
अशोक भाटिया
जब लोकतंत्र के चौराहे पर धुएं की लकीरें उठने लगें और सन्नाटा बाजारों में पसरे, तो समझिए कि कहीं कुछ बहुत ग़लत घट रहा है। पश्चिम बंगाल का मुर्शिदाबाद जिला इन दिनों ऐसी ही बेचैनी से गुज़र रहा है। सुती, समसेरगंज, धुलियान और जंगीपुर की गलियों में खामोशी है, लेकिन ये खामोशी सिर्फ सन्नाटा नहीं, एक गहरे तनाव की आहट है। शुक्रवार (11 अप्रैल) से शुरू हुई हिंसा में अब तक तीन लोगों की जान जा चुकी है, और कई घायल हैं। इंटरनेट ठप है, दुकानें बंद हैं, और सुरक्षाबल हर मोड़ पर तैनात हैं। इलाके में बीएनएसएस की धारा 163 के तहत निषेधाज्ञा लागू है – पर क्या सिर्फ बंदूकों और बैरिकेड्स से भरोसे की बहाली हो सकती है? यह सिर्फ एक हिंसक घटना नहीं, बल्कि बंगाल की राजनीति, कानून-व्यवस्था और संवैधानिक मर्यादाओं के बीच जारी रस्साकशी की एक और कड़ी बनती जा रही है।
बंगाल में हिंसा नई बात नहीं। कभी महिलाओं को सरे आम सड़क पर पीटा जाता है। तो कहीं पंचायत के कुछ लोग ‘कंगारू कचहरी’ लगातर इंसाफ करते है। लॉ एंड ऑर्डर पर लगातार उठ रहे सवालों के बीच राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होने की अटकलें लग रही हैं। बीजेपी बंगाल में राष्ट्रपति शासन की मांग कर रही है। राज्यपाल सीवी आनंद बोस दिल्ली आकर रिपोर्ट दे चुके हैं। बोस ने महामहिम राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के अलावा देश के गृहमंत्री अमित शाह से भी मुलाकात की है इसके बाद चर्चा तेज हो गई कि पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लग सकता है।
कांग्रेस, TMC या अन्य किसी विपक्षी दल शासित राज्य में बलात्कार की वारदात हो तो बीजेपी के नेता सुबह शाम उस प्रदेश को मुख्यमंत्री को कोसते हुए इस्तीफा मांगने लगते हैं। ठीक उसी तरह जब बीजेपी शासित राज्य में बलात्कार की कोई घटना होती हो तो उसी तर्ज पर विपक्ष उस मामले को इश्यू बनाकर एकजुट हो जाता है। ऐसे में इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि सभी दलों के नेता अपने अपने राज्यों में हुई हैवानियत पर सियासी नफे नुकसान के हिसाब से चुप्पी साध लेते हैं।
मानवीय दृष्टी से देखा जाय तो बलात्कार किसी महिला के सीने पर लगा वो जख्म होता है, जो कभी नहीं भरता। जिस कोख से बच्चा जन्म लेता है जब उससे हैवानियत होती है तो सिर्फ मानवता ही शर्मसार नहीं होती, पुरुषों की कथित समाज की ठेकेदारी पर भी सवाल उठते हैं। धरने-प्रदर्शन होते हैं। कैंडल मार्च निकलता है। आरोप लगते हैं। इस्तीफा मांगा जाता है। प्रशासन सतर्क, पुलिस मुस्तैद और जनता भी जागरूक दिखती है पर वो चुल्लूभर पानी कहीं नहीं दिखता जिसमें ऐसा महापाप करने वाले डूब मरते। कोलकाता की डॉक्टर से हुई हैवानियत का मामला इतना तूल पकड़ लेगा और उसके परिवार को इंसाफ दिलाने की लड़ाई दावानल का रूप ले लेगी। ये तो किसी ने सोचा भी न होगा। वरना 2012 के निर्भया कांड से लेकर 2024 के कोलकाता की डॉक्टर बेटी ‘अभया’ के साथ हुई दरिंदगी के बाद देश की संवेदनाएं जागने में 12 साल नहीं लगते।’निर्भया’ और ‘अभया’ के मामलों के बीच के 12 सालों में देश में हजारों बलात्कार हुए। लेकिन उन लड़कियों और महिलाओं को इंसाफ दिलाने के लिए ऐसा आंदोलन क्यों नहीं हुआ, इसका जवाब भी समाज और सरकार दोनों को देना होगा।
