए कमरे में फंसा है — और आपको मदद के लिए कॉल करनी है। लेकिन कॉल से पहले 30 सेकंड तक आपको ‘सावधान! OTP किसी को न दें!’ सुनना पड़ेगा। सोचिए, ऐसे में क्या बीतती होगी? उस कॉल का हर सेकेंड कीमती है, लेकिन हम सिस्टम से उम्मीद नहीं कर सकते कि वह आम इंसान की जान को प्राथमिकता देगा।

एक बार एक हादसा हुआ था — अहमदाबाद में एक अस्पताल में आग लग गई। चंद सेकेंडों में 300 जानें चली गईं। अब कल्पना कीजिए, यदि वहाँ से किसी ने बचाव के लिए फोन किया हो, और उससे पहले कॉलर ट्यून चल गई हो — क्या वह 30 सेकंड उस वक्त ज़्यादा ज़रूरी थे, या इंसानी ज़िंदगी?

और अब तो यह स्थिति और खतरनाक हो गई है। मान लीजिए किसी लड़की का अपहरण हो जाए, और किसी तरह उसे मौका मिले फोन करने का — तो पहले उसे विज्ञापन सुनना पड़ेगा। क्या हम यकीन के साथ कह सकते हैं कि तब तक कोई अनहोनी नहीं होगी? आपातकाल में एक-एक सेकेंड जिंदगी और मौत के बीच की रेखा बन जाता है, और हमारा सिस्टम उसमें ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ की लोरी सुनाता है।

लोग अब सोशल मीडिया पर इस ट्यून के खिलाफ मोर्चा खोलने लगे हैं। कहा जा रहा है कि इस ट्यून को दिन की पहली कॉल तक सीमित कर दिया जाए, या उपभोक्ता को विकल्प मिले कि वह इसे बंद कर सके। लेकिन जैसे किसी सरकारी दफ्तर में फाइल दबा दी जाती है, वैसे ही जनता की ये आवाज़ भी अनसुनी रह जाती है। टेलीकॉम कंपनियाँ तो मानो अपना पल्ला झाड़ चुकी हैं — उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आता।

सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इस पूरी समस्या का विरोध करते ही कुछ लोग तुरंत आहत हो जाते हैं। “अरे! यह तो अमिताभ बच्चन की आवाज़ है! उनका अपमान कैसे कर सकते हो?” तो भाइयों और बहनों, कृपया समझिए — यहाँ कोई बच्चन साहब के खिलाफ नहीं है। उनकी कला के प्रति पूरा देश श्रद्धा रखता है। पर आवाज़ की जगह और समय भी कोई चीज होती है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कोई किसी की मृत्युशैया पर बैठा हो, और आप उसके कान में ‘खुश रहो अहले वतन’ की देशभक्ति ट्यून बजा दें। भावना की कोई जगह होनी चाहिए।

यह आवाज़, जो कभी हमारी जागरूकता का प्रतीक थी, अब धीरे-धीरे एक मानसिक शोर में बदलती जा रही है। यह सरकारी प्रणाली की असंवेदनशीलता का प्रमाण बनती जा रही है, जो जनता की थकान को नहीं, केवल अपनी औपचारिकता को देखती है। कहीं ऐसा न हो कि कल को हम किसी गंभीर परिस्थिति में फोन करने से डरने लगें कि पहले 30 सेकेंड तक वही चिल्लाती आवाज़ झेलनी पड़ेगी। लोग अब कॉल करने से पहले सोचते हैं — “अरे यार! फिर वही ट्यून सुननी पड़ेगी।”

सरकार को समझना चाहिए कि चेतावनी सिर्फ चेतना के लिए होती है, प्रताड़ना के लिए नहीं। एक बार, दो बार, चलिए तीन बार — पर हर कॉल पर वही ट्यून, वही स्क्रिप्ट, वही अंदाज़ — यह सिर्फ संचार व्यवस्था को बोझिल नहीं बना रही, बल्कि जनता का भरोसा भी खो रही है। आखिर हम कब तक तकनीक के इस बोझ को झेलती रहेंगी?

यदि आप भी इस समस्या की भुक्तभोगी हैं, तो अब वक्त आ गया है कि एक आवाज़ बनें। सोशल मीडिया पर लिखिए, जनप्रतिनिधियों को टैग कीजिए, याचिका शुरू कीजिए। मैं अमिताभ बच्चन से शिकायत नहीं कर रही, मैं सरकार से सवाल कर रही हूँ। क्योंकि जीवन की अंतिम सांसों पर यदि कोई आवाज़ सबसे पहले पहुँचे — तो वह किसी अपने की होनी चाहिए, न कि एक रिकॉर्डेड चेतावनी।

याद रखिए, चेतावनी से ज़्यादा जरूरी है चेतना। अब फैसला आपको करना है — आप कब तक फोन कॉल की हर शुरुआत को सरकारी भाषण से बर्बाद होने देंगी? या आप अपनी आवाज़ मिलाकर इस सिस्टम को सुधारने की कोशिश करेंगी?