बीजेपी कह रही है कि महिलाओं के खिलाफ अपराधों पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की टिप्पणी इस मुद्दे की गंभीरता को दर्शाती है। अब समय आ गया है कि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर ऐसे मामलों में न्याय सुनिश्चित किया जाए। बीजेपी का ये रिएक्शन राष्ट्रपति मुर्मू द्वारा न्यूज़ एजेंसी ‘पीटीआई’ के लिए लिखे गए एक विशेष हस्ताक्षरित लेख के बाद आई। जिसमें उन्होंने कोलकाता में डॉक्टर के बलात्कार और हत्या पर बात की और महिलाओं के खिलाफ जारी अपराधों पर अपनी पीड़ा व्यक्त की। बीजेपी नेताओं का कहना है कि ममता बनर्जी इस मुद्दे को लेकर भयभीत दिख रही हैं। इसलिए लगातार बीजेपी शासित राज्यों के खिलाफ ‘आग’ उगलते हुए बहुत कुछ जल जाने की धमकी दे रही है। वहीं राष्ट्रपति की राय पब्लिक डोमेन में आने के बाद अटकले लग रही है कि क्या ममता दीदी की कुर्सी छीन ली जाएगी और उनकी सत्ता जाने वाली है? यह सबसे बड़ा सवाल दिल्ली से लेकर बंगाल तक हर किसी के दिमाग में तेजी से घूम रहा है।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने महिलाओं के खिलाफ अपराधों पर आक्रोश जाहिर करने के साथ ही इस पर अंकुश लगाने का आह्वान करते हुए कहा कि ‘‘बस! बहुत हो चुका। अब वो समय आ गया है कि भारत ऐसी ‘विकृतियों’ के प्रति जागरूक हो और उस मानसिकता का मुकाबला करे जो महिलाओं को ‘कम शक्तिशाली’, ‘कम सक्षम’ और ‘कम बुद्धिमान’ के रूप में देखती है।’ राष्ट्रपति देश की प्रथम नागरिक हैं। भारत की सेना की सर्वोच्च कमांडर हैं। वो एक महिला हैं। देश की हर बेटी उनमें अपनी मां की छवि देखती है। ऐसे में कोलकाता कांड पर राष्ट्रपति के बयान से मामले की गंभीरता और गहराई को समझा जा सकता है।
एक दशक से अधिक समय से विपक्ष में बैठी कांग्रेस के नेता बीते 10 सालों से ये कहते नहीं थक रहे हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ भी नया नहीं किया। देश में जो कुछ हुआ कांग्रेस पार्टी ने किया। नेहरू-गांधी परिवार ने किया। उनकी नीतियों ने किया। मोदी जो कर रहे हैं वो कांग्रेस का विजन था। उसका सपना कांग्रेस नेताओं ने देखा था। इसके बाद बीजेपी नेता अपनी सरकार के कामकाज गिनाते हुए कांग्रेस के आरोपों का काउंटर करते हैं। अब समझने की बात ये है कि कांग्रेस ने भारत में अपने लंबे शासन काल में कई राज्य सरकारों को राष्ट्रपति शासन लगाकर बर्खास्त किया था। अब कांग्रेस नेताओं की उस बात पर गौर करें जिसमें वो कहते हैं कि बीजेपी और मोदी, कांग्रेस के कामों को कॉपी-पेस्ट कर रहे हैं। तो क्या बीजेपी, अब बंगाल का किला ढहाने के लिए उसी अस्त्र का इस्तेमाल तो नहीं करने जा रही, जिससे कांग्रेस पार्टी की पूर्ववर्ती केंद्र सरकारों ने कई राज्यों में विपक्ष की सरकारों को वहां की कानून व्यवस्था संभालने के नाम पर गिरा दिया था।
शायद यही डर ‘दीदी’ यानी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को लगने लगा होगा कि जिस तरह बीजेपी नेता, टीएमसी की सरकार को गिराने की बात कर रहे हैं उनका इस्तीफा मांग रहे हैं, ऐसे में महिला राष्ट्रपति की राय को आधार बनाकर कहीं केंद्र की सरकार आर्टिकल 356 का इस्तेमाल करके उनकी सरकार तो नहीं गिरा देगी। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 355 और अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। अनुच्छेद 355 केंद्र सरकार को राज्यों को बाहरी आक्रमण और आंतरिक अशांति से बचाने की ताकत देता है। अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति को ये शक्ति प्राप्त है कि वो राज्य में संवैधानिक तंत्र के असफल या कमजोर पड़ जाने पर राज्य सरकार की शक्तियों को अपने अधीन ले सकता है।
संविधान एक्सपर्ट्स का कहना है कि जिस भी सरकार को बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन लगाया जाता है उसके पास कोर्ट जाने का विकल्प हमेशा मौजूद है। पहले भी कोर्ट में राष्ट्रपति शासन लगाने के केंद्र के फैसलों को कोर्ट पलट चुका है। आखिरी बार 2017 में उत्तराखंड में भी ऐसा हो चुका है। तब कोर्ट ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने के फैसले को पलटकर हरीश रावत सरकार को बहाल कर दिया था। ममता की बंगाल में जिस तरह की छवि है उससे वो कोर्ट के साथ जमीन पर भी लड़ाई शुरू कर सकती हैं। राज्य में पद यात्रा या धरने और रैलियां करके ये संदेश जनता तक पहुंचाने की कोशिश कर सकती हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ।
गौरतलब है कि बंगाल में आखिरी बार 29 जून 1971 को राष्ट्रपति शासन लगा था। नई विधानसभा के गठन के बाद 20 मार्च 1972 को राष्ट्रपति शासन हटा था। कुल मिलाकर बंगाल में अब तक चार बार राष्ट्रपति शासन लग चुका है। पहली बार 1 जुलाई 1962 को नौ दिन के लिए, दूसरी बार 20 फरवरी 1968 में करीब एक साल के लिए और तीसरी बार 19 मार्च 1970 में करीब एक साल के लिए राष्ट्रपति शासन लगा था। सत्ता, सेवा का साधन है या कुछ और? इस सवाल पर नेताओं की अपनी अलग-अलग राय और दृष्टि हो सकती है। राहुल गांधी ने एक सियासी किस्सा सुनाते हुए कभी कहा था – ‘सत्ता जहर होती है।’ ऐसे में जब बंगाल का मामला तूल पकड़ रहा है, तो एक बार फिर सत्ता को गिराने वाली ताकत की चर्चा तेजी हो गई है।
धयान देने वाली बात यह भी है कि 1994 में आए सुप्रीम कोर्ट के एस।आर। बोम्मई बनाम भारत संघ फैसले ने अनुच्छेद 356 के उपयोग की सीमाएं तय कर राखी है । कोर्ट ने साफ किया कि इस प्रावधान का इस्तेमाल सिर्फ असाधारण परिस्थितियों में ही किया जा सकता है और यह न्यायिक समीक्षा के अधीन रहेगा। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि सामान्य प्रशासनिक असफलता या कानून-व्यवस्था की समस्या राष्ट्रपति शासन का पर्याप्त आधार नहीं हो सकती। साथ ही, धर्मनिरपेक्षता संविधान की मूल भावना है और इसे कमजोर करने के नाम पर अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।अब मुर्शिदाबाद की हिंसा और उसके बाद उठी राजनीतिक मांगों ने पश्चिम बंगाल की राजनीति में नया मोड़ ला दिया है। हालांकि, राष्ट्रपति शासन जैसी बड़ी संवैधानिक कार्रवाई के लिए सिर्फ राजनीतिक बयानबाजी या क्षेत्रीय हिंसा पर्याप्त नहीं है। संविधान और सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या के अनुसार, जब तक राज्य सरकार स्पष्ट रूप से संविधान के अनुरूप कार्य नहीं कर पा रही है, तब तक अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल “अंतिम उपाय” के तौर पर ही किया जा सकता है।
अशोक भाटिया, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, समीक्षक एवं टिप्पणीकार